गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

जवां चियां

हमें शिकायत हैं , जवां चियां की स्वछंद उड़ान से ..

जो पंख फैला के जीती हैं और हर पेड़ उसका बसेरा हैं..

सारा आसमां जैसे उसका हैं...

हमें आदत हैं, अपने आसमां की, जो बस एक कमरे में समा जाएं..

हमने तो अपने पेड़ भी बांट रखे हैं.....

हम परेशां हैं कि, वो जीवनरस का यूं पान कर लेती हैं, शफ़्फ़ाफ़ आसमानों में, उजालों में..

हम भी चोरी छिपे चख लेते हैं दो घूंट ,अंधेरे में..

फिर अपने पंखों में सिर डाले, आसमां को देखते भी नही..

हम भी आसमां की बाते करते हैं...लेकिन रहते तो हैं, छुपे अपने घोंसलों की छतों के नीचे, अपने पंखों में ही जकड़े हुए...

हमारी सारी जमात एक साथ हैं, एक दूसरे का ख़्याल रखते हुवे, निर्जीव पंखों के साथ..

हम कैसे इजाज़त दे दे , जवां चियां को, सजीव पंखों को फैलाए... आसमां से निर्भय हो करते आलिंगन को....

हम बांध देना चाहते हैं उसके पंखों को,कुछ मज़बूत शब्दो की... परंपराओं की बेड़ियों से..

वो नही जानती,वो खो सकती हैं,व्यापक आसमां की थाह लेते हुवे..

हम भी एक दिन खो जाएंगे ,लेकिन अपने पहचान के घोंसलों में, कुछ सगे संबंधियों के साथ, जो हमारी ही तरह जीते हैं... सुरक्षित...

आसमांके डर में....

आसमां की चाह में....

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