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बुधवार, 7 अप्रैल 2021

एक जीवन ऐसा भी

ये बैठवास गांव हैं। छोटा सा गांव। जोधपुर जिले के ओसियां तहसील में आता है। ओसियां से 11 किलोमीटर दूर स्थित है।प्राकर्तिक रूप से गांव बहुत सुंदर हैं, यहां ज्यादा हरियाली तो नही हैं पर पहाड़, रेगिस्तानी टीले इसकी खूबसूरती बड़ा देते हैं। दो एक तालाब हैं और बारिश का पानी टांको में इक्कठा कर सालभर के पानी की पूर्ति हो जाती हैं।हर जगह आखड़े, खेजड़ी, केर, कुम्भटिये के पेड़ पौधे इसकी सम्पदा हैं।

देर रात तक बच्चो का भाकळ (घर के बाहर की जगह) में खेल का शोर सुनाई देता है।2005 तक यहां न बिजली थी, न पानी की टंकियां। आसपास के गांवों में लाइट थी पर इनकी ढाणियों में बिजली न आई थी। इसके बहुत हद तक जिम्मेदार गांव के लोग ही थे। आलस्य इनकी रग रग में समाया था और ज्यादार लोग अनपढ़ भी थे।

आप इसे ठाकुरो या राजपूतों का गांव कह सकते हैं। दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी थीं पर इनके लिए इनका गांव ही पूरी दुनिया थी।गांव में  इंद्र देव की कम ही कृपा थी। दो तीन साल में एक अकाल पड़ ही जाता था। गांव के केर, सांगरी, भटकनिया, तोरुं सब्जी के तौर पर काम आ जाते।

गोधन दूध दही की पूर्ति कर देते थे। जीवित रहने के लिए इतना काफी था।

रुपया देखनो को न था। किसी के पास एक रुपये का नोट भी होता था तो जलपे की थैली में संभाल के, बनियान की अंदर की जेब मे रखा जाता था। जब कोई नोट निकालता था तो सारे गांव का एकनिष्ठ ध्यान उस आदमी को देखने मे रहता। चार पांच फोल्ड किये हुवे जब वो थैली खुलती तो उस व्यक्ति का सम्मान राजा की तरह होता।

यहां पे 1942 में भूर सिंह जी पैदा हुवे, एक बहन और तीन भाइयों में तीसरे नंबर पे थे।

तीन साल की उम्र में पिताजी का देहांत हो गया था।भूर सिंह ने बड़ा कठिन बचपन देखा था। जब मां, पिताजी के देहांत के बाद मायके चली गयी, तो भूर सिंह और उनके बड़े भाई को मासी के घर छोड़ गई थी।

दो वक्त के खाने के लिए इतना गोबर और लकड़ियों से भरे कुंडे(तगारी) उठाने पड़ते की तीन साल और छह साल के बच्चो के सिर में टाकिया पड़ गयी थी और उन हिस्सों से बाल उड़ गए थे।

बहुत छोटी उम्र में भूर सिंह को रुपये पैसे की अहमियत पता लग गयी थी। पिताजी राजाजी की फौज में थे तो चार आने पेंशन मिलती थी उस वक़्त। अड़ी घड़ी में वो पैसे काम आ जाते थे।

गांव में कोई स्कूल उस वक़्त थी नही सो वो भी अनपढ़ ही रहे। 16 साल के थे तब ओसियां में भर्ती आयी थी। अपनी उम्र 18 बता वो बड़े भाई के साथ भारतीय थल सेना में भर्ती हो गए। या यूं कहें कि पूरे गांव के अस्सी प्रतिशत युवा फौज में भर्ती हो गए।

उस वक़्त फौज में भी तनख्वाह और सुविधाएं बहुत कम थी। आने जाने का बार बार खर्चा न लगे सो साल में एक बार ही घर आते थे। 1962, 1965 और 1972 कि लड़ाई लड़ी।

1965 की लड़ाई में गोलियां गिनके मिला करती थी। अनाज भी कभी कभी तीन चार दिन लेट आता था। वो कौआ मारके भी खा जाते थे। एक दिन सात दिन के लिए अनाज न आया था। गोलियां खत्म हो गयी थी, वही हालत पाकिस्तान के सिपाहियों की भी थी। उन्होंने निर्णय किया कि कल सुबह बंदूक की बेनेट से लड़ेंगे, भूख से मरने से अच्छा दुश्मन को मारके मरे।

बहुत अपनो और दोस्तो को मरते देखा। पर रात तक सूचना आ गई कि हम युद्ध जीत गए थे।

1972 की लड़ाई में वो जिस गाड़ी में थे उसके पास बम फटा, ट्रक पलट गया पर उन्हें लगा जैसे कोई सफेद आकृति सी आयी और उन्हें थोड़ा दूर पटक दिया। उन्हें लगा शायद पिताजी की आत्मा आयी हो या गांव के देवी देवता ने बचा लिया होगा।गांव के देवी देवता में उनकी आस्था बहुत बढ़ गयी थी।

फौज से रिटायर हो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में सिक्योरिटी गार्ड लगे। खाली समय मे बैंक की कुर्शिया ठीक कर देते थे।रंग पुताई कर देते थे। खाली बैठने की आदत न थी। पैसा भी मिलता था। इमानदारी संस्कार में थी। सो सब के चहेते भी थे।

फौज के बाद इन्हें हिंसा बिल्कुल पसंद न थी। जमीनों के झगड़ो में भी नुकसान उठा लेते थे पर लड़ाई से दूर शांति से जीना चाहते थे।जब रिटायर होने के बाद गांव लौट तो गांव वैसा का वैसा ही था। बस एक सरकारी स्कूल बन गयी थी। बाकी लाइट पानी कुछ न था।

फौज से रिटायर होने के बाद ही उन्होंने शादी की थी। अक्सर गांव के लोग यही करते थे। 32,34 की उम्र तक रिटायर हो शादी करते थे, वो जो आधे जिंदा बच के आ जाते थे।

पीढ़ियों से इस गांव की शायद यही परम्परा या नियती रही हैं। 300 साल पहले जब इनके पूर्वजो को ये गांव राजाओ की सेवा और युद्ध मे बलिदान के लिए मिला था, तब दो हजार लोग यहां बसने आये थे ,अब 300 साल बाद 400 के आसपास लोग हैं। पांच छह संतान सामान्य थी पर आधे से ज्यादा कही न कही काम आ जाते।

अभी भी एक टांग हाथ कटे कई सैनिक मिल जाएंगे, जिन्होंने बाद में शादियां ही नही की।

इनके दो बेटे एक का नाम शैतान सिंह व एक का नाम जालिम सिंह था। उनको नाम तो पसंद न थे पर महाराज ने रखवा दिए। बेटे नाम के बिल्कुल विपरीत थे। पढ़ाई में कमजोर ही थे। शैतान सिंह आठवीं में मासाब को चाय पिला पिला कर और कप प्लेट धो कर जैसे तैसे पास हो गया।

आगे पढ़ाई उससे न हुई। तो काकोसा के पास जोधपुर शहर आ होटल में वेटर की नौकरी पकड़ ली। पिता तो जिंदगी भर बाहर ही रहे ,उनसे ज्यादा कुछ सीखने को न मिला। गांव में जितना सिख सका वो ही था।

वरुण होटल में छह वेटर थे उसमे से पाँच आज की भाषा मे दलित थे।वो शैतान सिंह से खुश न थे । कहते थे हमारी नौकरी खा रहा हैं। एक बार एयरफोर्स में साफ सफाई वाले कि भर्ती आयी पर वंहा की भीड़ ने इसको मारके ही भगा दिया। कहा इन नौकरियों पे सिर्फ हमारा हक़ हैं।

गुस्से और परेशानी के बीच वो काम करता रहता था। सेठजी उसके व्यवहार और ईमानदारी से खुश थे पर काबिलियत के अनुसार और कुछ काम उसको दे नही सकते थे।

एक गरीब घर की लड़की अचरज कंवर से शैतान सिंह की शादी हो गयी। अचरज कंवर के माता पिता का बचपन मे ही देहांत हो गया था। काका ने जैसे तैसे शादी करवा दी, देने को कुछ भी न था। भूर सिंह खुश थे कि बच्चे की शादी तो हो गयी।

शैतान सिंह की आमदनी कम ही थी।साइकल से आना जाना करता था, कभी होटल रुक जाता तो कभी काकोसा के घर। कुछ दिनों बाद एक कमरा ले लिया और पत्नी को शहर ले आया।

पैसे ज्यादा न थे, तो कमरा भी ऐसा ही मिला। गांव में रहने वाली अनपढ़ अचरज को छोटा सा कमरा जेल की तरह लगता था।टायलेट से घिन्न आती थी, उसे खुले में शौच की आदत थी।

शिकायत भी करती तो शैतान सिंह लड़ पड़ता।वो पिताजी से पैसे मांगता न था और भूर सिंह कंजूस भी थे उनसे रुपया खर्च न होता था। वो एक एक पाई बचाने में ही भरोसा करते थे। वे खुद बीमार पड़ने पर भी दवाई न लेते थे।धीरे धीरे स्वत ठीक हो जाते। हालांकि अब उनके दो दो पेंशन आती थी पर फिर भी उनका स्वभाव ही ऐसा हो गया था।

उन्हें ये समझ नही आता था कि वो अनपढ़ थे फिर भी दो दो नौकरी कर ली। पूरा घर संभाल लिया। ये आठवी तक पढ़े हैं फिर भी कोई ढंग का काम क्यों नही करते।

जल्द ही शैतान सिंह के घर बच्ची हुई। बच्ची के बाद अचरज की तबियत खराब रहने लग गई। शैतान सिंह भी देवी देवताओं पर डॉक्टर से ज्यादा भरोसा रखता था। जब भी अचरज पेट मे दर्द की शिकायत करती शैतान सिंह कहता बायांसा बापजी पे भरोसा रखो।

शैतान सिंह होटल से रोज परेशान होके आता, कभी ठाकर होने का ताना मिलता, कभी कुछ। एक पल को जोश भी आता पर उसमे वो स्वाभिमान जैसी भावनाएं न थी।बस पैसा मिलता रहे तो जीवन चलता रहे।

घर आते ही अचरज तबियत का कहती तो उसे दो थप्पड़ जड़ वो अपनी परेशानी कम कर लेता। एक बायांसा बापजी की तश्वीर ला के रख दी कि इनकी पूजा करो सब ठीक हो जाएगा।

शादी के बाद कभी अचरज पिहर न गयी, उसकी पहले भी कुछ ज्यादा कद्र न थी। शादी करवादी ये भी उनका एहसान ही था। वो डरती भी थी कि मेरा कुछ नही पर इनकी वहां इज्जत न हुई तो , वो दुःख से मर जायेगी। अब पति ,सास, ससुर, बच्ची सब हैं, उसका परिवार हैं। वो बस इनकी सेवा करना चाहती थी, इनकी कही हर बात मानना ही उसका धर्म था।

शैतान सिंह दारू सिगरेट से तो दूर ही था पर अब उसने चाय भी छोड़ दी थी कि कुछ पैसे बच सके। पर कुछ फर्क न पड़ा। आखिर उसने अचरज और बच्ची को गांव भेज दिया ।

अचरज गांव की खुली हवा में खुश तो थी पर पेट का दर्द उसे परेशान करता रहता। उसने अपनी सास को भी बताया तो वो हल्दी पिलाने लगी। वो सब भी देवता ध्याने की बात करते।

भूर सिंह का छोटा भाई शहर में ही रहता था। वो उनका बड़ा आदर करता था।वो अख्सर गांव आते रहते थे और उनको शहर आने का भी कहते। पर भूर सिंह को शहर न सुहाता था, कुछ देर में ही शहर खाने लगता और बस पकड़ वो गांव चल देते।

अचरज की बेटी अब सात महीने की होने वाली थी। एक दिन आंगन में झाड़ू लगाते,अचरज पेट दर्द के साथ गिर पड़ी।खड़ा किया तो उल्टियां करने लगी। गांव में तो कोई अस्पताल था नही, 11 किलोमीटर दूर ओसियां में था जिसके लिए 2 किलोमीटर दूर से बस पकड़नी होती थी।

शैतान सिंह से बात भी की, उसने कहा ओसियां दिखा दो, फर्क ना पड़े तो जोधपुर ले आओ, काकोसा के यहां ,में भी यही हूँ।

जालिम सिंह अचरज का देवर था। वो भी अपने भाई जैसा ही था । उसको ये भी न पता था की वो है ही क्यों। मानव भावनाए, समझदारी ये बड़ी बातें थी। वो डरपोक भी बहुत था। बस खाने का शौक था।

जालिम ने कहा जाटो के यहां से जीप मंगवा लेता हूँ। 300 रुपये लगेंगे। 50 रुपये वो कमाने की फिराक में था।

भूर सिंह ने कहा -दो कदम में बोट(प्याऊ) स्टैंड हैं, वहां से बस मिल जायेगी।

जालिम सिंह और भूर सिंह अचरज के साथ चल दिये। भूर सिंह पत्नी को साथ नही ले गये, एक जने का किराया और क्यों लगाना। खुद बहु से बात नही कर सकते थे तो जालम को साथ ले गए।

बोट स्टैंड, घर से 2 किलोमीटर था, उस मिट्टी से टैक्टर ही निकल सकता था।काफी बालू रेत थी। अचरज धीरे धीरे चल पा रही थी। आज उसे मिट्टी जकड़ रही थी। इतना मुश्किल चलना उसे कभी न लगा।

घूंघट में पसीना नल से पानी की तरह टपक रहा था।

बीनणी जल्दी चलो बस निकल जायेगी। बस ये आवाज़ उसके कानों में आ रही थी। वो ससुरजी की बात कैसे टाल सकती थी, सालो बाद बाप मिला हैं। वो पूरी जान लगा के चल रही थी। फिर भी दो बस निकल गयी।

गांवों में बस में आदमी औरतो को सीट दे देते हैं इससे थोड़ा आराम मिला।

बस से उतर कर अस्पताल पहुंचे। डॉक्टर भी देर से आये। जब बारी आयी तो डॉक्टर ने कहा ये सीरियस केस हैं आप तुरंत जोधपुर ले जाओ।

उस समय तीन बज चुके थे, भूर सिंह ने सोचा शहर पहुंचते पहुंचते छह बज जाएंगे। फिर रात रुकना पड़ेगा। उन्हें वहां रुकना पसंद न था। इससे अच्छा सुबह जल्दी निकलेंगे, दिन में दवा दारू कर शाम तक घर लौट आयेंगे। जालिम को ढूंढा तो वो एक कोने में खड़ा कुल्फी खा रहा था। एक थप्पड़ जड़ उसे चलने को कहा।

अचरज को अब अस्पताल से बस स्टैंड फिर बोट स्टैंड,वहां से दो किलोमीटर घर ,फिर सुबह घर से बोट स्टैंड फिर पैदल। फिर जोधपुर तक बस में आना पड़ा। वो गांव की बेटी थी उसने हिम्मत न हारी। काका ससुर के घर भी पहुंच गई। काकिसा के पांव छुए ही थे कि बेहोश हो गिर पड़ी।

काकोसा ने एक पल की देर किए बिना टैक्सी बुलाई। और गांधी हॉस्पिटल ले गए। पानी के छांटे मारने से थोड़ा उसे होश आया।

इमरजेंसी में डॉक्टर ने जैसे ही ब्लड सैंपल लिया ,उसका खून सफेद और पीला था। डॉक्टर ने कहा - "ये तो मर चुकी हैं। अब कुछ नही हों सकता।"

शैतान सिंह ने कहा "पर ये तो बोल रही हैं ना।"

डॉक्टर -"इसका खून पानी बन चुका है। काफी पुराना पीलिया है ज्यादा से ज्यादा 5 मिनट और।

शैतान ने अचरज को देखा।"

अचरज -" शायद मेरे भाग में परिवार का सुख लिखा नही हैं। देखो बायासा बापजी ने पीलिया कर दिया। हमारी बेटी का ध्यान रखना।"

अचरज नही रही। उसके तिये के दिन शैतान सिंह एक दम से चिल्लाया, "मुझे भी पीलिया हो गया हैं। मेरे हाथ देखो पूरे पीले हैं।" उसने आस पास में कोई छुरा रखा था उससे हाथ काटने लगा।

भूर सिंह ने झठ से उसके हाथ पकड़ लिए। जालिम, जालिम जोर से चिल्लाए।

जालिम दूर खड़ा नुक्ती से बने लड्डू खा रहा था ।शैतान सिंह पागलो की तरह हँसे जा रहा था।

बाप बस दोनों बेटों को देखे जा रहा था।


1999 A Love Story अ लव स्टोरी

ये बात 1999 की है,

हम 8वी कक्षा पास कर चुके थे और नवी में ,नई स्कूल में एड्मिसन की तैयारी थी।

आप कह सकते हैं कि इतनी पुरानी बात क्यों निकाली गई।

क्या है कि जब वर्तमान जिंदगी घिसी सी, बुझी सी, एक जैसी लगने लगती है तो हम अक्सर कोई पुराना किस्सा, या याद में सुख तलाशने लगते है, कि ,कभी जिंदगी हम पर भी मेहरबान थी।

हम 10,12 दोस्त लोग बचपन से ही घर के पास वाली इंग्लिश मीडियम स्कूल में जाते थे। इंग्लिश मीडियम स्कूल की ख़ासियत होती है कि वहां जाके आप अपनी हिन्दी खराब कर देते हैं और इंग्लिश का तो...

खेर छोड़िये।

इंग्लिश मीडियम स्कूल को मारवाड़ी मीडियम बनाने में हमने कोई कसर न छोड़ी।

अच्छी बात ये थी कि हमारी कोहेड स्कूल थी ,लडकिया साथ थी और बुरी बात ये की लड़कियों के पास बैठना या उनसे टच हो जाने वाले को अछूत का सर्टिफिकेट दे दिया जाता था। 

6,7 दिन दोस्त लोग बात नही किया करते थे, कुछ लात,घुसे और ठोले मारने के बाद ही इस पाप से मुक्त हुवा जा सकता था

अब हम आठवी पास कर चुके थे, ये स्कूल आठवी तक की ही थी।नवी क्लास में हमें माहेश्वरी स्कूल में डाल दिया गया।

क्यूँ?

क्योंकि कुछ दोस्तों को उनके पिताजी ने ,उस स्कूल में भेजने का निश्चय कीया।

अपने बच्चे की समझ के अलावा ,माँ बाप को क्लास के सारे बच्चो की समझ पे भरोशा होता है

खैर।।

हम दोस्त लोग 14,15 साल की उम्र के थे। एक ,दो, के बकरी की तरह हल्की दाढ़ी और मूछे उगने लगी थी, जैसे नई घास, जमीन से निकलती हुई प्रतीत होती है।

हम बचपन से इतने साथ रहे थे, कि दोस्त ,भाई जैसे हो गये थे।

ये वो उम्र थी, जब लगता था कि सूरज आप ही के लिए उगता है और चांद तारे आपके चारो तरफ ही चक्कर लगाते हैं।

आप सबसे खास व्यक्ति है और ईश्वर पूरे दिन बस आप ही का ध्यान रखने में व्यस्त रहते है।

पहली बार तोते पिंजरे से आज़ाद हो रहे थे। हुकसा, जो हमारे टेम्पो ड्राइवर थे ,बड़े मन मोजी, मस्त मोला इंसान थे, वो हम सबको इक्कठा कर, टेम्पो में भर कर ले जाते थे।

नये नये चार टायर वाले मिनीडोर टेम्पो शुरू हुवे थे।

दाग द फायर के तेज आवाज में गाने - दिल दीवाना ना जाने कब हो गया।।।।हमें दीवाना बना रहे थे।

महेश्वरी स्कूल इंग्लिश मीडियम तो थी, पर कोहेड स्कूल न थी।

पहला दिन ,स्कूल के सामने ही सोहन लाल मनिहार (sms;लड़कियों की स्कूल), हज़ारो की तादात में लड़कियां।

 हमारे पुरानी स्कूल में भी लडकिया काफी सुंदर थी, पर इस बार इनको देख कर हमारे हृदय की केमिस्ट्री में जो बदलाव महसूस हो रहे थे, वो अद्भुत थे।

उनको देख हमारे होठ कब स्माइली से हो जाते थे, पता न चलता था।

अच्छी बात ये थी कि चेहरे बदलते जाते थे पर हमारी भावनाएं तठस्थ थी।

मैं ओर मेरे जैसा ही साथी ओंकार जब इन लड़कियों को देख कर, आपस मे आंखे मिलाते थे तो एक दूसरे की खुशी ,आंखों में देख पाते थे।

आंखे भी होती हैं दिल की ज़ुबान…।

यश चोपड़ा और शाहरूख की फिल्मों का रोमांस कितना realism पे आधारित है, ऐसी भावनाओ के बाद ही आप समझ सकते है।

हमें जिंदगी के कुछ अद्भुत ज्ञान से परिचय इसी उम्र में हुआ।

सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता हैं, ये कहावत हमें पूर्ण रूप से अब ही समझ आयी थी।

बहुत कम उम्र में इकोनॉमिक्स का सबसे बड़ा सिंद्धांत समझ आया कि, डिमांड और सप्लाई कैसे आप को प्रभावित करते हैं।

इंटरवल टाइम में प्याऊ के पास खड़े होके, लड़कियों को निहारते हुवे, मां के हाथ के खाने का स्वाद ही अद्भुत लगता था।

सालो साल हमने पराठे और कैरी का अचार ही खाया था, ज्यादातर टिफिन में यही आता था, हमें कभी कोई शिकायत नही हुई।

स्कूल जल्दी पहुंचना, इंटरवल में लगातार गर्दन घुमाये एक दिशा में देखना, छुट्टी में फिर उसी स्कूल को देखना, श्रद्धा और भक्ति में एक योगी की क्या दशा होनी चाइये, उसके हम उदाहरण थे।

 हम अपने लक्ष्य को लेके इतने तल्लीन थे कि पढ़ाई पे हमारा ज़रा भी ध्यान न था।

बस मुश्किल ये थी कि पहले दिन का चेहरा हमें अगले दिन याद न रहता था।

पर जो भी सुंदर व मासूम चेहरा हमारे सामने पड़ता ,हम उसे उसी श्रद्धा व प्यार से निहारते थे। भेदभाव के हम पक्षधर न थे।

क्लास से भी बाहर लडकिया दिखती थी ; क्योंकि उनकी स्कूल रोड पार कर सामने ही थी।

वैज्ञानिक बनने की दिशा में कदम उठाते हुवे हम कही से आईना ले आये, रिफ्लेक्शन व रिफ्रैक्शन की थ्योरी पे बहुत काम किया पर सफलता हाथ न लगी।

वो वक़्त ऐसा रहा कि कुछ तरंगे, भावनाएं हमारे आसपास तेर रही हो, स्वर्ग का सा माहोल हो जैसे। जैसे जोधपुर में मनाली उत्तर आया हो। जबकि हमने मनाली के वादियों के बारे में सिर्फ सुना था,पर इश्क़ शायद वादियों जैसा ही खूबसूरत होता है।

संत रैदास जी ने सही फरमाया - मन चंगा तो कटौती में गंगा।

हमारी ऐसी श्रद्धा से भगवन प्रशन्न कैसे न होते।

और विज्ञान मेले का महेश हिंदी मीडियम स्कूल में शुभारंभ हुवा।

पूरे जोधपुर प्रदेश से लड़के लड़कियां इसमें भाग ले रहे थे.

हमे हमारी स्कूल की यूनिफार्म सबसे सुंदर लगती थी, सुथिंग ब्लू पेंट पर स्काई ब्लू विद वाइट लाइनिंग का शर्ट बड़ा फबता था।

पर आज येलो शर्ट,रेड फ्रॉक वाली स्कूल ड्रेस हमे बड़ी आकर्षित कर रही थी।

पूरी क्लास को विज्ञान मेला देखने को बोला गया। सीढिया चढ़ जब हम उस हाल में पहुंचे, आंखों की जैसे प्यास बुझ गयी। भक्त को जैसे भगवान का साक्षात्कार हुवा।

एक सूरत भक से हृदय में उतर गई। मासूम सा चेहरा,हमारी ही उम्र की 14,15 साल की लड़की, घुंघराले बाल, वही रेड ,येलो मिक्स ड्रेस।माधुरी दीक्षित सी

माधुरी दीक्षित पे फिर प्यार उमड़ आया।

फिर से?

हुवा यूं कि मेरे एक दोस्त ,जीतू जैन ने एक दिन मुझे कहा -बिना कपड़ों के लड़किया देखनी हैं। मेने ईमानदारी से 'हां' में सर हिला दिया। मेने पूछा कोनसी लड़की, उसने कहा बहुत सारी.

 मुझे लगा, ये जैन है, अमीर ही होगा, हम दोनों कुर्शियों पे बैठे होंगे और लड़कियां आस पास घूमेगी, हमें रिझायेगी। और क्या पता में किसी को छू भी पाऊँ।

बड़ी उम्मीदें लिए में गया, हम कुर्सी पे भी बैठे पर वो साइबर कैफे था, नए नए शुरू हुवे थे, में पहली बार ही गया और उसने देसीबाबा।कॉम नाम की साइट खोली, उसमे माधुरी को देखा।

उत्साह और तकलीफ दोनों थी। जिस माधुरी को हम प्यार करते है वो किसी के साथ ऐसा कैसे कर सकती है।

खैर

वो लड़की माधुरी दीक्षित सी लगी मुझे। और प्यार हो गया।

हम्म........

पीछे मुड़ के देखा तो ओंकार की आंखों में भी मूरत उत्तर आयी थी।

दोनों भाई साथ बेठे, दोनों की हालत एक सी थी। दोनों का भगवान एक था।

भगवान तो एक ही होता है।

अब दोनों ने नाम पता करने की ठानी। पर नेम प्लेट जहां ,टांग रखी थी उसे देखने की सीधी हिम्मत न थी।

मुझे हमेशा आंखों में देख के ही प्यार हुवा है, शरीर पे मेरी कभी निगाह न गयी। आंखों से पीना ही मुझे आता था। भाव हिलोरे लेने लगते थे। मन पंख सा हल्का हो उड़ने लगता था। मुझमे ऐसे ही प्यार की भूख थी।

बार बार उसके पास जाना, उससे बात करना, उसकी, हां जी ,हां जी, सुनना।

कोयल सी आवाज़ क्या होती है।प्रेम में ये उपमायें क्यों दी जाती है। सब समझ आ रहा था।

हम भाषाविद हो रहे थे।

उसका नाम 'रक्षा' था। वो भी हमें देख के कभी कभी हल्की सी हंसती थी पर अपनी हंसी संभाल लेती थी।

उसको पता था कि हम दोनों उसके पास आयेंगे, और उसकी सहेलियों को भी पता लगने लगा था।

मोहब्बत छुपाये नही छुपती साहब।

उस विज्ञान मेले में उसके प्रोजेक्ट के अलावा क्या क्या था, हमें आज भी याद नही पड़ता.

जब मौका लगता, हमारे पैर उसकी तरफ चल पड़ते थे।

सुख के क्षण मिनटों में गुजर जाते है, वो 3 दिन कब निकले पता ही न चला।

इंटरवल में बाहर आये तो पता चला कि रक्षा को फर्स्ट प्राइज मिला था और कुछ देर पहले वो चली गयी।

जिस समय ये खबर मिली हम समोसे खा रहे थे।

यकीन मानिये हमारा मन बहुत दुखी था, दिल टूट गया हो जैसे।ऐसी अवस्था मे भी हमें समोसे का स्वाद बराबर आ रहा था।

अपने अनुभव से ही इस सत्य की प्राप्ति होती है कि शरीर और मन अलग अलग होते है.

हम क्लास में गये और उसकी याद में नई कलर की गई बेंच पर R।S। लिख , आहें भरने लगे.

आँखे बंद करते तो उसका चेहरा और आवाज़ का प्रयत्क्ष दर्शन होने लगता.

हम वियोग में इतने व्याकुल थे कि अपनी टेबल के अलावा और भी टेबल पर इश्क़ जाहिर करने लगे।

हमें तब रुकना पड़ गया जब हमारी चाहत की वजह से दोस्त रोहित शर्मा को मार पड़ने लगी।

हाफ इयरली एग्जाम हुवे और हम अच्छे नंबरो से फेल हुवे।

में इंटेलीजेंट बच्चा था और ये सदमा मेरे लिए भारी था।

घर आते ही तेज़ आंसुओ की धारा बह निकली। घर वालो ने रिपोर्ट कार्ड देखा पर कुछ नही बोला, हौसला ही बढ़ाया।

पर आंशू न रुके और मुझे लता जी के डीप गाने का भी अर्थ समझ आया..

जो मैं जानती कि प्रीत करे दुःख होए

तो नगर ढिंढोरा पीटती कहती

प्रीत ना करियो कोई

हमारी मोहब्बत मुकम्मल तो न हुई, पर प्यार के निशां आज भी उन क्लास की बेंचो पर जरूर होंगें।

बस कुछ नाम बदल गए होंगे और कुछ चेहरे।

एक बजे

एक कमरे में चार दोस्त रात को एक बजे, बैठ के दारू पी रहे हैं। सब कॉलेज फ्रेंड हैं। पहला लड़का, लड़की लिव इन मे रहते हैं, दो दोस्त आज उनके यही रुक गए हैं।

पहला लड़का - यार इस रूम में ना पहले कोई किरायेदार थे। एक औरत थी उसको करंट लग गया, इसी रूम में, चिपक के मर गयी। मकान मालिक ने बताया।

दूसरा लड़का - नही यार

लड़की - हां, हां, आंटी ने हम दोनों को बताया था।

तीसरा लड़का ( ज्यादा पिआ हुआ, थोड़ा बहका हुआ) - ह्म्म्म भूत होते हैं, हां भूत होते है

दूसरा लड़का - (विक्रम जो सबका classmate था, कुछ ही दिन पहले रोड़ एक्सीडेंट में expire हो गया था) - यार अपन सब का जिगरी , विक्रम कितनी जल्दी चला गया। उसकी आत्मा को बुलाये क्या? अगर मन से ध्यान लगा के याद करो, अगर उनकी आत्मा भटक रही है तो वो बात कर लेती है। मैने पढ़ा है।

पहला लड़का - पागल हो गए हो क्या? रात की एक बजी है। फालतू के काम नहीं करने।

तीसरा लड़का - हां, बुलाते हैं, बुलाते हैं।

लड़की - यार में भूत वूत को तो नहीं मानती, पर इंटरेस्टिंग है। ट्राई करते है ना

लड़की पहला लड़के का हाथ पकड़ बैठ जाती है, तीसरा लड़का भी हाथ पकड़ लेता है। दूसरा लड़का खिड़की में रखी मोमबत्ती उठाता है, जला के बीच मे रख देता हैं, लाइट बंद कर देता है। सब एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए प्रार्थना कर रहे है।

सबकी आंखे बंद है। कुछ देर बाद

तीसरा लड़का एकदम से लुढ़क जाता है। सब थोड़ा सा डर जाते है।

पहला लड़का - इसको क्या हुआ।

लड़की - ज्यादा पी थी, नींद आ गयी होगी।

दोनों दूसरे लड़के को देखते हैं।

दूसरा लड़के की गर्दन झुकी हुई, अपने पैरों की तरफ देख रहा हो जैसे, पायल ठीक कर रहा हो जैसे, हल्का सा हँसता सा, गुनगुनाता हुआ

छन छनन न छन, छन छनन न छन

पहला लड़का - यार नाटक मत करो।

दूसरा लड़का अब गाना गाते हुए, खड़ा होता है। लड़की की तरह अंगड़ाई लेते हुए

आजा आजा रे पिया

आज माने ना जिया

पहला लड़का- डर से चीख निकल जाती है। घिसता हुआ पीछे की तरफ खिसकता है।

दूसरा लड़का, पहले लड़के की तरफ बढ़ता हुआ, गाना जारी रखता है।

बाहों में ले ले मुझे

सोचता है क्या, ओ जाने जा

पहला लड़का डर के पीछे दीवार से लग जाता हैं, गुमसुम सा, खामोश सा हो बस दूसरा लड़के को एकटक देखता रहता हैं।

इसी बीच मे लड़की भाग के जाती है और रसोई से चाकू ले आती हैं, वो दूसरे लड़के की तरफ चाकू दिखाते हुए

लड़की - ( डर और गुस्से के साथ) - मज़ाक मत कर, नहीं तो मार दूंगी ,सच में

दूसरा लड़का - जोर से हँसता है। कुछ देर हँसने के बाद- मज़ा आ गया, फट्टू सालों...

लड़की - बेवकूफ़

दूसरा लड़का ,लड़की, पहला लड़के के पास जाके, उसको हिलाते है। पर वो उसी गुमसुम हालत में, शांत...


दुःख

 19 साल की रचना शाम को छत पे टहल रही थी।


उसके चेहरे पे ना कोई खुशी थी, ना ही कोई और भाव।


मुरझाया सा चेहरा, सूखा सा बदन। 


कोई खोल ओढ़े रूठी सी जिंदगी, सूखी लड़की सी जैसे चली जा रही हो।


सामने की छत पर भैया भी टहल रहे हैं, बचपन से रचना उन्हें जानती हैं।


पर भैया कम ही दिखते हैं, कभी शहर के बाहर, कभी आफिस , सालों में कभी कभार ही दिखते हैं।


भैया को देख के हलकी सी खुशी रचना को महसूस हुई ही थी कि उसकी माँ की आवाज़ आयी।


जोर से चिल्लाते हुवे -" क्या इधर उधर देख रही हैं रांड, दिन भर फ़ोन पे लगी रहती हैं, अंदर जा"


भैया जो छत पे टहल रहे थे,उनकी नज़र रचना और उसकी मां पे गयी।


रचना ने एक पल भैया को देखा और फिर अपनी माँ को देख कर रोते हुवे चीख के साथ बोली -" तू हैं रांड, तेरी वजह से मेरी और सबकी जिंदगियां खराब हो गयी।


परेशान और झल्लाते हुवे रचना छत पे बने कमरे के अंदर चली गयी।


पीछे पीछे उसकी मां भी गालियां निकालते हुवे आयी।


रचना आँखे बंद कर पलंग पे सो गयी, उसे पता था अब माँ की बकबक आधे घंटे तो चलेगी ही।


वो कैसी थी और अब क्या हो गयी। कभी उसकी जिंदगी में भी खुशियां थी, प्यार था।


एक रील की तरह पुरानी जिंदगी उसके सामने चलने लगी।


चार पांच साल की रचना पापा की गोद मे खेल रही हैं।


पापा की दाढ़ी रचना को परेशान कर रही हैं।


पापा का प्यार, उनका आलिंगन ,उनकी बातें, रचना की दुनिया बहुत खूबसूरत थी।


वो अब स्कूल जाने लगी थी, पापा उसे छोड़ आते तो उसको बड़ा अच्छा लगता। मां तो जब भी आती बड़बड़ाती रहती ,जल्दी जल्दी चलाती, उसका हाथ भी खेंचती, गोदी भी नही लेती थी।


पापा की भी एक बुरी आदत थी, वो दारू बहुत पीते थे। पर मुझे वो हमेशा अच्छे ही लगे, कभी उन्होंने मुझे डांटा नही, मारा नही।


पीने के बाद उनके चेहरे पे हलकी मुस्कान और शान्ति सी रहती थी।


पापा जब भी पिके आते, मां झगड़ा करने पे उतारू रहती।


कहती -मूत पीके आ गए।


पापा कुछ ना कहते, मुझे गोद मे उठा खेलने लग जाते।


मां की बड़बड़ाहट चलती रहती।


माँ -तीन तीन बेटियां हैं ,तुम मूत पीके मस्त रहो, उनकी शादियां करवानी हैं, कल बड़ी हो जायेगी। पागल आदमी।।।


पापा बस सुनते रहते, कुछ ना कहते। बहुत ज्यादा होता तब ही कभी कभार बोलते


पापा - मेरे साथ चल, तेरे दिमाग का इलाज हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा, कितनी बार कहा है मैने। 


माँ- तू अपनी दारू का इलाज करवा, रोज मूत पीके आ जाता हैं।


आस पड़ोस के लोग कहते रहते हैं कि हमारे घर मे झगड़े बहुत होते हैं, हमारा घर का माहौल खुशनुमा नही हैं।


पर मुझे ये सब ना दिखता था, तीनो बहनों में पापा सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते थे। मेरी दुनिया बहुत खुशनुमा थी।


धीरे धीरे हम बहने बड़ी हो रही थी और मां की जबान और खराब।


मां दिन में पांच बार नहाती थी, वो सनकी होने लगी, बाहर से जब भी घर मे आती नहाने लग जाती। चिल्ला चिल्ला के मां सूख के कांटा हो रही थी।


पापा रोडवेज में थे, सरकारी नौकरी थी। अच्छे पैसे कमाये, घर के बाहर पांच दुकाने बनवा दी थी। पापा की भी तनख्वाह बढ़ गयी थी।


लाख सवा लाख रुपया घर मे आने लगा।


एक एक कर दोनों बहनों की शादी अच्छे घर मे करवा दी।


पर मां का स्वभाव न बदला था।


कुछ पैसो की उधारी हो गयी थी इसलिए पापा अब बार बार बाहर का टूर लेते थे। उसमे उनकी ज्यादा कमाई होती थी। घर कम ही आते थे।


मां को जैसे लड़ने और बोलने की आदत हो गयी थी।पापा ना होते तो मुझसे ही लड़ पड़ती।


महीने में एक दो बार पापा आते तो उनसे उलझ पड़ती।


पापा मुझे कहते- बस बेटा एक बार तू इस घर से निकल जाए, तुझे अच्छा घर मिले। फिर मुझे कोई फिक्र ना रहेगी। तेरी मां का स्वभाव ऐसा ही बन गया है, तू दिल पे ना लिया कर।


पर में तो शादी ही नही करना चाहती थी। मां पापा को देखा था, उनकी शादी में कुछ भी तो न अच्छा था। इससे अच्छा तो वो अकेले अकेले खुश रहते।


पापा की वजह से मेरी जिंदगी में प्यार था नही तो क्या हैं मेरी जिंदगी।


मैंने सोच रखा था, मै शादी कभी नही करूँगी और हमेशा पापा के साथ ही रहूँगी। इसके लिए मां की बक बक भी सहन कर लूंगी।


पापा के कोई बेटा नही हुआ तो क्या ,मै बेटे का फर्ज निभाऊंगी।


मै 17 साल की हो गयी थी और पापा मेरे अठारह होने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि मेरी शादी करवा सके।


पापा चाहते थे की मै आगे की पढ़ाई भी ससुराल जाके करूँ ताकि इस वातावरण दूर रहूँ। वो नही चाहते थे मेरी जिंदगी में जहर घुल जाये।


पर पापा के साथ मेरी जिंदगी प्यार से भरपूर थी।


मैं अक्सर सोचती थी, बाप को छोड बेटियां कैसे किसी के साथ भाग जाती हैं।


मेरे लिए तो प्यार का अर्थ ही पापा थे।


एक दिन जब, मेरे 18 होने में सिर्फ तीन दिन बाकी थे, पापा कुछ लोगो को घर लाये। वो सब मुझे देखने आए थे।


मुझे पापा पे बड़ा गुस्सा आया, वो मुझे खुद से दूर करना चाह रहे थे।


सब कुछ ठीक चल रहा था, मां कुछ देर तो शांत रही, फिर उनकी लड़ाई शुरू हो गयी।


मां मेहमानों के सामने भी चुप न रही। मेहमान उठ के चल दिये।


पापा का चेहरा लाल और हताश हो गया था।


बड़ी धीमी आवाज़ में वो मां से बोले।


पापा- बावली कितने अच्छे घर से रिश्ता आया था, लड़का भी कितना सुंदर था। हमारी बच्ची को देख रखा था, बच्ची की सुंदरता की वजह से कोई मांग भी न थी। तूने सब खराब कर दिया।


पापा की रात की ड्यूटी थी, रोडवेज़ में कंडक्टर थे।


सुबह वो घर आये, पर लोगो ने बताया ये उनकी लाश हैं। रात को इन्होंने ज्यादा पी ली थी। दरवाजे पे खड़े थे और चलती गाड़ी में बाहर की तरफ गिर गए थे।


मैं सूनी हो चुकी थी मुझे भगवान पे यकीन था, अच्छाई पे यकीन था, जीवन पे यकीन था।


पर एक भीड़ आयी और पापा को जला के चली गयी।


पापा ने नौकरी में मुझे नॉमिनी बना रखा था।


वो सरकारी नौकरी मुझे मिल गयी।


आज पैसो की कमीं नही हैं पर में इसी घर मे रहना चाहती हूं । मेरे पापा के पास। मां मेरी शादी करवाना चाहती हैं पर मै सिर्फ उनके मरने का इंतज़ार करती हूं।


इस घर को छोड़ में कहीं नही जाऊंगी। 


अब लोग मुझे भी सनकी और पागल कहने लगे हैं।

धापू

 सांझ ढलने को हैं, धापू ईंटो के चूल्हे पे सब्जी पका रही है। हीरा और ससुरजी के आने का समय है। हाथ मुँह धोते ही खाना मांगेंगे, दिन भर की मजदूरी थका भी तो देती है। तभी पपिया दौड़ते हुये आता हैं, माई "बापू" आ गया। धापू के चेहरे पर मुस्कान बिखर जाती है। हीरा के साथ पपिया भी हाथ मुँह धोने लग जाता हैं।


बापू में आपके साथ मजदूरी करने कब चलूंगा। बेटा अभी तू पांच का ही हुआ है, अब तुझे स्कूल भेजेंगे। अच्छे से पढ़ाई करनी हैं। जब तू आठ का हो जाये, तब सेठजी हां करेंगे, तो छुट्टियों में दो महीने कुछ ईंटे तू भी उठा लेना। तब तक तेरे हाथ पैर भी मजबूत हो जाएंगे। पपिया बड़ा खुश हो जाता हैं। हां बापू मैं जल्दी आठ का हो जाऊंगा। चल अभी खाना खाले।


धापू खाना परोसते हुये - आज बापूजी के साथ नहीं बैठे सा, सीधा इधर आ गए। सब गांव वाले क्या सोचेंगे।


अब गांव तो ये हैं नहीं, दस महीने पहले तुझे साथ ले आया, इन टेंटो में सोती हो, खुले प्लाटिक के टेंट हैं। अब तो तेरा नौ महीने का पेट भी हैं। गांव में ही रहती तो काकी ,दादी थोड़ा ध्यान भी रख लेती तेरा।


'जहाँ आप हो वही में खुश हूं सा। अकेली गांव में पड़ी रहती तो जी न लगता। इतनी बड़ी पट्टियां, ईंटे ,पत्थर उठाते हो, कितना जोखिम का काम हैं। '


'पन्नू बा पिछले साल कैसे... '


'अरे तू अच्छी बातें सोचा कर, सांवरो आपणो भली करसी। '


अच्छी खबर सुन।


क्या सा?


मैं सोच रहा था अब तेरा नवा लग गया, गांव जाने की सोच रहा था। पर सेठजी छुट्टी देंगे कि नहीं ,डरा हुआ था। पर सेठजी ने छुट्टी भी दी और गांव जाने का किराया भी दिया हैं और कहा है दो ,तीन महीने काम बंद रह सकता हैं फिर बुला लेंगे।


क्यों सा?


पता नहीं कोई बीमारी फैली हैं। सरकार के आदेश हैं। अब तो छह महीने बाद ही आएंगे। आगे सावण हैं, इस बार देखना जमाना अच्छा होगा।


केसी बीमारी हीरा?


अरे धापू ,हम मजूरों को क्यों डरना। तू बता कितने साल पहले बीमार पड़े, याद ही नहीं। न लू लगती हैं, ना गर्म सर्द होता हैं, ना ही ताव आया। बस शरीर टूटता हैं, सात घंटे की नींद और फिर तैयार। डर तो धापू चोर, लुटेरों से लगता हैं, बचाया , कमाया पैसा लूट न जाये। बीमारी तो इन साहब लोगो को होती हैं, एक बार कुर्सी पे बैठे तो आठ घंटे जैसे चिपक से गये। पता नहीं इतना कैसे बैठ पाते हैं? हम तो कल सुबह गांव निकल लेंगे। सुना है बसों में भीड़ हो जायेगी, सुबह जल्दी चलेंगे। सोते वक्त हीरा के चेहरे पर सुकून था, बिना मांगे छुट्टी मिल गयी।


सुबह कब हुई पता भी न चला, हीरा के बापूजी ही उठाने आये। दूर से ही आवाज़ देते रहे।


कब तक पड़ा रहेगा, पिके सोया है क्या? सब निकल लिये, फिर हमें कौन सी बस मिलेगी। पपिया की आँख खुल गयी, बापू को उठाया। धापू भी उठ के चाय बनाने लगी। बापूजी पता ही न चला , काम पे जाना न था तो लापरवाह हो सो गया शायद।


अब जल्दी से सामान बांध लें, जो जरूरी ना हो वो यही रहने दे।


हीरा जल्दी जल्दी सारा सामान समेटने लगा, ज्यादा कुछ न था फिर भी कपड़े और जरूरी सामान से चार ढेरियां बंध गयी।


हीरा पिला टेंट उतार समेटने लगा। अरे पड़े रहने दे इसको।


नहीं बापूजी साढ़े छह सौ रुपये लगे थे।


अच्छा, चल बांध लें।


धापू के ऊपर अब कोई छत न थी। उसकी चाय तैयार थी।


अरे हीरा चाय वाय रहने दे।


बन गयी बापूजी।


अच्छा ,तो ले आ।


बापूजी काका नहीं दिख रहे।


सब के सब आपे तापे हैं। अपना अपना बिस्तर उठा चल दिये। ये भी ना सोचा बीनणी पेट से हैं।


थोड़ा साथ रहते तो अच्छा था, लुगाई के साथ इस टेम एक लुगाई रेवे तो अच्छा होता।


हां "जी सा"


चाय ख़तम हुई थी कि मगजी ( हीरा के काका) और काकी दौड़ते से आये।


गजब हो रहा हैं, गजब हो रहा हैं, बिना सांस लिए मगजी बोला।


क्या हुआ मग्गू?


भाई सा सुबह जल्दी बस स्टैंड गये थे, बहुत भीड़ जमा हो गई। पर सरकार ने बस ,रेल सब रुकवा दी। लोगो ने हो हल्ला किया तो पूरी फौज आ गयी पुलिस वालों की, डंडे मारने लगी। सब भागने लगे, हम भी भाग आये। अब क्या करेंगे।


अच्छा, अब क्या करेंगे। काका सुबह अकेले निकल लिए तब हमसे पूछा था क्या?


अरे हीरा हमें लगा तुम आओगे जब तक बीनणी के लिए एक सीट भी रोक लेंगे।


अब लड़ो मत। बाकी गांव के छोरे भी तो थे, वो कहां हैं।


हेमिये से पूछा था, बोला रहा तो हाईवे से ट्रक पकड़ेंगे। अहमदाबाद से बियावर ट्रक चलते ही रहते हैं।


पर सुना हैं ट्रक भी सरकार रुकवा रही हैं और देख पूछ भेज रही हैं।


तो क्या करे मग्गू?


सरकार कह रही हैं ,जहां हो वही रुको नहीं तो बीमारी फैलेगी। कुछ लोग तो कह रहे हैं छह महीने भी लग सकते हैं।


अरे काका, क्या बावली बात हैं।


छह महीने यहाँ रुके तो जमा किया सब ख़र्च हो जाएगा। सब्जी तेल सब महंगा हैं यहां। काम भी बंद हैं। गांव ना निकले तो चौमासे में बीज के पैसे भी ना बचेंगे, खेती कैसे करेंगे। बर्बाद हो जायेंगे, भूखे मरने की हालत हो जायेगी।


जमीनों पर तो चौधरियों की नज़रे गड़ी ही रहती हैं।


अच्छा दाम दिया तो, मजबूरी में आधा गांव जमीन बेच देगा। अरे कोई ठिकाना, ठौर तो रहे बुढ़ापा बिताने के लिए। यूं शहर शहर जिंदगी भर मजदूरी थोड़ी करते रहेंगे।


हां बेटा, सही कह रहा हैं ,पर क्या करें।


बापूजी मुझे लगता हैं गांव तो जाना ही पड़ेगा। लगभग तीन सौ कोस होगा।


थोड़ा पैदल चलेंगे और हाइवे के आसपास ही चलते रहेंगे , दो पैसे दे कोई ट्रक बिठायेगा तो बैठ जायेंगे। नाकाबंदी से पहले उत्तर जायेंगे। फिर थोड़ा पैदल।


जोड़ तोड़ कर निकल जाएंगे बापूजी।


ठीक है हीरा, पर बहू...


बापूजी रात को धीरे धीरे चलेंगे, हमें कौन सी जल्दी हैं। रात को धूप भी नहीं होगी और पुलिस भी.. काका टेंट बांध लो, मौसम बिगड़ा तो...


हां बेटा हीरा


और कुछ खाने का सामान ज्यादा खरीद लेते हैं लालाजी से, माचीस, तेल सब ले लेते हैं। बाकी तो हाइवे पे भी ढाबे तो होते ही कुछ जुगाड हो जायेगा।


हां मग्गू ,सही हैं।


हीरा कुछ बांस के लट्ठ इक्कठे करने लगा। पपिया बापू को आंखों में सवाल लिए देख रहा था।


पपिया ये बांस, टेंट लगाने में काम आएंगे, रास्ते मे जानवर ,कुत्ते भी होते हैं और चलने में भी साथ देंगे। तू भी अपने हिसाब से ले ले।


पपिया खुशी से अपनी लकड़ी तलाश करने लग पड़ता हैं।


हीरा धापू के पास जा पूछता हैं। चल लोगी क्या?


हां सा, धीरे धीरे चल लूंगी, कल से कभी कभी दर्द आ रहे हैं। रास्ते मे कुछ हो गया तो...


तो धापू ,काकी साथ हैं ना, हम सब भी हैं। और ज्यादा कुछ लगा तो सरकारी अस्पताल तो होंगे ही। जो नज़दीक होगा उस तरफ चल लेंगे।


नहीं सा, सरकारी अस्पताल अच्छे नहीं लगते मुझे। हमारे गांव ही हो तो अच्छा हैं। अस्पताल में एक तो कितनी गंदगी होती हैं। दूसरा वहां लोगो को देख ऐसा लगता हैं जैसे हम छोटे, गरीब और अनपढ़ लोग हैं।


हमारे गांव में ऐसा लगता हैं जैसे दुनिया हमारी हैं और हममे कोई कमी नहीं हैं। साफ हवा, सुंदर गांव और मोरों की आवाज़...


हां धापू, थोड़ा पैसा इक्कठा हो जाये और ट्यूबवेल खुदवा ले तो मजदूरी की जरूरत न रहे। कुएँ तो अब सूखे हुये है। गांव में भी स्कूल आ गयी हैं, बच्चे वहाँ पढ़ लेंगे, आगे कुछ अच्छा कर लेंगे।


एक दो साल बस और...फिर सब ठीक हो जाएगा। रात होते ही धापू अपनी डंडी पकड़ चलने लगी, हीरा ने उसके हिसाब से चुनी थी। धापू को लकड़ी काफी सहारा दे रही थी। सारा सामान हीरा ने उठा लिया ताकी धापू के पास कुछ ना रहे। पपीये ने एक छोटी गठरी उठा रखी थी वो मां के साथ मटक मटक के चल रहा था।


मां मेरे बहन होगी ना।


तुझे क्या चाहिए, बहन या भाई।


मुझे तो बहन चाहिये।


ठीक हैं फिर लाडो ही होगी। सुन पपिया खुशी के साथ और मस्ती से चलने लगा।


धापू कुछ तकलीफ़ तो महसूस कर रही थी पर हिम्मत हारने से काम कैसे चलेगा। शुरु शुरु में उसने भी मजदूरी की थी, बिस बिस किलो का भार ले कितनी बार बिल्डिंग में चढ़ती उतरती थी। दस माले की बनी थी वो बिल्डिंग। कभी पैर ना टूटते थे। अब पैर कैसे भारी हुये जा रहे हैं। सोचते सोचते तीन कोस निकल गए। शहर से बाहर आ गए। हाईवे की लंबी चौड़ी सुनसान सी सड़के, साफ आसमान और पूरा चांद ,हवा में भी ठंडक। आसपास कहीं बिन मौसम बरसात हुई है।


बापूजी अब कोई पुलिस तो दिख नहीं रही, कोई ट्रक आता हैं तो रुकवाते हैं।


आओ काका।


कुछ देर बाद हीरा एक ट्रक वाले को मना लेता हैं। पूरा परिवार ट्रक में बैठ निकल जाता हैं।


काकी ट्रक ना मिलता तो अब न चला जाता। मैं तो मर ही जाती। मुझे लगता हैं टेम नजदीक हैं।


अब डरने की के बात है धापू। तेरे हीरा ने ट्रक कर ही लिया। डेढ़ सौ रुपये हर जने के लिए हैं, पर कोई नहीं जल्दी पहुंच जायेंगे। पर पुलिस कहीं दिखी तो ट्रक वाला पहले ही उतार देगा।


बात सुनते सुनते ही धापू की आँख लग गयी।


बढ़िया सड़क पर ट्रक एक गति में बिना हिले डुले ,कम आवाज़ किये हुये चल रहा था। दो घंटे कब निकल गए पता ही न चला।


तभी तेज़ ब्रेक लगने से सबकी आँख खुल गयी।


उतरो उतरो आगे पुलिस की चेकिंग हैं।


सब सामान इकट्ठा कर पूरा परिवार हाईवे से नीचे उतर गया।


आधी नींद में पपिया और धापू चल रहे थे।


धीरे धीरे चलते हुये सुबह निकल आयी।


बापूजी कोई गांव ही लगता हैं। यहां अब आराम कर लेते हैं। पुलिस भी दिख नहीं रही। सब थक गए हैं।


धापू पेड़ की छांव में बेसुध सी लेट गयी। काकी खाना बनाने लगी। तीन चार पत्थर लगा, चूल्हा बना लिया, कुछ लकड़ियां इक्कठी कर अपने बर्तन में चावल उबालने लगी।


उठ धापू उठ ,खाना खाले।


अरे धापू तुझे तो बुखार हैं।


काकी पैरो में गीला गिला लग रहा हैं, एक दो दिन में भी हो सकता हैं।


फिक्र ना कर बीनणी में हूँ ना।


बापूजी मैं किसी घर से पानी मांग लाता हूँ। काकू बोतल और गेलनिये ले लो, आगे पता नहीं कहां पानी मिले।


कुछ देर में हीरा और मगजी दौड़ते हुये आते हैं।


बापूजी हमें चलना होगा, पानी तो मिल गया पर गांव वालों ने सौ सवाल पूछे हैं ,लगता हैं पुलिस को खबर कर देंगे।


जल्दी से सब चल पड़ते हैं।


जान न होते हुये भी धापू जल्दी जल्दी पैर मारती हैं।


अब धूप चढ़ने लगी थी, कोई ट्रक वाला भी रुकने को राजी न था।


निढाल धापू कुछ कोस और चल ली। दोपहर के दो बज रहे थे कि धापू की चीख निकल गयी।


गर्भाशय का मुंह खुल गया था। काकी ने जल्दी से बिछोना किया और हीरा ने टेंट खड़ा कर दिया। काकी के कहने पर हीरा पानी गर्म कर रहा था।


डरा हुआ पपिया बापू के पास ही खड़ा था।


हीरा बेटा, डॉक्टर की जरूरत हो सकती हैं, पानी निकल गया ,बच्चा फँसा हैं बाहर नहीं आ रहा, सिर भी दिख रहा हैं। बिस मिनट हो गए, धापू भी अब थक रही हैं।


हीरा टेंट में घुसता हैं, धापू का दर्द उसके चेहरे पर साफ दिख रहा था।


धापू मैं आसपास कोई डॉक्टर का या अस्पताल का पता करके आता हूं। तुम हिम्मत रखना। मैं दौड़ते हुये जाऊंगा और आऊंगा।


हां सा। मुझे कुछ हो जाये तो बच्चों का ध्यान रखना।


बेंडि वे गी के।


तू " गुजरी" हैं, हम गुज्जर है, इतनी जल्दी हिम्मत हारेगी क्या?


हमारी "पन्ना धाय" ने तो मेवाड़ का सूरज बचाया था। वो अपने बच्चे का बलिदान न देती तो, हिंदुआ सूरज प्रताप भी न जन्म लेते। मैं अभी आया।


हीरा के पैरों में पंख लग गए थे। कोई ट्रक न रुका तो तीरों के निशान के हिसाब से नज़दीकी शहर की तरफ भागने लगा। कुछ ही देर में ट्रक की लंबी लाइन दिखी, उस जाम में वो दौड़ता रहा।


आगे पुलिस को देखते ही वो समझ गय ,अब सीधा डॉक्टर तक ना जा पायेगा। हीरा ने एक ही सांस में अपनी सारी परेशानी पुलिस को कह डाली।


पुलिस ने एक पल की देर किए बिना एम्बुलेंस को फ़ोन किया और हीरा को मास्क पहना उसके साथ चल दिये।


हीरा के सिर में सौ डर जगह बना रहे थे। कहीं धापू...काश में कुछ दिन वहीं रुक जाता। मुझे क्या पता था आज ही बच्चा हो जाएगा। ट्रक न रुकता तो अभी तक बियावर पहुंच गए होते। पुलिस वाला एम्बुलेंस को फ़ोन पे रास्ता बताए जा रहा था। हीरा डरा हुआ पुलिस जीप से उतरा तो बापूजी और मगजी भी डर से गये।


फिर संभल के बोले 


हीरा बधाई हो " पन्ना धाय" हुई है तेरे।


हीरा खुशी और डर के साथ


बापूजी पपीये की मां केसी हैं।


बढ़िया है हीरा ,काकी पास बैठी हैं। जा मिल ले


हीरा दौड़ता सा जाता हैं, धापू के चेहरे पर अब शांति और सुकून था।


ठीक है ना धापू।


हीरा बीनणी को बड़ा परेशान किया इस पन्ना ने, सिर देख इसका कितना बड़ा हैं, सवा घंटे बाद बाहर आई हैं। एक बार को तो मैं भी डर गई थी। पर बीनणी ने हिम्मत न हारी।


तभी एम्बुलेंस आ जाती हैं। धापू को जल्दी एम्बुलेंस में बैठा बोतल चढ़ाई जाती हैं। हीरा और पपिया भी साथ बैठ जाते हैं। बाकी सब को पुलिस ले के जाती हैं।


आप राजस्थान गुजरात के बॉर्डर पे हो। एम्बुलेंस राजस्थान की ही आयी हैं। हम अभी आपको राजस्थान पुलिस के हवाले कर देंगे। वो आपके परिवार को पंद्रह दिन किसी स्थान पे रखेंगे, खाना पीना सब देंगे, फिर आपको घर जाने देंगे। ठीक हैं।


बापूजी शांत भाव से - और हमें क्या चाहिए। हम आपसे डरे हुये थे पर आपने कितनी मदद की।


एम्बुलेंस में डॉक्टर हीरा को डांटती हैं। कितने गैर जिम्मेदार आदमी हो तुम। ऐसी हालत में कोई औरत को इतना चलाता हैं क्या।


बच्चा कुछ दिन बाद होनेवाला था, प्रेशर की वजह से जल्दी हो गया हैं। ये तो अच्छा हैं बच्चे ने पोजीशन ले ली थी। हेड नीचे को न होता तो। बच्चे की हार्ट बीट भी कम हो सकती थी और हो सकता हैं हुई भी हो। इसका खुद का बी पी हाई लौ हो सकता था। तुम्हारे पास तो कोई सोनोग्राफी रिपोर्ट भी नहीं हैं। आयरन कैल्शियम की गोलियां खिलाई है इसको। शुगर,ब्लड, थाइरोइड कुछ भी टेस्ट करवाया है इसका।


बच्ची चार किलो की हैं, इसमे तो सिजेरियन ही ठीक रहता। कितना बेवकूफ़ आदमी है।


पपिया डॉक्टर की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था पर हीरा और धापू एक दूसरे को देख बस मुस्कुराए जा रहे थे।



नागमणी

 सन 1940 ; आज चांदनी रात उगम कंवर को खाये जा रही थी। गांव की प्रकृति, सुंदर आसमान , मन मोहने वाला चंद्रमा सब उसके कलेजे पे कटारी से चल रहे थे।पति परमेश्वर राजाओं की फौज में थे और उनको देवलोक हुए एक महीना हो चुका था।चार आने की पेंशन भी मिलनी शुरू हो गयी। पर एक बिटिया और तीन लड़के, कैसे इनका लालन पालन होगा। बिटिया के हाथ पीले कैसे होंगे, सोच सोच कर उगमा का मन बैठे जा रहा था।


आज गर्मी और लू के थपेड़ो ने घर के खुले आंगन में सब जनानियो को सोने पर मजबूर कर दिया। नही तो रोज सब झोपड़ी या शाळ में ही सोते थे। जेठसा ठाकर साहब और घर के और पुरुष कोल्डी के बाहर माचे लगा के सो गए थे, इससे जनानियो को और आराम हो गया।


सब गहरी नींद में सोये थे । अब रात भी ठंडी हुवे जा रही थी पर उगमा के मन मे बवंडर उठा हुआ था। मन ही मन हाथ जोड़ राम जी का नाम सुमिरन करने लगी।


थोड़ी देर में आंख खुली तो साळ प्रकाशमान थी। इतना तेज प्रकाश की किवाड़ के कुंडे भी साफ दिख रहे थे। पास में सोये भाभीसा व अन्य औरतों को जगाने लगी तो सब बेसुध से पड़े थे। काफी हिलाने डुलाने पर भी सब अचेत पड़े थे।


पुरुषों की तरफ इस समय जाना सही न लगा। थोड़ा कलेजा मजबूत कर उगमा ने साळ का दरवाजा खोला। एक घोटवा पैसा जो अभी के एक रुपये के सिक्के से चार गुना बड़ा होता था, उसके आकार की, रत्न सी कोई वस्तु चमक रही थी।


उगमा ने जैसे ही उसे हाथ मे लिया। हथेलि की लकीरें और नाखूनों के नीचे की मांशपेशियां भी स्पष्ट दिखाई देने लगी। एक पल को उगमा शून्य सी हो गयी। ऐसी वस्तु उसने कभी न देखी थी। घबरा के उसने वो चमकती वस्तु फेंक दी। फेंकते ही प्रकाश का भी लोप हो गया।


वो वापस आके चुपचाप लेट गयी। कुछ देर में उगमा को घबराहट सी होने लगी, उसने फिर से भाभीसा को चेताया तो वो उठ खड़े हुए। सारी बात सुनने के बाद भाभीसा ठाकुर साहब को भी बुला लायी।


ठाकुर साहब ने बताया ये नागमणी हो सकती थी। प्रभु कृपा से स्वत ही किसी अधिकारी के पास चली आती हैं। सालों में कोई एक घटना ऐसी सुनने को मिलती हैं।


बहुत खोजने पर भी मणी न मिली।


ठाकुर साहब - बीनणी ये तुमने क्या किया। न त्यागती तो पूरे कुटुम्ब के भाग्य खुल जाते।


उगमा मन ही मन बोली ,शायद राम जी की यही इच्छा थी। एक सकारात्मक ऊर्जा से उगमा ओत प्रोत हो गयी। मैं अपने बच्चो का पालन पोषण अब पूरे जतन से करूँगी।



अजीब वाकिआ

 हुआ यूं कि हमारे एक दोस्त मुंबई से पधारे थे और अक्सर जब वो आते थे तो दारू पार्टी के लिए मुझे याद फ़रमा लेते थे। मुझे याद करने की एक वजह तो ये कि मैं पार्टीया कम अटेंड करता हूं क्योंकि मुझे पीने का शौक़ कम है । दूसरी बताऊंगा तो आप कहेंगे की अपनी ही तारीफ़ किए जाते है.. सो छोड़िए। 


कोरॉना काल में भी उनका धंधा ठीक ही चल रहा था , मोबाइल एसेसरीज की होलसेल की दो बड़ी दुकान, मुंबई सिटी सेंटर मौल में हैं। मेरा बिजनेस टूर्स न ट्रैवल्स का था जो अब चारों ख़ाने चित, औंधे मुंह पड़ा था। मै थोड़ा बहुत डिप्रेशन में तो था लेकिन अच्छी बात ये थी कि बाईस साल की उम्र वाला शौक़ पूरा करने के लिए छत्तीस साल की उम्र में मैने थिएटर क्लासेज जॉइन करली थी।


मैं बहुत ख़ुश था और समय बहुत क्रिएटिव तरीक़े से गुज़र रहा था। एक अच्छा ग्रुप बन गया था और हमने आपस में कुछ व्हाट्सएप ग्रुप बना लिए थे।


कुछ महीनों सब बढ़िया चल रहा था। कुछ लोग धड़ाधड़ मैसेज करते थे, ज़रूरी भी और ग़ैर ज़रूरी भी और कुछ लोग बिल्कुल अमल खाके सोए पड़े रहते थे, कई बार ऐसा लगता था कि वाक़ई में वो जीवित भी हैं या नहीं।


क़रीब पांच महीने पूरे होने वाले थे और हमारा एक बन्दा रूठ के ग्रुप से एक्जिट हो गया। उसके इस ग़ैर ज़िम्मेदारान रवैए पर बड़ा अजीब लगा और ग़ुस्सा भी आया। कुछ दिन हमने उससे बात न की लेकिन बाद में सब ठीक हो गया।


बात असल में उसकी नहीं , मैं अपनी कह रहा था। हुआ यूं कि एक रविवार मैं प्रैक्टिस में नहीं गया , अब बाल बच्चेदार आदमी , सौ काम और बस एक इतवार। दूसरा ये भी की मेरा तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ा हुआ था और मैं अपना समय उसमें देना चाह रहा था।


इस इतवार के बाद मुझे बड़ा अजीब सा लगने लगा। आप इसे सिक्स्थ सेंस कहे या कुछ और क्योंकि मैं ना सिक्स्थ सेंस को मानता हूं और ना ही भगवान वगवान को। विज्ञान अनुसार पांच ही सेंस मुझे समझ आते है।


यही बात मैं ड्रिंक करते हुवे अपने मित्र मंडली के साथ शेयर कर रहा था कि, मैं जब भी अपने इन व्हाट्सएप ग्रुपस को ओपन करता हूं, मुझे लगता है कोई जम कर मुझे गालियां दे रहा है।  


मेरा व्यवहार आदतन ' मुंशी प्रेमचंद जी' के उस गधे की तरह है जो किसी भी बात का सबसे कम विरोध करता है और सबके काम का और साथ का आदमी है, तो ज़ाहिर है कि मैं अल्फा मेल वाली थियरी में यक़िन नहीं रखता। क्या है की विदेशियों कि सारी थियरिज को मैं सही नहीं मानता , क्यूंकि जानवरों के लिए तो ये ठीक जान पड़ती है लेकिन जब भी इन्सान ने ऐसा बनने की कोशिश की है तो वो जानवर बन गया , जैसे कि रावण और दुर्योधन, उन दोनों में अल्फा मेल की सारी खूबियां थी। अरे.. र...र ये मैं कहां चला गया। असल में, मेरी इस आदत से मेरी पत्नी भी परेशान है , मैं कुछ बोलते बोलते , कहीं और ही दिशा मैं बोल पड़ता हूं। 


तो मै कह रहा था कि कोई मुझे जम कर गालियां दे रहा है ,ऐसा मुझे लग रहा था। इस वजह से मेरा क्लास में भी परफॉर्मेंस ख़राब हो रहा था और मैं हताश महसूस कर रहा था। दो दिन तो मैं इस बात को टालता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरा कोई वहम ही होगा या कोई और वजह होगी। लेकिन आज चार दिन हो गए थे। दारू पीने के बाद दोस्तो के साथ गप्पे मारते हुवे अपना जी हल्का करने जैसा सुख, और कोई नहीं और कहीं नहीं। 


दोस्तो को सुन कर भी बड़ा अजीब लगा क्यूंकि वो मेरा स्वभाव जानते थे । मैं जितना सीधा था उतना ही मेरा स्वभाव अनप्रेडिक्टबल था। कोई मुझे मुंह पर गाली निकाले और वो मेरे लिए उपयोगी न हो तो मैं उसके हलक़ में हाथ डाल ज़बान भी खेंच लेता हूं। और वो जानते थे कि, कोई मुझे पीठ पीछे गाली निकाले तो मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मैं ये मानता हूं कि ये दुःखी इंसानों के काम है या परेशान औरतों के , जिनको इससे अल्प सुख प्राप्त होता है। या फिर कोई मुझे छोटा दिखा, ख़ुद को बड़ा साबित करना चाहे ,लेकिन वो उस ग़रीब आदमी की परेशानी है, उससे मुझे क्या लेना देना?


दोस्तों ने कहा, इतनी छोटी बात से इतनी बड़ी परेशानी। ग्रुप से आउट हो जाओ। लेकिन दिक्कत ये थी कि एक तो मुझे एक्जिट होना ग़ैर ज़िम्मेदारान रवैया लग रहा था और दूसरा चार ग्रुप बने थे। एक ऑफिशियल गुरुजी के द्वारा और तीन दोस्तो के साथ । नज़दीकियों के हिसाब से किसी में दो दोस्त, किसी में चार और किसी में छह। दोस्तो ने पूछा कि कौनसे ग्रुप से आपको ऐसी भावनाए आ रही है ? अब ये तो मुझे भी नहीं पता। सब दोस्तो ने फ़ोन अनलॉक करने के लिए कहा। 


हम चारों दोस्तो ने फ़ोन को घेर लिया और तिलिस्म की खोज में लग गए। बड़े हिम्मत और संजीदगी से मैने गुरुजी वाला ग्रुप ही पहले खोला। सबने मेरी तरफ देखा , मैने महसूस करने की कोशिश की और मुझे बड़ा सुकून सा मिला, यहां से गालियां नहीं आ रही थी। बाक़ी रहे तीन ग्रुप, सब में से गोलियों कि बोछार की तरह गालियां आ रही थी। कुछ तो मेरे दोस्तो ने भी महसूस की। अब ये दारू का असर था या सच में कोई आध्यात्मिक अनुभव , कहा नहीं जा सकता। डिफेंस लेते हुवे मैं जल्दी से तीनों ग्रुप से आउट हो गया। ऐसा महसूस हुवा जैसे गहन युद्ध के बाद एक गहरी ख़ामोशी। एक शांति सा अनुभव हुआ और मैं घर आके सो गया। 


आपको ये वाक़िआ अजीब लग सकता हैं। 


क्या टेक्नोलॉजी भी नज़र लगा सकती है ?  


सिक्स्थ सेंस टेक्नोलॉजीज़ पर भी काम करता है? 


क्या कभी आपको भी ऐसा अनुभव हुआ है? हुआ हो तो नीचे लिखी मेल आईडी पर शेयर करना क्योंकि व्हाट्सएप नंबर देने की फ़िलहाल मेरी हिम्मत नहीं है। 


Yashsarathore@gmail.com





मनु

 राज - कैसी हो मनु?


मनु - मैं एकदम ठीक हूं। तुम कब आए..


राज - बस आज ही शाम को... तुम्हारी होली कैसी रही..


मनु - खाली....


राज - क्यों?


मनु - बस यूं ही... तुम बताओ दो साल हो गए..... कई बार मन हुआ कि तुमसे बात करूं....लेकिन फिर लगा ......आप अपने कामों में उलझे हुए होंगे..... तो....


राज - हम्म्म, कोई बात नहीं .. मुझे भी तुमसे बहुत बाते कहनी थी लेकिन कह न सका ..


मनु - अब तो कह दो राज..


राज - उस दिन आप पास आ के बैठे। मैं आपसे बाते किए जा रहा था, लेकिन मैं तो सच में प्रेम कर रहा था। उस क्षण में जी रहा था। 


मनु- : यही तो सुख है...


राज: वो चांद, वो तारे, खुला आसमान, हल्की सर्दी का अहसास और तुम। कैसे न खो जाएं हम।


उस दिन आपमें सादगी थी। चेहरे पे सच्ची हँसी थी। वो ही दिन था जब से मेरी इच्छा हुई आपको और जानने की ,बात करने की। क्योंकि मैंने उस दिन बहुत प्यारे पल जीये थे।


मनु- : अहा हा हा.. यादें ताजा हो गई..


राज - : मुझे पता था की, सब झूठ ही सही, लेकिन वहां जिंदगी थी।


मनु- : झूठ नहीं था, सच था, उस पल का सच...


राज - : काश समय वही ठहर जाता


मनु- : चांद कितना सुंदर था ना उस दिन..


राज - : हां और बहुत पास था। एक आंखों के सामने और एक मेरे कंधे पे सिर को लगाए...


मनु- : इसने मुझे निःशब्द कर दिया


राज: शब्द ही नहीं की बयां करूं, बस कोई मेरा बहुत अपना, मेरे साथ था। जिससे उस पल में मुझे अगाध प्रेम मिल रहा था । मैंने एक बार डर के ही तुम्हारे कांधे पे हाथ रखा, लेकिन फिर तुम्हारे बालों की खुशबू और ये नज़दीकी। ऐसे ही किसी पल में, मौत आगोश में ले ले। अनन्त सुखकारी मृत्यु, प्रेममय मृत्यु!


कुछ देर के लिए, तुम में खो जाने का या मेरे न होने का अहसास था। जो बहुत सुखदायी था।


मनु- : इन शब्दों में इतना प्रेम घुला हुआ है तो उन एहसासों में कितना प्रेम होगा।


राज: हम्म.. इसीलिए शब्द अपूर्ण हैं, वो धुरी तो बना सकते हैं, लेकिन जो जिया हैं उसे बता नहीं सकते।


मनु- : हां, ये सच बात हैं।


राज: तुम उस दिन मेरे पास क्यों आई थी, मुझे नहीं पता था। लेकिन वो कुछ घंटे, वो पल। जब भी मैं, मेरे जीवन के खूबसूरत लम्हों को याद करता हूं, तो उसमे वो चांद भी याद आता हैं और याद आती हो तुम। मैं मुस्कुरा उठता हूं । एक पल के लिए वो एहसास मुझे फिर से घेर लेता हैं और हृदय कहता हैं - 'मनु '.......


मनु- : मेरे पास कारण थे आपके पास आने के। एक साफ़ और निश्चल मन है जो खींच लेता है अपनी और जिसके पास जाने पर, सुकून घेर कर हिफ़ाज़त कर रहा होता हैं।


राज: शब्द ही नहीं मिल रहे, आगे क्या कहूं । अहसास के आगे शब्द पूरे नहीं उतरते..


मनु- : शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते, एहसास उन्हें पूरे करते है


राज: मैं तुम्हें उस दिन इतना नहीं जानता था। लेकिन मन था की तुम पास यूं ही बैठी रहो। मन हुआ ,तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में ले सकूं। लेकिन उसे बुरा लग गया तो... इतना मीठा एहसास क्यों ख़राब करूं। लेकिन जब अपनी इच्छा में, कोई मैल मुझे नहीं दिखा तो मैंने तुम्हारा हाथ देखा। वो उंगलियां बहुत अपनी लग रही थी, जैसे की मुझे पहले ही पता हो की वो अपनी हैं। फिर मैं ठहर गया, मेरे मन में या तुम्हारे मन में, या मैं ही नहीं रहा। शरीर से ऊपर उठकर जीना कितना खूबसूरत एहसास होता हैं, ये फिर तुमने एहसास करवा दिया था।


मनु- : हां ,बहुत खूबसूरत होता है...




राज: फिर एक वक्त आया जब तुम नहीं थी। किसी ने कहा चली गई। लेकिन तुम तो थी मन में..। रजाई से सिर ढके हुवे, आंखें और मन लॉन में तुम्हें तलाश रहे थे। उस रात आंखों में नींद नहीं थी। तुम्हारा बसेरा था। वो जगी रही , अपनी बेवकूफी पे, खुद पे हंसते हुए। लेकिन अब चांद विदा ले चुका था। मन निराश था कि गया वक्त लौट के नहीं आता।


कुछ घंटों बाद ,सूरज ने अंगड़ाई ले, जैसे ही अपनी यात्रा शुरू की, एक पल को नज़र लॉन में फिर गई। सूरजमुखी सूर्य को प्रणाम कर रही थी। फिर वही हुआ, हृदय के खेत लहलहा उठे। हवाओं में संगीत बहने लगा।




बुद्धि ने समझाया कल नशा था, सब नशे में थे। अब जग हसाई होगी। लेकिन में तो नशे में ही था, मेरा नशा उतरा ही कब था।


मैंने सूरजमुखी से पूछा -" क्या कर रहे हो सूर्य नमस्कर" 


और उसने कहा - " हां, मैं सुबह सुबह योगा करती हूं"




मनु- : सब जीवन्त कर दिया आपने, मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा हैं।


राज - क्या कहूं इसके सिवा - शुक्रिया..


तुम भी बताओ, तुम्हें उस दिन क्या लगा। तुम कैसी मन: स्थिति में थी।


मनु- मैं शायद आपकी तरह शब्दों को ना सजा पाऊँ। कहने को सिर्फ एहसास ही है। उस भीड़ में भी तन की जगह मन को तलाशने वाला मिल गया था। मुझे जहाँ कोई खतरा महसूस नही हो रहा था। पास आ कर बैठना बहुत महफूज लग रहा था। एक सुकून था। और मुझे जो शब्दों से और आपसे आती हवाओं से जो प्रेम मिल रहा था वैसा प्रेम कौन नही चाहता। उस रजाई में निश्चल प्रेम की गरमाहट ज़्यादा थी जो रात को बांधे हुए थी। 




और जानते है सबसे खूबसूरत क्या था- जब अगले दिन सब आपको छेड़ रहे थे और जो मुस्कान आपके चेहरे पे थी वो आपका शुद्ध प्रेम जता रही थी।


लेकिन फिर तुम भी चले गए...


राज - हम सब टेंट में ही थे, लगभग सारे लोग। लेटने के लिए मैं कुछ तकिए ले आया था..


मनु - हां, मुझे याद हैं..


राज - तुम सामने ही बैठी थी, कुर्सी पर... मन बावरा होता हैं। वो चाह करने लग गया की तुम पास में आकर लेट जाओ।

मन ने.. खुद से ही मान लिया की ,कोई उस नज़र से हमको न देखेगा।


मैने तुम्हारे लिए जगह कर रखी थी। मैने अपना हाथ फैला रखा था। लगा तुम मेरे बाजू को अपना तकिया बना लोगी।


लालच था ,थोड़ा और जीने के, तुम में खोने का.. लेकिन सब ख़्वाब थे । जागती आंखों के.... जीवन और प्रेम को बांधा नही जा सकता ,अपने तरीक़े से.. उनके लिए इंतज़ार करना पड़ता हैं.. वो घटित होते हैं .. जब उन्हें उनका आधार मिलता हैं..


तुम क्यों आती, कोई भी क्यों आता। लोग थे वहां ,वो भी होश में.. हमने शायद एक ऐसे समाज का निर्माण कर लिया, जहां जीने के लिए भी कुछ आवरण ज़रूरी होते हैं।


मैं चाहता था तुम्हे गले लगाना, तुम्हारे साथ बैठ और बाते करना..लेकिन आम जीवन में ऐसा नहीं होता.. ऐसा होता हैं साहित्य में, नाटक में, फ़िल्म में या नशे में...


फिर तुम्हारा और मेरा संबंध ही क्या था। हम तो पहली बार ही मिले थे...

बस एक पहचान ही तो थी कि हम दोनो कलाकर हैं...


फिर तुम्हारे नज़दीक के लोग कोई और थे, तुम्हारा प्रेम कोई और था.... मैं तो...


कुछ भी तो नहीं पास मेरे,

मेरे पास जो तुम्हे ले आए..

यहां तो बस मैं हूं, मैं हूं, बस मैं हूं .....


जितनी ज़िंदगी मिली थी , उसे अपनी झोली में पूरा समेटकर , मैं चला गया..


मनु - .... मैं .......


मनु: एक बात बताइए आप


राज :- हां


मनु:यह आप मुझसे नजरें क्यों नहीं मिलाते थे, जब भी मिलत थे..


राज: क्योंकि तुम्हारे आंखें बहुत सुंदर हैं, उनमें जीवन झलकता हैं.. और मुझे उनमें खो जाने का डर... मेरी नज़रों से अगर प्रेम बयां हो जाए और वो सब को दिख जाए, इसलिए चोरी करता था, नज़रे चुराता था..


मैं तुम्हे देखने से भी डरता था। मुझे जुड़ने का डर था, क्योंकि में पूरा ही जुड़ता हूं। मैं तुम्हे थोड़ा सा देखता था, फिर सिर झुका लेता था या इधर उधर देखने लग जाता था...


मनु - ऐसा क्यों...


राज: सच कहूं तो तुम मुझे बहुत सुंदर लगती हो। तुम जब भी आती हो या सामने होती हो तो तुम्हारा aura मुझे घेर लेता हैं। मैं क्या कहता हूं, क्या करता हूं... काफी बार होश नही रहता। फिर ख़ुद को समेटता हूं और संभल के बोलता हूं।


मनु : इतना प्रेम कैसे संभालु..


राज: बाहर तुम्हे पता नही लगता था, अंदर तूफान मुझे झगझोड़ देता था। इधर से उधर और उधर से इधर.. ये तो मैं हूं जो की ज़बान और पैरों को लड़खड़ाने नहीं देता था...


मनु: चल तो बहुत कुछ रहा होता था ,जो दिखता था ..जब आप नजरें चुराते थे..


राज - इस प्रेम में, मैं अपनी इच्छा से रमा था। तुम इसे बोझ की तरह मत लेना। मैं आपसे कोई उम्मीद नहीं रख रहा। ये नितांत मेरा हैं..


मनु: अरे ऐसा क्यों कह रहे हैं, ये नितान्त आपका नही हैं...


राज : फिर वही रात हैं...


मनु :- यह गाना सुना है आपने?


राज : हां सुना है ..


मनु : कितना सुंदर गाना है ना


राज : बहुत..

तुम्हें बेहतरीन जीवन साथी मिले, तुम बहुत काबिल हो। आंखे झुक जाने की एक वजह थी की ख़ुद को तुम्हारे लिए नाकाबिल समझता था..


मनु: पहली बात तो आप नाकाबिल नहीं है ..मुझे बहुत प्यार करने वाले मिले जरूर है ...लेकिन पता नहीं कैसा अकेलापन मुझे खाता है...


राज : एक दिन कोई मिलेगा, जब शायद ही अकेलापन ना रहे..

जीवन साथी ज़रूरी नहीं की पति ही हो..। अगर तुम्हें शादी न भी करनी हो तो कोई साथी मिले... जिसके साथ तुम अपने को पूरा फील करो..


वो क्षण भगवान सबको दिखाए.. मैने जिए थे वो पल.. बहुत समय तक... फिर... जीवन की अपनी चाल हैं... मुझे तो वो किस्तों में मिला हैं.. हमेशा ही...


मनु : मुझे नहीं चाहिए कोई ;

यह खोखले रिश्ते और प्यार ;

नहीं चाहिए कोई जीवनसाथी ;

कोई साथी नहीं होता जीवन का..


राज : लेकिन जीवन तो साथ होता हैं... जीवन से ही प्यार करो..


मुझे : मुझे जीवन से तो प्यार है..


राज : तुम्हे जब भी देखता हूं, तुम बहुत सुंदर लगती हो..

पता नही कुछ है जो मुझे खुश कर देता हैं या पूरा कर देता हैं.. पता नही...

वजह जानती हो..


मनु : क्या..


राज : तुम्हारा aura.. तुम छा जाती हो.. बादलों की तरह... घेर लेती हो सबको...बिना कुछ बोले, बिना कुछ किए... तुम्हारी होना व्यापक होता हैं... फिर सिर्फ बादल दिखते हैं और कुछ भी नही.... ये मुख्य वजह हैं.. क्योंकि फिर हर तरफ तुम दिखती हो और तुम्हारी ही बात हर कोई करता हैं...


मनु : हां , तो ऐसा क्यों होता है ?

कैसे होता है ?

मैं जानना चाहती हूं, ताकि मैं उस से बच सकूं..


राज : वह नहीं हो सकता... जो तुम्हारा गुण था, उसे ही तुम ने अवगुण कह दिया.. .. फूल समझ के खुशबू नही फैलाते.. ऐसा होता हैं.. उनका अस्तित्व ही ऐसा हैं... तुम डरोगी तो मुरझा जाओगी.. खिली रहो.. जैसी हो.. वैसे रहो


तुम नहीं भी बोलती हो , फिर भी नज़र तुम पर जाती हैं.. क्या करोगी तुम...


मनु : आह... राज...तुम..


तुम्हारी कविताएं पढ़ी.. अच्छा लिखते हो..


राज: हर बार अपना लिखा देखता हूं, और तुम्हे शुक्रिया कहने का मन होता हैं..


मनु : मुझे क्यूँ !


राज : वजह तुम ही हो । तुमसे बाते करता था ना .. कितना फायदा होता हैं... फिर कोई बात , तुमसे क्यों न करे...


राज: मैं कभी कोई प्ले करूंगा ,तुम्हारे साथ... जिसमे शृंगार रस हो... कोई रूमानी से डायलॉग्स हो.... देखना चाहता हूं.. मुझसे हो पाएगा या फिर ... नज़रे चुराऊंगा


मनु : हाहा क्यू नही.... तुम भी.. ऐसी बाते कैसे बनाते हो..


राज: जो बाते मुझसे निकलती हैं, वो सोच के नही निकलती.. एक इंपैक्ट होता हैं तुम्हारा.. फिर एहसास होता हैं... फिर उन एहसासों को शब्द देने की कोशिश करता हूं..


मनु : क्या होता होगा ऐसा...


राज : पता नही ..सच कहूं तो तुम छा जाती हो मन पर.. तुम्हारी सूरत उतर आती हैं मन में.. फिर तुम्हे याद करना.. तुम्हे सोचना अच्छा लगता हैं.. कुछ भाव होते हैं.. जो सुख देते हैं.. प्रेम जगाते हैं.. उन भावो में रहना अच्छा लगता हैं.. मैं उन भावो को पालता हूं.. प्यार करता हूं उनसे.. अपने जीवन में संजो के रखता हूं.. तो शब्दो के रूप में वो बाहर आते हैं..


मनु :- राज..

मैने तुम्हे एक प्ले की फोटो शेयर की थी...याद हैं..


राज : हे भगवान ...वो फोटो.. तुम बहुत सुंदर हो मनु...


तुम्हारी बिंदी, तुम्हारे बाल, तुम्हारी मुस्कुराट और पूरी तुम..

कोई कविता न कहे तो ,फिर कैसे कहे तुम्हे.....


मनु : यह भी एक कविता ही हैं...


राज : सच कहूं तो अब....तुमसे प्यार करने के लिए... तुम्हारी ही ज़रूरत नही...


मनु :-ऐसा क्यों कह रहे हो..


राज :- क्योंकि ऐसा होता हैं मनु..

तुमने "नवरंग" मूवी देखी हैं.


मनु: उस कहानी में एक आदमी अपनी पत्नी से इतना प्यार करता हैं की उसे याद कर कर के गाने लिखता हैं.. झूमता हैं... गाता हैं.. पत्नी को लगता हैं ,कोई और औरत से चक्कर होगा... वो चली जाती हैं.. फिर वो तड़पता हैं..


मनु : ये तो ... दुखदायी हैं..


राज : लेकिन आखिर मैं मिल जाते हैं.. हमारा हिंदी सिनेमा..


मनु : फिर तो अच्छा हैं


राज : शाम ढलने वाली हैं, रात चढ़ने वाली.. तुम्हे देरी तो नही हो रही..


मनु : नही, मैं यही रुकना चाहती हूं, तुम्हारे पास..


राज : मैं भी रुक जाना चाहता हूं फिर से उसी लॉन में, उन्ही कुर्सियों पर, जहां वक्त ठहर गया था..


मनु : हां और चाहे तो आप मेरा हाथ भी देख सकते है


राज: क्या तुम्हे पता चला जब मेने अपना हाथ तुम्हारे कंधे पर रखा !


मनु : उस दिन की यादे थोड़ी धूंधली है..


राज : हम्म् ..बहुत पी रखी थी तुमने.. जीरो नंबर दिया था मैंने तुम्हें.


मनु : बहुत अच्छे से याद है मुझे कुछ बाते..


राज : मैं डरा हुआ था, तुम्हारा सिर कांधे पर था.. तुम्हारे बालों की खुशबू ने जैसे कोई जादू सा कर दिया था.. एक मदहोशी सी थी.. खुमारी सी... मेरे प्राण चीख कर कह रहे थे की तुम्हारे कंधे पर हाथ रखूं..


जैसे तुम बैठी हो निश्चल, वैसे मैं भी ....


मनु: फिर आपने रखा था हाथ..


राज : हां, फिर हिम्मत करके मेने कंधे पर हाथ रखा.. तुम इतनी पास थी की, हाथ ने तुम्हारे बाए हाथ को छुआ... बस फिर मैं वैसे ही बैठा रहा.. उससे ज़्यादा की कोई इच्छा ही न थी, ना कोई खयाल आया.. मैं वैसे ही रहा.. काफी देर तक.. जब तक तुम्हारा हाथ न देखना ,शुरू किया..


मनु :- मैं क्या कहूं कितना प्रेम भरा हुआ है आपकी यादों में..


राज : और जिसकी वजह से ये हुआ, उसको याद ही नहीं... सदमा मूवी...


मनु : हा हा हा.. सॉरी.. कुछ कुछ याद हैं... कुछ कुछ नही..


राज : अब समझ आया तुम्हे वो मूवी क्यों पसंद हैं..


मनु- मुझे बस उस कंधे पर बहुत सुकून मिल रहा था ;जैसे बरसो बाद मिला हो


राज - देखो वैसे तो मैं भगवान, अगला पिछला जन्म नही मानता... लेकिन एक कनेक्शन होता है, जिसे मैं शब्द नही दे सकता..


मनु :- हां....


राज:- जैसे प्ले के दिन आप आए.. आप हाथ मिलाने आए... मेने कहा.. मैं हाथ नही मिलाता.. और मैं गले मिला.. इतना सीधा मैं नहीं कह सकता किसी को


मनु :-तुम्हारा मन साफ था.. सुनके में बुरा नहीं लगा


राज :- जबकि उससे पहले हमारी तो कोई बात ही नहीं हुई थी..


मनु :जी


राज : मैं तो तुम्हे देखता भी नज़र बचा के था..

सच कहूं तो तुमसे डरता भी था.. की कोई बात ठेस न पहुंचा दे.. तुम्हे गुस्सा न आ जाए..


मनु- यह जरूरी भी है..

वैसे एक बात कहूं ,

आज तक हिम्मत तो नहीं हुई याद दिलाने की..

उसी रात की बात है..


राज : हां मनु, कहो..


मनु :- ठीक से याद तो नहीं .... मैं तुम्हारे कंधे पर सर रखकर अधलेटी सी थी..

आपका हाथ मेरे कंधे पर था या हाथ पर था ; जो फिसल के कमर पर आ गया था..

एक बार को मैं डरी थी कि कहीं आपने ऐसा जानबूझकर तो नहीं किया...


मैं दो मिनट शांत रही और मुझे कोई गंदगी महसूस नहीं हो रही थी तो फिर मैं वापस निश्चिंत होकर सो गई..


राज : हां ऐसा हुआ था..


मनु : आपको पता था


राज : हां, तुम इतनी नजदीक थी की मेरा हाथ आपके हाथ पे था.. आप मेरी तरफ थे.. तो.. वैसे ही हाथ लग रहा था.. लेकिन मैने हाथ को स्टेबल रखा ,ताकि कोई गलत इंटेंशन न लगे..


मनु: अच्छा..


राज : वो पल इतने भरे हुवे थे कि.. संतुष्टि से भर चुके थे मुझे.. फिर प्यास.. क्या रहेगी..

मुझे क्या फील हुआ .. बताता हूं..

तुम्हारे हाथ पे मेरा हाथ गया... वो स्पर्श क्या था क्या कहूं... जैसे की मैं पूरा हो गया.. जैसे मन रेगिस्तान सा तप रहा था और बादल बरस गए... उसके बाद क्या मांगता में..


मनु: अहाहा इससे सुन्दर क्या होगा


राज : सरल शब्दों में कहूं,, तुम्हारा छुआ बहुत अपना था.. मुझे लगा ही नहीं तुम कोई और हो..

जैसे कोई मेरा बहुत अपना हैं.. मेरा हैं..


मनु: मुझे भी नही लगा की कोई और छू रहा है..


राज : लेकिन तुम्हारे छुए से जो सुकून और तृप्ति मिली.. बस साथ भर बैठने से.. क्या कहूं..


मनु :- राज, मैं तुम्हारे गोदी में सिर रख के सोना चाहती हूं...सालो की नींद हैं ,पूरी हो जाएगी..


राज:- थोड़ी आजादी दोगी कुछ कहने की..


मनु : कहो..


राज:- मैं क्या चाहता हूं..

लेकिन इसको गलत न लेना... मेरी कोई वैसी एक्सपेक्टेशन नहीं है आपसे.. ना ही कुछ ऐसा चाहता हूं..


मैं सोचता हूं, कही दूर पहाड़ों पर, तुम्हारे पास आके लेट जाऊं.. तुम गले लगा लो.. और मैं सो जाऊं... बस.....


मनु : क्या कहूं...


राज :- मुझे अभी तक एक ही बात समझ आई हैं की तुम मुझे पूरा होने का एहसास देती हैं. उसे तृप्ति कहूं या सुकून...


राज:- तुम्हें वह गाना याद है जिंदगी गले लगा ले..


मनु ... हां, तुम्हे वो मेरी पिक याद हैं, जिसको डीपी लगाया था, व्हाट्सएप पर..


राज : हां , बहुत प्यारी फोटो हैं वो... नेचुरल... रॉ...सूर्यमुखी ने गुलाब सजा रखा था..

मनु -आ हा हा हा क्या उपमा दी है..


राज: तुम्हारी टी शर्ट का रंग गुलाब सा था और तुम गुलाब सी ..

..गुलाब तुमने लगा रखा था या ओढ़ रखा था...

मेरा मन तुम्हे देख के उड़ के तुम्हारे पास आने को कर रहा हैं..

मन को भंवरा क्यों कहते है , तब समझ आया..


मनु - वह गुलाब कितना सुंदर था ना!


राज: हां बहुत और तुम भी...


मैं तुम्हे ध्यान से देखता हूं... और कविता जन्म लेने लगती हैं मनु..


मनु, हम एक्सपेक्ट नही करते हुवे भी हम एक्सपेक्ट करते चले जाते हैं.. इंसान ही तो हैं..


मनु :- हां मैं यह समझती हूं..


(कहते सुनते राज और मनु ,पहले की ही तरह पास बैठे और उन्हें कब नींद ने आगोश में ले लिया, या एक दूसरे में समा गए ,पता ही न चला।)

मासूम आँखें

सरजी शू पोलिश करवानी है क्या ?

एक 8,9 साल का बच्चा, छोटी छोटी आँखे। मेले कुचैले कपड़े। काला बस्ता बाएं कंधे से लटका हुआ। बैग संभालने के लिए ,कंधा उठाये हुवे। 

दायां कंधा स्वत ही झुका हुआ, छोटा अमिताभ हो जैसे। शर्ट के ऊपर वाले दो बटन खुले हुवे, लापरवाह से, या तो उसे लगाने में रुचि ही न थी या बटन लगते ही न हो। 

मैं मोहित के साथ दोपहर में चाय पीने आया था। हमारा खाता यहीं चलता था। वैसे मैं पोलिश कम ही करता हूँ, काम चल जाता है। 

बच्चे ने दोबारा पूछा -10 रुपये लूंगा साहब। 

मैंने हां करदी। मोहित को काल आया ,वो अर्जेंट ईमेल करने आफिस चला गया।

पोलिश के बाद पैसे देने थे तो पता लगा, पर्स आफिस में ही रह गया।

मैंने कहा - दो कदम पर आफिस है, आजा पैसे दे देता हूँ।

 एक बार को वो निराश तो हुआ पर साथ आना पड़ा। मेरा ऑफिस दूसरे फ्लोर पर था। लंबी सी सीढ़ी ऊपर की तरफ जा रही थी। थोड़ा अंधेरा था। सूरज की रोशनी सीधी न आती थी और दोपहर की वजह से बल्ब बंद था। या यूं कहें हमें इतने अंधेरे की आदत ही थी।

मैं जल्दी से सीढ़ी चढ़ गया। पीछे मुड़ के देखा तो लड़का नीचे ही खड़ा था। मैंने उसे ऊपर आने का इशारा किया। 

ध्यान से देखा तो लड़के की आंखों में डर साफ दिख रहा था, चेहरे पर पसीना आ गया था। पैर जैसे जमीन से जड़ गए हो उसके।

उसकी डरी आंखों ने सब कुछ बयां कर दिया....

 मैंने उसे नीचे ही रुकने का इशारा किया। पैसे ले जा कर दिए।

अब कभी वो इधर से गुजरता है तो मैं कभी पॉलिश करवा लेता हूँ या हालचाल पूछ लेता हूं।

अब उसकी आँखों में डर नहीं है, कभी मैं नहीं दिखता हूँ तो पोलिश का पूछने आफिस तक आ जाता है।

शिवा

 बात सन 1632 की है। एक छोटा सा गांव जिसका नाम मलकापुर था, एक तरफ से ऊंची ऊंची पहाड़ियों से घीरा हुआ था और एक तरफ कुछ कोस दूर पर ऊंचे ऊंचे रेत के टीले थे।


इन्ही के बीच में 80 घर का एक छोटा सा गांव था मलकापुर।


गांव की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती थी।


बारिश का पानी पहाड़ियों की तलहटी मैं इकठ्ठा होकर एक सुंदर तालाब का रूप ले लेता था।


सारे गांव की पानी की पूर्ति इसी तालाब से होती थी।


इस तालाब के तल में बुजुर्ग लोगों ने 3 बड़े कुए बना रखे थे ,कि जब तेज गर्मी का मौसम हो तो तालाब का पानी अगर सूख भी जाए तो इन कुओं में पीनेे के पर्याप्त पानी रह जायेगा।


तालाब के किनारे ही पहाड़ी पर भगवान कृष्ण का सुंदर सा मंदिर बना हुआ था। इस मंदिर की दीवारें सदियों पुरानी लगती है।


यह कब से बना हुआ है किसी को भी नहीं पता था।


सारे गांव वाले कहते हैं की , यह बहुत पुराना मंदिर है।


जब यह मंदिर बनाया गया था, तब इस तालाब का भी जीणोद्धार किया गया था।


तालाब के पानी की शुद्धता रखने के लिए उस वक़्त के ठाकुर साहब राम सिंह जी ने तालाब के तल में तांबा लगवा दिया था।


पहाड़ पर बहुत छोटी-छोटी गुफाएं है कहते है कि यहां कभी ऋषि मुनि तप किया करते थे


मंदिर से होता हुआ रास्ता सीधा गांव को जाता हैैं। मंदिर गांव से लगभग आधा कोस की दूरी पर था


रास्ते में बहुत सारे नीम के पेड़ और बहुत सारी बेर की झाड़ियां थी।


मोरों का झुंड और कोयल की आवाज रास्ते को और मनमोहक बना देेते हैं।


घास फूस से बने घर और गोबर से निपा गया आंगन, चौक मे चोक से कोरी गयी रंगोली घरों को महलो सा रूपवान बनाती थी


इस गांव में एक 16 साल का लड़का, जिसका नाम शिवा है ,अपने पिताजी प्रताप सिंह और माता देवयानी के साथ रहता है


शिवा के घर की स्थिति बहुत चिंताजनक थी


कम जमीन और पिछले साल बारिश ना होने की वजह से बचा खुचा अनाज भी समाप्त हो गया था


प्रताप सिंह जी ने नजदीकी गांव के लाला सुखराम से पैसे उधार ले रखे थे।


इस बार भी बारीश ना होने की वजह से शिवा गुरुकुल न जा सका।


शिवा को इस बात का गहरा दुख था पर घर की स्थिति देख वह कुछ न बोलता था।


शिवा अपने पिताजी के साथ आज मन्दिर आया हुआ था।


शिवा मंदिर की दीवार से तालाब को देखते हुवे


पिताजी - क्या देख रहे हो शिवा


शिव - तालाब कितना गहरा है ना


पिताजी - अभी तो पानी ही कहां है बेटा, पहली सीढ़ी से भी 2 हाथ ऊपर तक पानी रहता था, अब जाने कब बारिश हो, कुओं का पानी भी सूखने को हैं


शिव - इस तालाब का तल ताम्बे का था क्या?


पिताजी - हां बेटा कहते तो हैं


शिव - पर हमारे गांव में इतना ताम्बा आया कहां से


पिताजी - कहते हैं यहां कोई महात्मा थे जिनकी तपस्या पूर्ण हो चली थी पर गाँव की एक युवती पर अपना मन हार बैठे थे


सदगति ना होने से अगले जन्म में मणिधर सांप का स्वरूप मिला।


शिव - क्या मणिधारी सांप सच मे होते हैं


पिताजी - कहते तो है बेटा। मणि की शक्तियों से ये नाग इच्छाधारी होते हैं, मनचाहा रूप धर लेते हैं।


शिव - कैसे पता चलता है कौन सा नाग मणिधारी है


पिताजी - कहते हैं अगर मणिधारी नाग 1 कोस की दूरी पे हो तो आप के शरीर मे खुजली होने लग जाती हैं और पूर्णिमा को साँप में मणि ज्योत सी चमकने लगती हैं, तभी जानना संभव हैं


शिव - अब कोई मणिधारी नाग नही है क्या?


पिताजी - होगा बेटा


शिव - ये मंदिर हमारे गांव से आधा कोस दूरी पर हैं, अगर होता तो सारे गांव को खुजली हो जाती ( हंसता हैं)


पिताजी - ठाकुर राम सिंह जी को नाग देवता पहाड़ी के उस पार दिखे थे।


पहाड़ी के पीछे थोड़ा जंगल सा हैं, सूखे झाड़ो से बंधा हुआ सा। जंगली जानवरों के रहने का अच्छा ठिकाना है वो।


उस समय भी अकाल था औऱ कोई जरक उनकी बकरी उठा के ले भागा था।


अकाल में वही धन था, वो पीछा करते उस पार चले गये।


शिव - क्या उन्हें बकरी मिली


पिताजी - नही , वो सुबह के गए शाम लोटे, पर उनके मुख का तेज व निर्भय चेहरा देख सब दंग रह गए, उनको नाग देवता ने मणि बख्शी थी।


उसी मणि से गाँव के सब दुख दूर हुवे व खुशहाली लोटी।


वो जो भी करना चाहते थे वो काम पूरा हो जाता था


रात को दीपक में वो मणि रख देते थे और उसी रौशनी में उन्होने ये बातें लिखी, जो आज हम जानते हैं


शिव - वो मणि अब कहाँ हैं?


पिताजी - राम सिंह जी ने शादी नही की थी पर उनके परिवार के बाकी सदस्य मणि के लिए अपना लालच दिखाने लगे।


राम सिंह जी ने वो मणि वापस नाग देवता को सुपूर्द करदी ताकि उसका दुरुपयोग नही हो


शिव - वो नागदेवता आज भी हैं


पिताजी - बरसो पुरानी बात हैं ,कितनी पुरानी ठीक ढंग से कोई नही बता सकता।


पर सुना हैं मणिधारी सर्पो की उम्र 1000 साल की होती हैं। अब क्या पता।।


दर्शन के बाद शिव पिताजी के साथ घर आ जाता हैं


शाम को खाना खाते समय देवयानी की चिंता शब्द ले लेती हैं


देवयानी - अब क्या होगा शिवा के पिताजी, लाला ने आज भी संदेशा भिजवाया था


प्रताप सिंह जी - बच्चें के सामने ऐसी बातें क्यूँ कर रही हो


शिवा - मां आप डरे नही, में नागबाबा से मणि ले आऊंगा


देवयानी - कौन मणि बाबा


शिवा और प्रतापसिंह जी हँसने लग जाते हैं


शिवा मन मे ठान लेते हैं कि वो देखने जरूर जायेगा कि कोई नागदेवता है कि नही , क्या पता में सब के दुख दूर कर पाऊं।


शिवा सूर्योदय से पहले ही निकल जाता हैं क्योंकि माताजी पिताजी तो जाने देंगे नही और वो जल्दी ही लौट आयेगा ताकी उनको ज्यादा चिंता न हो।


जल्दी सुबह ,शिवा तेजी से भागता हुआ गांव से बाहर निकल जाता हैं।


आज वो एक नई उम्मीद से भरा हुआ हैं, कुछ कर जाएगा उसे पता हैं


सीधा तालाब आके ही रूकता हैं, पानी पीता हैं , दूर से ही मन्दिर को नमस्कार कर ,पहाड़ी पार कर लेता हैं।


आज उसे नाम मात्र की भी थकान न थी, एक ऊर्जा से भरा हुआ वो सूखे जंगल तक पहुंच जाता हैं।


वहाँ पहुंच वह हर गुफा के आसपास चक्कर लगाता हैं और शरीर मे खुजली के अहसास का ध्यान भी रखता हैं ताकि पता रहे कि कोनसे नाग देवता मणिधारी हैं


बहुत सारी छोटी छोटी सैकंडो गुफाये हैं जिसमे सिर्फ एक आदमी बेठ सके और बारिश,हवा से बच सके इतनी ही जगह होती हैं।


काफी देर तक खोजते रहने के बाद भी उसे कोई अहसास नही होता।


अब उसे शकां होने लगती हैं, उसकी उम्मीद ढ़हने लगती हैं।


वो संभलता है और सोचता हैं कुछ भी हो, अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर लेता हूँ।


सारी गुफा देखने के बाद वो सोचता हैं क्या पता नागदेवता अब किसी बिल में ही रहते हो,पर यहां तो सैंकड़ो बिल हैं, जहरीले सांप होंगे, एक गलती जानलेवा हो सकती हैं।


कुछ दूर पड़ी एक कंटीली झाड़ी उठा लेता हैं,उसे साफ कर, फिर सब बिलो में झाड़ी डाल के देखता हैं


ज्यादातर पहाड़ पर बने बिल छोटे छोटे ही होते हैं, काफी देर तक प्रयत्न कर वो थक जाता हैं, एक उदासी उसे घेरने लग जाती हैं।


सवेरे के आठ बजे जाते हैं, धूप तेज होने लग जाती हैं। पर अपनी समझ से वो सारी कोशिश करता हैं।


अब तो घरवालों ने भी सारे गांव में मुझे ढूंढ लिया होगा, मुझे जाना चाहिए। ये सोच शिवा आखरी बचे तीन बिल की तरफ जाता हैं।


मन ही मन वो नागबाबा को व राम सिंह जी को याद कर प्राथना करता हैं


शिवा - हे नागबाबा और रामसिंह जी में मणि का कोई दुरुपयोग ना करूँगा, सिर्फ अपने घर के लिए ही नही ,पूरे गांव की भलाई करूँगा।


में कसम खाता हूं, में शादी भी नही करूँगा और मेरा कोई भाई भी नही सो मणि के लिए झगड़े भी नही होंगे।


और सब सही होने के बाद मणि वापस कर जाऊंगा।मेरे पे कृपा करे।


शिवा पहले बिल में कोशिश करता हैं पर नाकामी हाथ लगती हैं, दूसरे बिल में भी यही होता हैं।


आखिरी बिल को वो उदासी और उम्मीद से देखता हैं, ध्यान से मन को इक्टठा कर झाड़ी बिल में डालता हैं। झाड़ी पूरी बिल में चली जाती हैं, ये बिल शिवा को काफी बड़ा लगता हैं


नाग देवता बड़े बिल में ही रहते होंगे ,पर अगर कोई दूसरा सांप हुआ और काट खाया तो, ये सोच शिवा अपनी कमीज हाथ पे अच्छे से लपेट झाड़ी के साथ अपना पूरा हाथ बिल में डाल देता हैं।


अचानक कोई शिवा का हाथ अंदर की तरफ खेंच लेता हैं, छोटे से बिल में शिवा पूरा समा जाता हैं


शिवा को समझ आये उससे पहले वो एक मंदिर में होता हैं, जो चारों ओर से पानी से ढका होता हैं। नीला आसमान और दूर तक पानी का फैलाव ही दिखता हैं


सामने ध्यान लगाएं एक बाबा बैठे होते हैं, शांत आभा ओर दयालु मुखमंडल से युक्त।


शिवा उन्हें प्रणाम करता हैं


शिवा - हे सन्त शिरोमणि आपको प्रणाम करता हूँ, क्या आप नागबाबा हैं


नागबाबा - शिवा बहुत हठीले हो तुम


शिवा - में यहाँ कैसे आया, मै ने तो बिल में… और आप तो इंसानी शरीर मे हैं, मैने तो सोचा था।।


नागबाबा - क्या तुम मुझे नाग रुप मे देखना चाहते हो


शिवा - नही नही , डर लगेगा, ऐसे ही अच्छा हैं


नागबाबा - हँसते हुवे - बेटा, हां मैं ही तुम्हारा नागबाबा हूँ


जो कहानी तुमने सुनी वो सदियो पुरानी हैं, अभी तक वो कहानी प्रचलित हैं ,प्रभु की इच्छा हैं


नागरूप तो क्या, मनुष्य रूप में भी, मैं अभी नही हूँ।


ये मेरा शूक्ष्म शरीर हैं जो तुम्हे मनुष्य सा भास रहा हैं।


एक बार आत्मा परमात्मा में समाहित हो जाती है तो अमरत्त्व में विलिन हो जाती हैं।


तुम्हारे जैसे करोड़ो में एक, कोई अनुरागी , शीतल हृदय वाला जब पुकारता हैं तो हम प्रकट होने को विवश हो जाते हैं


शिवा - तो क्या आप मुझे मणि देंगे


नागबाबा - मणि उत्तराधिकारी को ही मिलती हैं बेटा, तुम्हारी परीक्षा होगी, सफल हुवे तो जरूर मिलेगी, क्या तुम परीक्षा के लिए सज्ज हो


शिवा - मुझे क्या करना होगा


नागबाबा - उत्तर दिशा की तरफ जाओ


शिवा - पर जाने का रास्ता कहाँ, यहां तो पानी ही पानी हैं और मुझे तैरना नही आता, बचपन से ही पानी मे जाने से डर लगता हैं


नागबाबा - तो में तुम्हे वापस तुम्हारे गांव भेज देता हूँ , आओ


शिवा - नही


शिवा पानी की तरफ बढ़ता हैं , आंख बंद कर पैर पानी मे रखता हैं।


पैर पानी मे नही जाता, आँख खोल के देखता हैं और पानी पर चलने लगे जाता हैं


खुशी से पीछे मुड़ के देखता हैं तो चारो तरफ सिर्फ पानी ही होता हैं, ना ही मंदिर दिखाई देता हैं ना ही नाग बाबा।


तभी सैकड़ो बड़ी बड़ी मगरमच्छ उसकी तरफ बड़ती हैं, शिवा तेजी से भागता हैं, मगरमच्छ पास आने ही वाली होती है कि पानी मे बड़ा सा पेड़ प्रगट होता हैं


पेड़ के प्रगट होते ही मगरमच्छ थोड़ी दूर रुक जाते हैं। पेड़ पर एक सुंदर अप्सरा विराजमान होती हैं।


अप्सरा योवन से पूर्ण होती हैं, सुंदर नयन नक्श , गोर वर्ण और भोला मुख उसे अत्यधिक आकर्षक बना रहे हैं


अप्सरा - इन मगर से में तुम्हारे प्राणो की रक्षा कर सकती हूं, पर ये पेड़ मेरे प्राण ,मेरा जीवन हैं, इसमे में तुम्हारा स्वागत क्यों करुं


मेरे प्रश्न का सत्य उत्तर दे दोगे तो में तुम्हे ग्रहण करूँगी।


शिवा - बोलो देवी


अप्सरा - तुम्ह मुझे पाना चाहोगे या मेरा नीरा प्रेम , सत्य कहना तुम्हारा मन किस की चाह रखेगा।


शिवा - देवी, प्रेम


अप्सरा - ये तो तुमने अपने आप को अच्छा दिखाने के लिए कहा और मेरे योवन का अपमान किया, मै कैसे मानू ये सत्य हैं, कोई कारण दो


शिवा - देवी आप अत्यंत सुंदर हैं, आपके रूप से दृष्टि हटाना असम्भव है


परन्तु शरीर को पाना संभव हैं ,कुछ धन बल से उसे प्राप्त किया जा सकता हैं, वो सस्ती वस्तु हैं और शरीर की स्वयं एक उम्र होती हैं सो उससे प्राप्त सुख भी सदा नही रह सकते।


इसकी एक सीमा हैं


पर प्रेम बल से या धन से पाया नही जा सकता, और प्रेम असीम हैं, प्रेम अपने मे ही पूर्ण हैं - ऐसा राजा ययाति जी का महाभारत में कथन हैं।


मेरे पिताजी ने मुझे ये कथा सुनाई थी, अपनी बुद्धि और समझ से ,मै भी इस सत्य को स्वीकारता हूं।


मुझ कुरूप को आप प्रेम दे ये बड़े भाग्य की बात होगी।


अप्सरा शिवा का हाथ पकड़ पानी मे खेंच लेती हैं।


शिवा पानी मे भी सांस ले पा रहा था, जल जगत के भिन्न भिन्न, छोटे बड़े, भीमकाय जीवों को देख आश्चर्य चकित था।


जीवन व उसकी संभावनाएं हमारी समझ से कही आगे की है। प्रकर्ति ने कितने विभिन्न रंगों से मिनो को सजाया हैं, आँखों से देखने से ही मानने को आता है।


समस्त पुस्तकालयों को घोट कर पी जाएं तो भी ये जीवंत अनुभव कहाँ मिलेगा


अप्सरा शिवा के दोनों हाथ पकड़ पास में खेंच लेती हैं


शिवा की आँखों मे देख उसे जोर से धक्का देती हैं


शिवा एक रेगिस्तान में गिरता हैं।


उसे दूर एक गांव दिखाई देता हैं, शिवा वहां जाता हैं


सारे घर के दरवाजे बंद होते हैं, एक घर पे जाके शिवा आवाज़ देता हैं, अंदर से आवाज़ आती हैं


अंदर चले आओ ,हम बाहर नही आएंगे, हम तेज़ धूप में बाहर नही आ सकते।


शिवा अंदर जाता हैं, तो वहां कई कंकाल बैठे, कंकड़ खा रहे होते हैं


शिवा देख घबराता हैं, बाहर निकलने की कोशिश करता हैं पर दरवाजे अपने आप बंद हो जाते हैं


कंकाल - यहां से भाग नही पाओगे और तुम्हे खाके पूरे गांव की भूख नही मिटेगी।


शिवा - आप कंकड़ क्यों खाते हैं


कंकाल - हमें एक सन्यासी का श्राप लगा था, उसके बाद हमारे यहां सदियों से अकाल हैं, हम मरते भी नही हैं और यहां कुछ उगता ही नही हैं। भूख के मारे हम कंकड़ खाते हैं। देखो दांत भी टूट गए, सीधा निगलते हैं।


ये मेरे छोटे बच्चे देखो, सबका क्या हाल हैं


शिवा - तो कोई रास्ता क्यों नही खोजा


कंकाल - बहुत खोजा, इस गाँव के सारे जानवर भी खा गए, कुछ अकाल से मर गए, बस एक बाज ही बचा है वो भीमकाय हैं, उसे मार डाले तो एक महीने का पूरे गांव को भोजन मिल सकता हैं


पर वो बहुत दूर एक पहाड़ी पर रहता हैं, सुबह निकले तो शाम तक पहुंचे, पर धूप में हमारी हड्डिया जलती हैं, हम बेहोश होके गिर जाते हैं, रात को वो सातवे आसमान को पार कर दूर दुनिया से भोजन कर आता हैं


शिवा - एक महीने के बाद क्या?


गलत तरीके से कमाया हुआ, कुछ समय तक ही संतुष्टी दे सकता हैं फिर तो सही रास्ता ही खोजना पड़ता हैं


मुझे प्यास लग रही हैं


कंकाल - सब हँसते है - ये भी कंकाल बनेगा, हा हा हा


शिवा - वो बाज़ कहा रहता हैं


कंकाल - दक्षिण दिशा की पहाड़ी पर जाओ


शिवा पहाड़ी की तरफ भागता हैं, पहाड़ी बहुत दूर दिखाई देती हैं, शिवा प्यास से मरा जा रहा होता है, ऊपर से पसीना निकलने से कमजोर हो वो गिर जाता हैं।


एक खोपड़ी आगे पड़ी दिखाई देती हैं, कईओ ने कोशिश की थी, सब यहीं तक पहुंचे शायद, मै क्या कर सकता हूँ, शिवा सोचता हैं


कुछ सोच कर शिवा खोपड़ी को उठा उसमे मूत्र करने की कोशिश करता हैं, पर मूत्र गर्मी के कारण नही उतरता। कुछ जोर लगाने से मूत्र के साथ खून भी गिरता हैं।


शिवा आंख बंद कर पी जाता हैं और फिर से पहाड़ी की तरफ भागता हैं।


पहाड़ी पर पहुंचते ही आसमान तक को छूने वाला बाज़ शिवा को देख हँसता हैं


बाज - तुम तो मेरा शिकार कर नही सकते फिर क्यों आये हो


शिवा - तुम दूर दुनिया से भोजन कर के आते हो, क्या तुमने कुछ खाना पानी इकट्ठा कर रखा हैं


बाज - में भोजन और पानी पर्याप्त करके आता हूँ कि अगले दिन तक जीवित रह सकूँ।


भोजन अगर में इकट्ठा करने लग जाऊं तो समस्त लोको का भोजन हर लूंगा, कितने जीव जंतु भूख से मर जायेंगे।


में भी निकम्मा हो जाऊंगा और मेरी पीढ़िया भी। में सात आसमान उड़ने की समता भी खो दूंगा।


इस गांव के मूर्ख लोग यही सब कर रहे थे, बहुत धन धान होने के बावजूद ज्यादा मुनाफाखोरी के चक्कर मे कालाबाजारी करने लगे।


आसपास के सारे गांव और लोग इससे परेशान होने लगे। जो समर्थ थे वो चले गए। अकाल आया तो गरीब और लाचार मारे गये।


यह सब देख दूर गांव के एक सन्यासी ने इन्हें श्राप दिया और खुद गांव छोड़ चले गए।


शिवा - ये पश्चिम में अलग सा दिखने वाला पहाड़ कैसा हैं


बाज - ये पहाड़ नही, मेरे मल मूत्र का ढेर हैं।


सूरज ढलने वाला हैं ,मुझे जाना चाहिए।


शिवा - मुझे क्या उस ढेर पर छोड़ दोगे। वहां तक जाने की मेरे में अब सामर्थ्य नही रहा


बाज - हा हा हा क्यों क्या करना हैं, आओ चलो


बाज राम को अपने पे बैठा ढेर पर छोड़ देता है


सारे कंकाल ये देख ढेर की तरफ जाते हैं


शिवा ढ़ेर को छूता हैं तो उसमें कुछ नमी होती हैं


कुछ अपने कमीज में लपेट कर निचोड़ता हैं तो उससे पानी निकलता हैं, शिवा अपनी प्यास बुझाता हैं।


कंकाल - मूर्ख क्या कर रहे हो


शिवा - गाँव की खुशहाली के लिए रास्ता खोज रहा हूँ


देखो बाज कितने ही फल और सब्जियां निगल गया, इनके बीज साबूत हैं और ढेर में नमी अत्यधिक हैं।


हम सब मिल काम करें तो फल व सब्जिया ऊगा सकते हैं।


कंकाल - पर हमें तो श्राप हैं


शिवा - सच्चे मन से कर्म करना हमारा दायित्व हैं। परिणाम की चाह क्यों रखे।


बाकी श्राप मिलते हैं तो वरदान भी मिलते हैं


सब कंकाल मिल के काम करते हैं।


कुछ ही देर में सारा ढेर काम मे आ जाता हैं, सूरज आते आते पेड़ बड़े हो फल देने लगते हैं


छांव उन्हें धूप से बचा लेती हैं, फल खाते ही सब प्राणवान हो जाते हैं।


छोटे कंकाल मुस्कुराते बच्चे में बदल जाता हैं।


सारा गांव सुंदर नर नारी में बदल जाता हैं।


गांव का मुखीया- बेटा तुम कौन हो, हमारा उद्धार करने वाले


शिवा - कोई नही हूँ मै तो, अपने घर के हालात सुधारने के लिए।।।


मुखिया - चल जूठे , मुस्कुरा के गले लगाता हैं


गले लगाते ही शिवा नाग बाबा के सामने होता हैं, वही मन्दिर में नाग बाबा व रामसिंह जी सामने बैठे होते हैं


राम सिंह जी - तुम परीक्षा में उतीर्ण हुवे पुत्र


नागबाबा - ये राम सिंह जी हैं , आपके पूर्वज, इन्हें प्रणाम करो


शिवा - प्रणाम करता हैं - क्या अब मुझे मणि मिलेगी


नागबाबा और राम सिंह जी साथ मे हँसते हैं


नागबाबा - बेटा क्या अब भी तुम्हे मणि की जरूरत हैं


शिवा अपने मे एक अद्भुत साहस व आशावादी नजरिया महसूस करता हैं।


शिवा - बाबा मुझे इतना समझ आया कि अगर आप सच्चे हैं और सही रास्ते से पूरे प्रयास करें तो हर मुश्किल का हल ढूंढा जा सकता हैं।


मुझे अब अपनी मुश्किलो के लिए मणि की आवश्यकता नही।


नागबाबा - बेटा राम सिंह जी ने भी गांव का उद्धार अपनी चाह और मेहनत से ही किया था।


मै उस वक़्त नागयोनि में था, हर गुरु शिष्य को कुछ न कुछ याद के रूप में देता हैं ताकि गुरुओं की शिक्षा याद रहे।


कुछ मौली, माला, कुछ त्रिशूल, कोई तलवार,कटार ,कोई बाना, कोई छड़ी दे ही दिया करता हैं। उनमे कुछ नही होता।


कुछ न कुछ तो सभी काम देते ही हैं।


पर हृदय में शिक्षाओ ,संस्कारो के बीज जो बोता हैं, समय आने पे फल की कृपावृष्टि भी होती हैं


जाओ पुत्र निर्भय बनो।


शिवा नागबाबा और रामसिंह जी के चरण स्पर्श करता हैं


दोनों के मुख से एक साथ निकल पड़ता हैं - तथास्तु।


शिवा अपने आप को उसी बिल के सामने खड़ा पाता हैं, उसके हाथ मे वही झाड़ी होती हैं।


शिवा मुस्कुराता हैं, छड़ी फेंक अपने गाँव की तरफ निकल पड़ता हैं।

वो घाटी की रात

 बात 1991 की हैं। ब्यावर से चित्तौड़ जाने के लिए, ब्यावर की घाटी पार करके विजयनगर जाना पड़ता था। यह घाटी 15 किलोमीटर की थी, पतली सी सड़क, गाड़ी को घुमाना भी संभव नहीं था। लूटमार के डर से ये रास्ता अक्सर वीरान रहता था, पर ये शॉर्टकट था, दूसरे रास्ते 50 किलोमीटर का घुमाव डाल देते थे।

विक्रम मामा कुछ काम से ब्यावर आये थे और 8 बज गयी थी, शॉर्टकट लेने के अलावा कोई चारा ना था, नहीं तो घर पहुंचते पहुँचते 1 बज जाएगी।

वैसे भी वो हिम्मती इंसान हैं, उन्होंने घाटी का रास्ता पकड़ लिया। घाटी भूतों की कहानियों के लिए भी मशहूर थी। अक्सर ड्राइवर लोग कभी बूढे आदमी, कभी औरत को देखने का दावा करते थे। मामा इन सब बातों को नहीं मानते थे, वो कहते थे, जब अपनी आँखों से देखूंगा, तभी मानूँगा। मामा को भूत से ज्यादा इस सुनसान रास्ते में चोर डाकुओं का ज्यादा डर था। इस जगह के कुछ लोग ही डकैती किया करते थे और यहां की लोकल जनता को परेशान नहीं करते थे। यही सोच मामा ने भी तेज़ आवाज़ में अपनी जीप में गाने लगा दिए ताकी कोई लुटेरा हो तो उसे लगे कि कोई लोकल निवासी है।

8:30 हो चुके थे, अंधेरा हो चुका था, घाटी पूरी सुनसान थी, कोई ट्रक भी नहीं चल रहे थे। घाटी के आसपास पहले बहुत गाँव थे पर 1972 की लड़ाई में पाकिस्तान ने काफी गोले बरसाए थे। फाइटर प्लेन के कुछ गोलो से यहां के 2,3 गाँव पूरी तरह नष्ट हो गए थे। सैंकड़ों लोग मारे गए, जिसमे बूढ़े और बच्चे भी थे। उन्ही की कहानियां लोग सुनाते थे कि वो अब भूत बन गए हैं। खुली जीप में ठंडी हवा आर पार हो रही थी। नील कमल मूवी का प्यार गाना बहुत मधुर लग रहा था।

" आजा...आजा...तुझ को पुकारे मेरा प्यार, में तो।"

जीप की रोशनी बस रोड को रोशन कर रही थी। अमावस की रात पूरी काली थी, घाटी में रोड लाइट्स भी न थी। तभी अचानक राजस्थानी कपड़े पहनी औरत जीप से कुछ दूरी पर सामने खड़ी दिखाई दी। एक तरफ घाटी की खाई और दूसरी तरफ पहाड़ था और गाड़ी की स्पीड भी ज्यादा थी। मामा ने जोर से हॉर्न बजाया और ब्रेक दिए, पर औरत वही खड़ी थी। मामा ने स्टेरिंग कस के पकड़ लिया।

धड़ाम ...टक्कर हो गयी। जीप औरत के ऊपर से निकल गयी। जीप रुकते ही मामा दौड़ते हुये पीछे आये, ताकि औरत को हॉस्पिटल पहुंचाया जा सके।

पर वहां कोई औरत नहीं थी। दौड़ के जीप से टोर्च लाये और देखा तो खून का कोई निशान भी नहीं। घाटी में ज्यादा रुकना ठीक नहीं, ये सोच वो रवाना हो गए। उनको समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। संभलने के कुछ देर बाद , उन्होंने ध्यान हटाने के लिए कैसेट की तरफ हाथ बढ़ाया तो उनके हाथ पर लुगड़ी( ओढ़नी) का कपड़ा टच हुआ। देखा तो पास की सीट पे वो ही औरत बैठी है। एक पल के लिए सब सुन्न हो गया। उन्होंने फटाक से गर्दन मोड़ी और बस रोड को देखने लगे गए। उन्हें नहीं पता था अब क्या होगा। वो बस गाड़ी चलाये जा रहे थे। अपनी सांसे, धड़कन और डर को उन्होंने संभाल रखा था।

वो ओढ़नी उड़ उड़ कर कभी उनके हाथ पे लगती तो कभी चेहरे पे। उन्होंने अपनी नजर बस रोड पर रखी और गाड़ी भगाये रखी। घाटी पार होते ही उन्हें लगा अब कोई नहीं है पास में। कुछ देर निश्चित होने के बाद ही उन्होंने साइड में देखा, तो कोई न था। जल्दी से उन्होंने हनुमान चालीसा की कैसेट लगाई।

आज भी जब वो ये कहानी सुनाते है तो हम लोगों के भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं।


ठाकुर साहब

 (यह कोई कहानी नही, सच्चा जीवन परिचय हैं ,ठाकुर राम सिंह जी का।


30 साल तक उनका जीवन अपनी आंखों से देखा और सुना भी, सो पूरी ईमानदारी रखने की कोशिश करूंगा।


यह किसी जाती या धर्म के खिलाफ नही हैं पर जो सत्य आंखों से देखा उसको कहने का साहस होना ही चाहिए।


इस बार इस परिचय को लघु रखने की कोशिश करूंगा, आगे साहस हुआ तो इसपे उपन्यास भी लिखा जा सकता हैं।)




ठाकुर साहब राम सिंह जी के पिताजी का नाम ठाकुर नाहर सिंह जी था।


वे जोधपुर जिले ,ओसियां तहसील के गांव बैठवास के थे।


बैठवास गांव 7 हिस्सो में बटा हैं, उसमे एक छोटे से हिस्से रावली ढाणी- के जमींदार ठाकुर नाहर सिंह जी थे।


1922 के आसपास राम सिंह जी का जन्म हुआ था।


इस छोटे से गांव को न ये पता था कि भारत पर अंग्रेजो का शासन हैं,


ना ही महात्मा गांधी जी के बारे में जानते थे।


जोधपुर के राजा ही उनके लिए एक मात्र सच्चाई थी।


गांव के फसल का 8वा हिस्सा टैक्स के रूप में जाता था, यानी 12।5 परसेंट।


कम फसल हो तो उसके हिसाब से हिस्सा।


रसाला फोर्सेस में 5 से 8 लोगो तक नौकरी दी जा सकती थी इस गांव से।


उससे कुछ पैसो की आमदनी होती थी, साथ ही मृत्यु उपरांत ,एक वीर का सम्मान ,उनका गौरव बढ़ाने वाला था।


लाइट , रेडियो से दूर इस गांव का सादा जीवन था।


पानी की अत्यधिक कमी थी, बारिश में पहाड़ो से रिसते पानी से बने तालाब से पानी की पूर्ति होती थी।


गांव में कोई ट्यूबवैल ना थी, कुवे भी न थे, बारिश पर ही खेती निर्भर थी।


ठाकुर साहब नाहर सिंह जी का घर भी घास फूस से बना सामान्य घर था। रहन सहन भी बाकी गांव की तरह ही था।


बस सम्मान ज्यादा था क्योंकि वो न्याय उचित गांव में फैसला करते थे और कुछ हाली( नौकर) उनके यहां काम करते थे ,जिनको वो उनके काम अनुसार


अनाज दे दिया करते थे।


2 एक सोने और चांदी की थाली थी बस यही धन था, गायें ओर ऊंट काफी थे।


इन्ही सब को धन माना जाता था, रुपये पैसे बहुत कम ही हुआ करते थे।


नाहर सिंह जी का रास्ते चलते अगर कोई औरत से सामना हो जाता था और औरत को परेशानी न हो सो आप मुँह फेर कर जमीन पर बैठ जाते थे।


आदर्श चरित्र की वजह से उनका सम्मान था।


नाहर का अर्थ शेर होता हैं ऐसा ही उनका स्वभाव था।


वो अपने पुत्र राम सिंह जी को गाले के भोमियाजी जिन्होंने गायो से चोरो डाकुओ से छुड़ाने के लिए अपने प्राण दे दिए थे, उनके अलावा महाराणा प्रताप , स्वामी भक्त दुर्गादास की कहानियां सुनाया करते थे।


राम सिंह जी बहुत शांत स्वभाव युक्त व्यक्ति थे।


एक बड़ी सी लम्बी सी शाल( लंबा कमरा) व दो और कमरे जो घास फूस से बने थे, आगे घर का चौक और उसके बाहर कंटीली झाड़ियो से बनी चारदीवारी थी जिसे बाड़ भी कहते हैं।


घर के बाहर एक बड़ा सा नीम का पेड़ जिसपे बहुत सारे तोते रहते थे। उस पेड़ की छांव के सहारे ही एक कोल्डी ( लोगो के बैठने का कमरा) बनाई हुई थी।


ना उनके पास कोई हवेली थी ना ही पोल।


उनके घर पर सभी काम करते थे और उनके अनुसार अनाज पाते थे, आज छूत, अछूत जितना बड़ा करके बताया जाता है उतना न था।


भेरूजी के भोपे भील जाती के ही थे , बिछु , सांप का जहर उतारने वाले मंत्र पड़ते थे और अपने हाथ से ही पानी पिलाते थे मरीज को।


छाबड़िया और ठाठिये ( भोजनऔर समान रखने के बर्तन) उनके घर पर ही बनते थे, हरिजन समाज के लोग बनाते थे।


गाने वाले लोग देवी के भक्त माने जाते थे, पहली आरती वो ही करते थे।


हां, शादी ब्याह की दूरियां थी वो अपने अपने जातियों में ही ठीक मानी जाती थी।


बाकी सब ठीक ही था।


पानी की मटकी के तो बच्चो को भी हाथ न लगाने दिया जाता था, ताकि पानी मेला गंदा न हो सो सब बूक ( ऊपर से पानी डालने और हाथ से पीना) लगा कर ही पीते थे।


कोल्डी में आने का और अपनी बात कहना को सबको अधिकार था फिर किसी जाति धर्म का हो।


हारी बीमारी में वो सबको उधारी दे दिया करते थे और सबका हालचाल पता करते रहते थे।


पूरे गांव की उनको खबर रहती थी, बाहर से आनेवाले कोई यात्री या मेहमान उनके कोल्डी में रुकता था, उसके खाने रहने का प्रबंध वो कर दिया करते थे।


गांव में हरजी भाटी और बाबा रामदेव का प्रशिद्ध मंदिर होने से जातरू, भक्त गण आते ही रहते थे। साधु सन्यासियों का भी डेरा लगा रहता था।


मंदिर में धान की व्यवस्था भी उन्होंने संभाल रखी थी।


इस वजह से उनके परिवार का सम्मान काफी था।


राज को टैक्स देने के बाद ,एक साल खाने पीने का धान ही वो जमा रखते थे बाकी काम अनुसार लोगो मे बांट दिया जाता था।


गांव वाले उनसे खुश थे और वो गांव से।


गणगोर इनके घर से ही निकलती थी , सारा गांव औऱ आसपास के गांव भी त्योहार में हिस्सा लेते थे।


होली की भी खूब धूम होती थी।


अचानक से समय बदला , देश के लिए खुशखबरी थी, भारत आज़ाद हुआ।


जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। राजा खुद मजबूर थे।


नाहर सिंह जी के परिवार की ढाणी ( घर) जिस खेत मे थी, वो खेत और उसके अलावा उनके 2 खेत, इसके अलावा सारी जमीन जो काम करते थे उनकी हो गयी।


उनका काम सिपाही तैयार करना और जमींदारी का था , वो खुद खेती नही करते थे तो ऊनको ज़मीन भी कम मिली।


वो ज्यादा पढ़े लिखे भी नही थे। चार पांच करना भी उन्हें नही आता था।


जो किसान उनके यहां काम करते थे, उनके पास ज्यादा ज़मीन थी अब और उनके पास 10 वा हिस्सा भी नही।


कई आंदोलन चल रहे थे जिन्होंने किसानों को ज्यादा जानकारियां दे दी थी, सब अपना अपना देखने लग गए थे।


राजाओ की मदद न रही औऱ धान आना बंद हो गया था।


निराश होकर राम सिंह जी ने एक दिन अपने पिताजी को पूछा - अब हम क्या करेंगे, ऐसे तो मारे जाएंगे।


नाहर सिंह जी ने उनको समझाया कि राजा पृथू ने जब सन्यास ले लिया था तब वो अपना धान खुद उगाते थे और उसी से भोजन करते थे, मान लो अब सन्यासी का जीवन जीना हैं।


राम सिंह जी ने कहा हमने तो कभी खेती की ही नही, हमसे कैसे होगा।


नाहर सिंह जी ने पहाड़ पर बनी छतरियों की तरफ इशारा करके कहा कि


देखो ये तुम्हारे पूर्वज पहले कन्नौज से आये, 11 राठौड़ राजाओ ने चित्तौड़ के अधीन नौकरी की, सब युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुवे उसके बाद जोधपुर बस पाया।


जब कन्नौज से आये थे तो खाने पीने रहने का भी ठिकाना न था। धीरे धीरे राज पा गए।


राम राजा होते हुवे भी 14 साल कष्ट देखा, करना चाहोगे तो सब हो सकता हैं।


कई पूर्वज राजाओ के साथ विदेशो में युद्ध मे गए, उनकी लाशें भी न आयी।


इजराइल का हापा का युद्ध उन्होंने जोधपुर में सुना था वो भी सुनाया।


राम सिंह जी के बात बैठ गयी।


राम सिंह जी के 3 भाई तो सेना में चले गए।


एक भाई व राम सिंह जी खेती में लग गए।


एक बार अकाल पड़ा, खेत वैसे ही कम थे ,जमा अनाज खत्म हो गया।


राम सिंह जी की शादी हो गयी थी और 3 बच्चे भी , खाने के लाले पड़े थे।


बाकी गांव के लोगो की भी हालत खराब थी।


एक बड़ा किसान परिवार जो नाहर सिंह जी के यहां खेती करते थे, उनको काफी जमीन मिल गयी थी, उनके पास कुछ धान जमा था।


नाहर सिंह जी ने रामसिंह जी को थोड़ा धान उधार लाने को कहा।


राम सिंह जी को बड़ी शर्म आ रही थी, फिर भी वो ना न कह सके और गये।


पर किसान परिवार ने रूखे भाव से उन्हें मना कर दिया।


स्तथि गंभीर थी और घर मे बच्चे थे तो वो खुद बात करने गए।


किसान परिवार पहले तो टालमटोल करता रहा फिर उनका मुखिया गुस्से से बोला - तुम लोगो ने हज़ारो साल हमारा शोषण किया, मरो तो मरो, कुछ न मिलेगा।


ये शब्द उनके हृदय पे तीर की तरह लगे।


उन्होंने कहा तुम्हे ये सब किसने समझाया


मेने कब किसी पे अत्याचार किया था।


मुखिया बोला तुम नही तो तुम्हारे बाप दादाओ ने किया होगा।


नाहर सिंह जी ने कहा मेरे पिताजी ओर दादाजी दोनों ही शांत स्वभाव के थे, उनको ऐसा करता मेने तो देखा नही।


वो घर आये और सारी बात बताई।


राम सिंह जी का भाई गुस्से में आ उनसे लड़ने गया। मार पीट के उसे फेंक दिया गया। उसकी दवा दारू का खर्चा और बढ़ गया।


नाहर सिंह जी बदले मौसम और मरी हुई इंसानियत को सहन ना कर सके और चल बसे।


राम सिंह जी को ठाकुर बनाया गया, वो बस नाम के ठाकुर थे।


उनके पास ना शिक्षा थी, ना पैसे ना नौकर।


अब गणगोर पर अकेले उनके समाज के लोग ही उनके घर आते थे।


घर चलाने के लिए उन्होंने अपने ऊंट और बाद में गाये बेचने लगे।


उनका भाई एक बार खेजड़ी पर लूंग काटने चढ़ा और आदत थी नही तो पहले कुल्हाड़ी गिरी और ऊपर वो, सो मारे गए।


उनके 3 भाई सेना में थे और सैनिक ही थे तो ज्यादा पैसे मिलते नही थे और अब उनका भी परिवार था तो पैसे की कमी थी।


उस समय फौज में पैसा कम भी था।


कपड़े के भी पैसे उनके पास न थे, एक धोती जो मेली हो चुकी थी उसमे भी बीड़ी के जलने से छेद थे।


जैसे तैसे समय गुजर रहा था।


मेजर शैतान सिंह जी जो बैठवास के भांजे थे उन्ही के पदचिन्हों पर चलते हुवे ठाकुर साहब के छोटे भाई के लड़के जेठू सिंह जी फौज में शहीद हो गए।


उस बात ने राम सिंह को ओर हिम्मत दे दी।


वो लगे रहे।


राम सिंह जी के बड़े बेटे गुलाब सिंह पढ़ न सके, पिता के कामो में हाथ बटाते रहे और उस समय गांव में स्कूल भी न थी।


वो पत्थर तोडना सिख गए थे जिससे घर का खर्चा निकलता था और छोटा मोटा कारीगर का काम कर लेते थे, जैसे घरो पे प्लास्टर करना।


एक दिन गुलाब सिंह जी ने पूछा ,अपने पिताजी से - ऐसे तो हमारी कौम ही खत्म हो जाएगी।


राम सिंह जी ने कहा - भगवान चाहेगा तो हो जाएगी, कई जीव जंतु खत्म हो गए, पहले कहते हैं बड़े बड़े हाथी थे अब वो नही दिखते, उनकी उपयोगिता खत्म हो गई होगी, हमारी खत्म होगी तो हम भी।।।। डरना क्या।


राम सिंह जी के दो लड़के करण सिंह जी व हुकम सिंह जी थोड़े पढ़ लिख लिए थे। गांव से 2 किलोमीटर दूर पंडित जी की ढाणी में स्कूल थी, वहीं से पढ़ लिए थे।


उनके पिताजी के भाई हीर सिंह जी ,जो रसाला फौज ( जोधपुर राजा की फ़ौज)में थे उनके लड़के जो बाद में शहर चले गए थे, वकील बन गए थे, अब उन्होंने गांव में सरकारी स्कूल बनवा दी थी।


अब गांव के लड़के लड़कियां भी पढ़ने लगे।


समय काफी गुजर गया


रावली ढाणी को छोड़ आसपास सब जगह लाइट आ गयी थी।


जिनके पास जमीने ज्यादा थी, उन्होंने ट्यूबवेल खुदवा दी।


किसानों के पास शिक्षा, ट्रेक्टर, ज़मीन, जीपे सफेद चमकती धोतियां थी।


सबके पक्के मकान हो गए थे।


वो गांव के सरपंच भी थे और राजनीति में भी वर्चस्व था।


हॉस्पिटल गांव से 2 किलोमीटर दूर था ,बीमारी में भी जीप के 2 पैसे न लगे सो पैदल ही जा आते थे।


राम सिंह जी अभी भी उन्ही झोपड़ियो में थे।


मैंने अपने बचपन मे राम सिंह जी को ब्लेड से एक तीली के दो टुकड़े करने की असफल कोशिश करते देखा, उन्हें लगा माचिस ज्यादा दिन चलेगी।


कोशिश व्यर्थ थी पर वो हर काम मे कोशिश करना नही छोड़ते थे।


गांव में रेडियो आ गया था, अब उन्हें हर बात की खबर लगने लगी।


जमाने मे कितना जहर और जातिवाद घुल गया है समझ आने लगा।


राम सिंह जी हर काम खुद से करते थे और बच्चो को भी समझाते थे।


गुलाब सिंह जी की शादी तो हुई पर बच्चे ना थे।


उनके छोटे लड़के करण सिंह ने पढ़ाई पूरी होने के बाद कई सरकारी नौकरी में कोशिश की पर पढ़ाई में ज्यादा होशियार ना होने की वजह से और आरक्षण की वजह से सफल न हो सके।


कुछ सोच कर बड़ी नौकरी का मोह त्याग उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में चपरासी की नौकरी पकड़ ली। सुख ये था नौकरी सरकारी थीं।


कई सालों तक उन्होंने गांव को न बताया ,ठाकुर साहब का बेटा चपरासी ये सोच के वो अपने आप को बाबू बताते रहे।


छोटा बेटा हुकम सिंह जयपुर चला गया और टूरिज्म लाइन में चला गया।


वकील साहब जिन्होंने स्कूल बनवाई थी, जी तोड़ कोशिश कर गांव में लाइट ले आये।


बच्चो की नौकरियां लगने से राम सिंह जी को आमदनी होने लग गई।


गुलाब सिंह जी खुद ही पत्थर निकालते थे, धीरे धीरे घर को पक्का बनाने में लगे रहे।


सम्मिलित परिवार था पैसे की आमदनी हुई तो नई जमीने खरीद ली गयी।


कुछ सालों में ट्यूब वेल भी हो गयी।


एक दिन गुलाब सिंह जी ने राम सिंह जी को कहा कुछ किसान परिवार दारू निकालने का और अमल का धंधा करने लग गए हैं।


काफी कमाई हैं हमारे समाज के एक दो लोग उनके साथ हैं।


राम सिंह ने कहा समाज मजबूत पैसो से नही बनता, जो बहाव के विपरीत जूझता हैं वो समाज अपना चरित्र बनाता है।


इसलिए हमारे पूर्वजों को झुंझार भी कहते हैं।


खाने को कुछ न था ,तब से यहां तक आ गए अब क्यों गंदगी में पैर धरना।


राम सिंह जी अब बूढ़े हो चले थे। उनके पोते शहर की कॉलेज में ही पढ़े ,गांव कभी कबार ही आते थे।


पोतों ने ज़िद कर घर के बाहर पोल ( आर्क) बनवा दी थी।


अब घर मे टी वी , कूलर सब आइटम आ गए थे। एक छोटी कार भी थी।


पर उन्हें न चलानी आती थी। वो अभी भी हर काम खुद ही करते थे।


पोते की शादी के दिन, किसान मुखिया के घर छापा पड़ा, कुछ देसी कट्टे और डोडे, अमल बरामद हुवे उनके पोते को पुलिस ले गई।


शादी के दिन उनका पोता राजाओ की तरह सजा, अपने खूब दोस्तो को बुलाया, कईयो ने ब्रिचीस और जोधपुरी कोट पहन रखा था।


कइयों ने मफलर डाल रखे थे, कपड़ो के बारे में पूछने पर उनका पोता किसी को कह रहा था - "हम रॉयल फैमिली से बिलोंग करते हैं हमारा यही पहनावा हैं"


राम सिंह जी से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा - मेरे पिताजी और दादाजी तो धोती ही पहनते थे, उससे पहले का मुझे पता नही।


अपने ससुराल गए राम सिंह जी को काफी साल हो गए थे। उम्र भी 75 से ऊपर हो गयी थी, किसी शादी में बुलाया तो चले गए, बाकी सब वापस आ गए थे, उनको वहां अच्छा लगा तो कुछ दिन ओर रुक गए।


आते वक्त एक मिठाई और गिफ्ट का कट्टा उनके लिए पैक कर दिया था, बहुत आग्रह के बाद उनको ले जाना पड़ा।


गांव के स्टैंड पे बस ने 3 बजे उतारा। गांव को कोई आदमी ने दिखा तो अकेले ही कट्टा उठा निकल पड़े।


चुटिये (चलने का डंडा) का सहारा ले कुछ दूर चले फिर थक गए।


एक एक पैसे की कीमत का उनको पता था इसलिए जीप भी किराये न की।


रुक रुक कर चलते गए। 2 किलोमीटर पार करने में घंटे से ऊपर लग गया।


घर आये अपनी धर्म पत्नी को सामान सुपुर्द किया।


प्यास से जान निकली जा रही थी पर गरम शरीर का सोच पानी न पिया।


थोड़ा विश्राम कर पानी पिया और लैट गए।


6 बजे उठाने के टाइम नहीं उठे। वो यात्रा पूरी कर चुके थे।


अगले दिन उनके घर के बाहर हज़ारो की भीड़ थी।


उनका पक्का मकान अब पोल के साथ हवेली सा लग रहा था।


नीम के पेड़ पर आज भी तोते हैं।


उनके फैले हुवे परिवार की सब गाड़ियां घर के बाहर जगह न होने से खेतों को भी भर चुकी थी।


एक बाहर से आया आदमी कह रहा था -,भीड़ बहुत आयी ठाकुर साहब के लिए।


दूसरे ने कहा - ये लोग यार ठाकुर हैं पुश्तेनी अमीर, पैसो की कमी नही सब गाड़ियाँ उठा उठा के आ जाते हैं।


ये रॉयलियें हैं इनको किस चीज की कमी।


ठाकुर साहब सुनते तो ठहाके लगा के हंस पड़ते।