गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

तू ही तू

 ( एक बड़ा सा कमरा, जो किसी हाल से भी बड़ा हो.. 10x10 का पलंग लगा हुआ हैं. उसके बाद में भी 70 परसेंट एरिया खाली हैं. बैठने के लिए महंगे से सोफे लगे हैं..टेबल पर कई तरह के फ्रूट्स रखे हैं.. कई तरह के फूल रखे हुवे हैं..जो हर दिन बदल दिए जाते हैं..)


प्रेम : लगता हैं आज भी खिड़कियां लॉक हैं..


प्रीत : आप इतने उतावले क्यों हो. उन्होंने बोला है ना.. वह वक्त आने पर खोल देंगे.


प्रेम: हां ठीक है.. उतावला नहीं ..लेकिन मुझे ऐसा लगता है एक तरफ यहां झील या समंदर हैं.. लहरों का शोर सुनाई देता.. दूसरी तरफ जंगल.. या बहुत सारे पेड़.. पक्षी कितना चहकते हैं ना.. 


प्रीत: हां , मुझे अक्सर एक कोयल की कूक सुनाई देती है..


प्रेम: कोयल! अजीब बात है मुझे चिड़िया के चहकने की.. मोरनी की हूक .... और भी बहुत सारे पक्षी होंगे ..सब की बहुत मधुर आवाजे सुनाई देती हैं.. कोयल की कूक ,मैंने ध्यान नहीं दिया ..आज ध्यान से सुनूंगा.. इसलिए बाहर निकलना चाहता हूं


प्रीत: क्यों! आपको मेरे साथ अच्छा नहीं लगता यहां, फैसेलिटीज भी तो अच्छी है .. ..फ्रेश फ्लावर्स , फ्रेश फ्रूट्स ..हर दिन आ जाते हैं.. एयर कंडीशंड रूम हैं.. और आप हैं..


प्रेम: नहीं ऐसा नहीं है ..मुझे आपके साथ बहुत अच्छा लगता है, लेकिन.. लेकिन फिर भी.. मैं कौन हूं... आप कौन हैं ..हमारे नाम क्या हैं?..आप जानते हैं..


प्रीत: नहीं.. मुझे भी नहीं पता ..लेकिन आपको जब देखा.. मुझे डर नहीं लगा ... आप अजनबी नही लगे ..फिर आपसे बातें शुरू हुई...

अब ठीक ही है.. उन्होंने कहा है ना.. धीरे-धीरे खुद ब खुद पता लग जाएगा। मुझे यह लोग खराब नहीं लगते.. उल्टा अच्छे ही है।


प्रेम: हां अच्छे ही है लेकिन हमे साथ रहते काफी दिन हो गए हैं और हमें बाहर भी नहीं जाने दिया जा रहा ..

प्रीत: यह सब छोड़िए ना ...अच्छा सुनिए ...मुझे कल रात एक ख़्वाब आया.. हम दोनो ˈहज़्‌बन्‍ड्‌ वाइफ थे..


प्रेम: अच्छा!

प्रीत : आपने शायद कोई क्राइम किया था... क्या किया था ,यह पता नहीं... तो हम दोनों अपने दो बच्चों के साथ; एक बग्गी में छुप के कहीं भाग रहे थे ..फिर भागते भागते एक फोर्ट जिसका नाम मेहरानगढ़ था.. उसमे जा छुपे..


प्रेम : किसी किले में क्यो?


प्रीत : क्योंकि वहां पर बड़ा सा मेला लगा था और भीड़ ज्यादा थी.. जिससे हम लोग वहां पर छुप सकते थे... सुरक्षित रह सकते थे.. वहां पर पूजा और हो रही थी...


प्रेम: फिर क्या हुआ..


प्रीत : वहां पर भी राजा के सैनिक हमे ढूंढ रहे थे ..मैंने बच्चों को सुरक्षित जगह पर छुपा दिया था... हम फोर्ट में ही छुपने वाले थे ..आपको प्यास लगी ... मैं पानी लेने बाहर गई.. कुछ सैनिकों की नजर मुझ पर पड़ी.. मेरी वजह से आप और बच्चे ना पकड़े जाएं तो मैं वहां से भाग गई..


प्रीत-- : लेकिन फिर आपका और बच्चों का सोच... मैं फिर किले की तरफ आई ...उस समय रात के 8:00 रहे थे .. यह फोर्ट के दरवाजे बंद होने का समय था..


प्रेम : फिर!


प्रीत : आप वहां नहीं थे जहां मैंने आपको छुपाया था.. मैंने आपको आवाज दी ..आपने मेरी आवाज सुनी भी थी.. लेकिन आप मुझे छोड़कर घाटी से नीचे उतर गए और सागरिया फाटक वाले दरवाजे से..भागते हुवे बहुत दूर चले गए ..


प्रेम : अरे! लेकिन हमारे बच्चे ...


प्रीत-- : उनको मैंने छुपा तो दिया था ..लेकिन उसके बाद वो सपने में नहीं थे ..

प्रेम-- : बड़ा कहानी टाइप का सपना हैं जी आपका..

प्रीत-- : हां, हैं तो.. 


प्रेम: सुनके मन बहुत खुश हुआ ..

प्रीत : अच्छा ( हंसती हैं).. सपना ही हैं.. कोई खास बात नही..

प्रेम: : हम्मम.. ठीक है ..कोई बात नहीं ...कम से कम मुझे खुश तो हो लेने दो


प्रीत : हां होइए खुश.. बिल्कुल होइए..

प्रेम-- : मेरे साथ एक चीज़ होती हैं

प्रीत-- : क्या?


प्रेम: : अक्सर मुझे तुम्हारी आंखे दिख जाती हैं, सोते वक्त .. सपनो में.. काफी बार जागते हुवे भी.. तुम्हारा चेहरा नज़र के सामने रहता हैं.. , without any reason


प्रीत-- : मैं तो कहूंगी बहुत सुंदर बात है ये..


प्रेम: : हां... बिल्कुल..


प्रीत : आप मुझे इतने बड़े किले में अकेला छोड़ कर चले गए.. मुझे अच्छा नहीं लगा.


प्रेम: : ये कैसे हुआ..समझ नही आया..


प्रेम: : आदमी बीवी को तो फिर भी छोड़ दे.. बच्चो को छोड़ के कैसे भाग गया..ऐसा क्या अपराध किया होगा.... या हो सकता हैं, मेरे साथ न होने से तुम और बच्चो को कम खतरा हो, इसलिए मैं चला गया ...लेकिन जो भी हो.... मैं वापस आऊंगा..


प्रीत-- : हाय रे दैया ! मतलब बीवी को छोड़कर जाने का कोई गम नहीं.

..

प्रेम: -- : गम तो होता ही हैं, आदमी कहे भले ना, लेकिन अपनी बीवी बच्चों को ,परिवार को सुरक्षित देखना चाहता हैं..


प्रीत-- : हां ,यह सही बात है..


प्रेम: : कोई वजह होगी, पता करूंगा.. मैं तुम्हे छोड़ के क्यों गया?


प्रीत-- : अरे कोई बात नहीं सपना ही तो था..


( Next Day).


प्रेम : मेरे साथ कल एक अजीब सी बात हुई..


प्रीत : जैसे कि..


प्रेम : जैसे की , मैने भी सपना देखा, फिर तुम्हारे सपने में चला गया... जहां से तुम छोड़ के गई... बाद में मेरे साथ क्या हुआ, जानती हो! ... सारी घटनाएं बैकफ्लैश में देखी.. तब कुछ कुछ पता लगा.. कुछ कुछ धुंधला था..


प्रीत-- : अरे ऐसा थोड़ी होता हैं...


प्रेम: : मेरे साथ क्या हुआ .. सुन तो लीजिए


प्रीत-- : अच्छा ठीक है आप बताइए..


प्रेम: : मुझे ठीक-ठीक याद नहीं की... मैंने तुम्हे पहली बार किधर देखा था..हम कैसे मिले..हमारी शादी कैसे हुई.. जहां तक मुझे सपना याद आता हैं...तुम पे राजा का बेटा मरता था... और इस वजह से मैंने उसे   कुश्ती में पटक पटक के मारा था...उसके बाद ही तुमने मुझे देखना शुरू किया.. नही तो हजारों नज़रे तुम्हारी तरफ थी... उसमे से मेरी छोटी आंखों पर तुम्हारी नज़र क्यूं रुक जाती..


प्रीत-- : हाए...बोलते रहो ..


( प्रेम जैसे होश में नहीं.. वो बोले जा रहा हैं)..


प्रेम: : याद हैं तुम्हे ..जब सखियों के साथ तुर्जि के झालरे पर पानी भरने आती थी... वहां पे पुरुषों का आना मना था.. लेकिन उधर जो पेड़ हैं ना... जहां कोयल बोलती थी और तुम उस तरफ देखती थी.. वहां में छुपा रहता था.. याद हैं तुम्हे कभी कभी कोयल ज़्यादा भी बोलती थी..


( जैसे प्रीत भी होश खो चुकी थी...सुने जा रही थी...)


प्रेम: : मैं अक्सर शहर की उन गलियों से गुजरता था.. जिन पर तुम चली हो... तुम्हारे साथ चलने का ऐहसास होता था..

 तुम्हे मेला याद हैं..जयपुर से व्योपारी आते थे.. तुम्हे चूड़ियां, झुमके और पायल पसंद थी.. मैं भी वही सब खरीद लेता था.. सोचता था.. कभी तुम्हे..

लेकिन तुम एक नज़र भर के देखती थी.. इठलाते हुवे चली जाती थी..मुझे देख कर इतनी हसती क्यों थी?


प्रीत-- : क्योकी तुम मुझे नज़रे चूरा कर देखते थे ... और जब तुम पकड़े जाते थे ....तो भाग जाते थे

 फिर तुमने पहली बार मुझे शादी की रात, मुँह दिखाई मे.... ये सब दिया था..


प्रेम: : ऐसा नहीं है की मैं मेले में तुम्हारा हाथ नही थाम सकता था.. मैं इन लोगो से नही डरता था..डरता था तो तुम्हारी नाराज़गी से, अपना बनाने वाली तुम्हारी आंखों से और मेरे दादाजी से भी.. वो भी तो साथ आते थे ना..


प्रीत-- : मारे शर्म के तुम्हारी आँखे झुक जाती थी..


प्रेम: : हां, और तुमने कहा था..मुझे कबसे जानते हो.. मैने कहा था... पता नही..शायद जब से चांद बना हैं..


प्रीत-- : और दादाजी को भी खूब पता था की तुम उस मेले में उनके साथ क्यूँ आते थे ..तब ही वे मुझे गुस्से की नज़रो से देखते थे..

 और उस रात तुमने पहली बार मेरी आँखो मे देखा था..


प्रेम: : हां ,तब सब कुछ रुक सा गया था, या सब कुछ खो सा गया था... समय.. मैं .. बस बची थी तो सिर्फ तुम.

 मैं तुम था या तुम मैं.. उस रात कोई नही कह सकता था.. या दो थे ही नहीं..क्या योग इसी को कहते हैं..

 दादाजी शहर में फैली वो बात सुन चुके थे .. राजकुमार की नज़र तुम पर हैं और नज़र कितनी बुरी बला हैं वो जानते थे.. ऐसा नहीं की वो तुमसे गुस्सा थे.. वो हम दोनो के खिंचाव को जानते थे.. और दोनो के लिए वो डरते थे..


प्रीत-- : हा, तभी जब हमारी शादी के खिलाफ पूरा परिवार था.. तब दादाजी ही हमारे साथ थे..


प्रेम : हां..

उस रात से दो बच्चो तक का सफ़र.. वो समय क्या था... जैसे बारह महीनो सावन, जैसे मौसम में मिसरी घुली थी...


प्रीत-- : और जैसे चाँद मुस्कुरा रहा हो..


प्रेम: : तुम्हारी चूड़ियों की खनक से चांद शरमा जाता था..तुम्हारी पायल की छमक से सूरज ताल मिला के चलता था.. जैसे शिव ने सालो बाद समाधी तोड़ी हो और पार्वती का आलिंगन किया हो..


प्रेम: : जैसे फूल हवाओं में तैर रहे हो और तितलियां सुंदर धुन में नाच गा रही हो..

संयासियों ने केशरी चोला त्याग कर फूलों का शृंगार कर लिया हो..


प्रेम: : बस तुम थी..तुम्हारे बालों की महक, बदन की नरमायी.. सुबह तुम्हारे टूटे बदन की वो अंगड़ाई..


प्रीत-- : मेरी वो चूड़िया, पायल, वो बिन्दी सब तुम्हारे लिए ही तो था। मेरे लिए तो शिव भी तुम और चाँद भी तुम। मेरा जन्म ही तुमसे प्रेम करने के लिए हुआ था।


प्रेम: लेकिन मुझे आज भी याद नहीं की उस दिन क्या हुआ.. जब तुम मेरे लिए ज़माने से लड़ रही थी.. हम दोनो भाग रहे थे... तुम वापस आने का कह कर गई.. और फिर मैं अकेले ही भाग रहा था..

हां, याद आया..धूनी बाबा ने मुझसे कहा था की तुम दोनो.. आज के नही..अभी नही मिले.. हमेशा से साथ हो..जीवन को ही सत्य, प्रेम बनाने में लगे हो..लेकिन सफ़र आसान न होगा..


प्रीत-- : काश आज धूनी बाबा होते... हमने कितनी बार उनकी तपती धूनी के पास.. चांद को निहारते हुवे...सर्दियों की वो ठंडी राते गुजारी थी..


प्रेम: : धूनी बाबा ने कहा था, तुम्हारी लड़ाई तो खुद प्रकृति और परमात्मा से हैं... बूंद सागर में मिल ,सागर हो जाती हैं.. तुम दो बूंदे मिल, सागर हो जाना चाहती हो...


 मैने उनसे पूछा भी ,की हुवे या नहीं हम भी सागर? और वो मुस्कुरा उठे... बोले तुम्हारा प्रेम ही तुम्हारा कवच है.. वो तुम दोनो को क्षमता देगा, रक्षा करेगा.. फिर तुम्हे मैने अकेले क्यों छोड़ दिया?


प्रीत : पता नही...


प्रेम: : याद हैं तुम्हे ,मैं जयपुर गया था..तुम्हारे लिए सितारे और काँच लगा लहंगा लाया था.. जब तुम उसे पहन के घूमर करती थी...

हम दो थे तो जीवन था.. हमारे होने का मतलब था...अकेले तो मैं नहीं.. तुम नही..कुछ भी नही..


प्रीत-- : और उन काँच की खास बात पता है क्या थी?


प्रेम: : क्या?


प्रीत-- : की घूमर करते वक़्त उन काँच में तुम ही तुम दिखाई देते थे..


प्रेम: : हां, उस दिन तुम राधा बनके नाची थी... पसीने से तर बतर..पर तुम मोहिनी सी.. नाचे ही जा रही थी.. और सब लोगो के सामने .. मुझे कैसे बाहों में भर लिया... मैं घबरा गया था.. शायद सब देख रहे होंगे..पर पता नही..तुम्हारी आंखों से नज़र ही नहीं हटी.. उस दिन तुमने मुझे आगे बढ़कर..अपने गुलाब.. मेरे होटों पर... बाक़ी सबने भी कांटो का काम किया.. घर जैसे वृंदावन का बाग बन गया था..


प्रीत-- : मुझे भान नही था लोगो का.. मै तो अपने ..कान्हा के लिए .. कान्हा से रास ... बस..


प्रेम: : दादाजी अक्सर कहते थे..दुकान चलो..सोता ही रहेगा क्या?... हां, अक्सर मैं सो जाता था.. खो जाता था.. तुम्हारी बाहों में... तुम्हारी बाते सुनते हुवे, जिंदगी जैसे portrait mode पे चल रही थी...सब कुछ धुंधला हो जाता था..दुकान भी, दादाजी की आवाज भी.. शहर भी.. बस तुम थी..बस तुम ..


( अचानक प्रेम कहते कहते रुकता हैं, ज़मीन पर घिर पड़ता हैं)

( प्रीत पानी के छींटे मारती हैं.. प्रेम को पानी पिलाती है )


प्रेम : प्रीत..


प्रीत : हां ,प्रेम..


प्रेम: मैं तुम्हें छोड़ के नही भागा था प्रीत.. राजा का बेटा उसी दिन राजा बना था...वो मेले में सब को.. निर्दोषों को भी मार देते.. मुझे सामने आना पड़ा...

बच्चे अपनी आंखों के सामने मुझे.. मरते न देख ले.. इसलिए मैं वहा से..


प्रीत-- : हां... हां...हां.. ( रोती हैं)


और मैं ये जुदाई बर्दाश्त ना कर सकी और चली आई तुम्हारे पास...

हमारे बच्चो को दादाजी के पास छोड़ कर..


प्रेम: : रोओ मत प्रीत.. लेकिन फिर भी देखो ..हम मरे नही..हमारे प्रेम ज़िंदा हैं.. हमारे बच्चे..हमारे एक होने का सुख..


प्रीत-- : तुम इतना प्रेम क्यूँ करते हो ,प्रेम..


प्रेम: : क्योंकि तुम प्रेम थी... बस प्रेम..


प्रेम: : अब तो समझ भी नही आता प्रीत, की मैं था, तुम थी या बस प्रेम था..


प्रीत-- : तुम और मै ही तो प्रेम है..


प्रेम: लेकिन हम अभी है कहां ..


प्रीत: मुझे कल जब  सपना आया , तभी इन लोगो  ने बताया कि ..हम वहां हैं जहां प्रेमी होने चाहिए... एक साथ में...ये लोग इसे Heaven, जन्नत या स्वर्ग भी कहते हैं..

मैं इंतजार कर रही थी ..बस तुम्हे सब याद आ जाए.. तुम लौट आओ मेरे पास..  

क्या अब भी तुम इन खिड़कियों को खोलना चाहोगे?

इनके पार वैभव हैं, अपार सुख हैं..


प्रेम: नही.. हम चले वापस अपनी धरा पर.. फिर से प्रेम करने के लिए.. बार बार प्रेम करने के लिए..


( दोनो विलीन होने लगते हैं....)

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

एक लड़की

 एक लड़की लड़की होने से डरती हैं।

 उससे हमेशा मीठी और चिकनी चुपड़ी बातें होती है। 

जहाँ वह दोस्त तलाशती है, दोस्त के भेष में प्रेमी हाजिर हो जाते है।

 उसे सरल रिश्ते चाहिए लेकिन लोग उसके लिए जान देने के लिए आमादा है ।

 वह सामान्य बात करना चाहती है लेकिन लोग उससे स्त्री रहस्य, प्रेम और धर्म की बातें करते हैं। 

जो भी उससे मिलता है ,कोई न कोई रूप ओढ़कर मिलता है ।

 अब वह सब से उकता गई है ।

अब वह लड़की, लड़की होने से डरती है।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

जवां चियां

हमें शिकायत हैं , जवां चियां की स्वछंद उड़ान से ..

जो पंख फैला के जीती हैं और हर पेड़ उसका बसेरा हैं..

सारा आसमां जैसे उसका हैं...

हमें आदत हैं, अपने आसमां की, जो बस एक कमरे में समा जाएं..

हमने तो अपने पेड़ भी बांट रखे हैं.....

हम परेशां हैं कि, वो जीवनरस का यूं पान कर लेती हैं, शफ़्फ़ाफ़ आसमानों में, उजालों में..

हम भी चोरी छिपे चख लेते हैं दो घूंट ,अंधेरे में..

फिर अपने पंखों में सिर डाले, आसमां को देखते भी नही..

हम भी आसमां की बाते करते हैं...लेकिन रहते तो हैं, छुपे अपने घोंसलों की छतों के नीचे, अपने पंखों में ही जकड़े हुए...

हमारी सारी जमात एक साथ हैं, एक दूसरे का ख़्याल रखते हुवे, निर्जीव पंखों के साथ..

हम कैसे इजाज़त दे दे , जवां चियां को, सजीव पंखों को फैलाए... आसमां से निर्भय हो करते आलिंगन को....

हम बांध देना चाहते हैं उसके पंखों को,कुछ मज़बूत शब्दो की... परंपराओं की बेड़ियों से..

वो नही जानती,वो खो सकती हैं,व्यापक आसमां की थाह लेते हुवे..

हम भी एक दिन खो जाएंगे ,लेकिन अपने पहचान के घोंसलों में, कुछ सगे संबंधियों के साथ, जो हमारी ही तरह जीते हैं... सुरक्षित...

आसमांके डर में....

आसमां की चाह में....

मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..

 मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..


तुम आते हो मेरे पास..


जब धूप ज़्यादा होती हैं


कुछ पल ठहरते हो,


फिर उड़ जाते हो , भंवरो की तरह


नए फूलों से नया रस पीने....




मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..


मुझे प्रेम मिलता हैं


जब तुम आलिंगन करते हो


अपने पांवों से चढ़ते उतरते हो


थोड़ा जीवन दे मुझे तुम, घर को निकलते हो


फिर रात अकेली होती है और मैं अकेला होता हूं..




मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..


जब तुम भरे हुवे होते हो


कभी प्यार बाटने आते हो तो कभी दुख


मेरे ही सीने को चीर के एक दिल बना जाते हो..


जब आंसू तुम्हारी आंखों से गिरते है ...


साथ तुम्हारे मेरे भी कुछ हिस्से टूट के गिरते हैं..




मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..


सालो के मेरे जीवन में तुम कई रूपों में आए


मुझे जीवन किस्तो में, तुम सब से मिला


फिर वक्त के थपेड़े ने मुझे ठूंठ कर दिया..


फूल, पत्ते और छांव जब मुझमें न रही


मुझसे बेहतर और भी थे..


तुमने नई छांव तलाश ली..




मैं पेड़ हूं , मैं स्तब्ध हूं..


मुझे प्रकृति ने बाहें न बक्शी


की जब चाहूं तुम्हे आगोश में भर लू


मैं जीवन की , खुशबू की, तुम्हारी मांग नही कर सकता


मेरा अस्तित्व ख़ुद लूटने और लुटाने का हैं..


मैं तुमसे कैसे कहूं की मैं तुमसे कितनी मोहब्बत करता हूं


मैं पेड़ हूं , मैं निशब्द हूं..

सखी री मोहे, पीयू तड़पावे


सखी री मोहे, पीयू तड़पावे

निर्मोही को ,याद न आवे

सखी री मोहे ,पीयू तड़पावे


चंदा च दिखत रे ,मेरो मनभावन

बीते ,सूखा, थारे बिन, ये सावन

मुई रैना ,मन में ,आग ,लगावे

सखी री मोहे, पीयू तड़पावे


हिये च बसे हैं, प्रीतम प्यारो

जपे स्वाशा क्षण क्षण, नाम तिहारो

बिरह, अब मोहे ,मार मुकावे

सखी री मोहे ,पीयू तड़पावे


न अब देर करो, बालम , बलिहारी

रोये रे ,रोये , दासी ,तिहारी

घड़ियां कैसी ,ये बीती जावे

सखी री मोहे, पीयू तड़पावे




 



बुधवार, 7 अप्रैल 2021

मनु तुम प्रकृति हो

मनु तुम प्रकृति हो
मनु तुम लहर भी हो
किसी गज़ल की बहर भी हो
तुम नई नवेली सहर भी हो
तुम हो बहती हवा
तुम हो रुत जवां
तुम हो बारिश, तुम गर्मी भी हो
तुम में हैं शोला, तुम नर्मी भी हो
मनु तुम प्रकृति हो..

मनु, तुम प्रकृति हो...
मैने तितलियों को साथ तुम्हारे झूमते देखा हैं..
थी जब तुम शहर की गलियों में मेरे साथ
रास्ते रोशन जुगनुओं को करते देखा हैं
मनु,  एक ताज मैने तुम्हारे सिर पे देखा हैं
लोगो को  उम्मीद तुमसे  भरते देखा हैं

मनु, तुम प्रकृति हो..
जब तुम पास बैठती हो, मैं पूरा हो जाता हूं.
मैने,  पास मेरे जीवन को ठहरते देखा हैं

मनु ,तुम प्रकृति हो
तुम्हारी थाह लेते लेते, मैने खुद को खोते देखा हैं
बहुत दूर भागते हुवे,खुद को तुम्हारा होते देखा हैं
जब तुम चहकती हो, चिड़ियां भी गुनगुनाती हैं
जब तुम हंसती हो, फूलों को मैने खिलते देखा हैं..

मनु ,तुम प्रकृति हो
बहुत फैली हैं शाखाएं तुम्हारी
तुम इधर भी हो, उधर भी हो
मैने, खुद को तुममे सिमटते देखा हैं..

मनु ,तुम प्रकृति हो
तुम धूप हो, तुम छांव हो
हरियाली में सिमटा एक गांव हो
तुम रात को सुंदर बनाता चांद हो
कितने ही भावो को आसरा देता बांध हो
तुम प्रेम का गीत, हृदय का नांद हो
मैने, संगीत को मौसम में घुलते देखा हैं

मनु ,तुम प्रकृति हो
मेरे बचपन का प्यार हो
छलकता आंखो का इज़हार हो
मेरे पास की सीट पे बैठी सुंदर नार हो
हां मनु,तुम जीवन की बहार हो
मैने , कितनो को तुममें, जीवन खोजते देखा हैं

मनु, तुम जीवन संगिनी हो
तुम मेरी नंदिनी हो
तुमने जीवन का निर्माण किया
ऐसा कुछ भी नही जो मेने बखान किया
जो तुम हो वो कहता हूं
बस तुम्हारे प्रेम में बहता हूं
मैने समक्ष तुम्हारे ,खुद को मरते देखा है
मनु  , मैने खुद को भी मनु बनते देखा हैं
मनु ,तुम प्रकृति हो

प्रेम नगर



ये कहानी प्रेम नगर की हैं.

क्या ऐसा कोई शहर होता है , सिटी ऑफ लव ?

हां शायद आपकी ज़िन्दगी में भी होगा ।

आंख बंद कीजिए और याद कीजिए अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन पल, आराम के लम्हें, वो प्यार के पल,

कुछ याद आया ...

आपका बचपन, आपकी स्कूल, आपका कॉलेज, पहला सच्चा प्यार, या अपना ससुराल या फिर ननिहाल.

क्या वो वक़्त याद आया जब आप सच में जिये थे?

जब जिंदगी का मज़ा आया था, जिसकी मिठास जब भी याद आती हैं तो ,वापस आपको अपने साथ वहीं ले जाती हैं. और आप एक सुकून से , उस प्रेम से भर जाते हो, उसी में खो जाते हो.. अह....

उन प्रेम भरे लम्हों को याद करके क्या वो शहर आपको याद नहीं आता, जिसकी गलियों से आपको मोहब्बत हो गई थी.

उस शहर के लोग आपके दिल में बसे हैं.

उस शहर के पार्क, खेलने का ग्राउंड, वहां के घर, दुकान, मंदिर सबकी यादें आप में उतनी ही ताजा हैं, जितनी उसकी याद जिसे आप अपना प्यार कहते हैं , या फर्क भी करना मुश्किल है.

हां फर्क करना मुश्किल है, क्यूंकि जब आप प्यार में होते हो ,तो सब को अपना लेते हो, उस शहर की गलियां भी जो निर्जीव हैं, वहां का पीपल का पेड़ भी और शेरू को भी,

शेरू कौन?

उस मोहल्ले का आवारा कुत्ता था, पर हमारा दोस्त, हमारी जिंदगी के प्यार भरे पलो में वो हमारे साथ था.

इस कहानी में , मै आपको साल के सिर्फ दो महीने की कहानी ही बताऊंगा, क्यूंकि उस समय हम ननिहाल आते थे और फिर अगले साल ही आ पाते थे.

2महीने की ही कहानी क्यूं?

क्यूंकि मै साल भर में बस दो ही महीने जीता था. बाकी समय तो बस गुजर जाता था.

मैं 1984 में जन्मा था, मेरा नाम जसू हैं.सब प्यार से यही कहते हैं, पूरा नाम जान के क्या करोगे, उसमे मिठास नहीं, उसमे मै भी नहीं.

सो ये 90 के दशक की कहानी है, जब में 6-7 साल का हो गया था और अपने दोस्तो को जानने लग गया था.

गर्मियों की छुट्टियों का हम साल भर इंतज़ार करते थे और परिक्षा खत्म होते ही मम्मी पापा से ननिहाल जाने की जिद किया करते थे।

पापा कभी ट्रेन में कभी बस में हमें वहां छोड़ आया करते थे.

इस शहर का नाम चितौड़ हैं, आप इसे चितौड़गढ़ के नाम से जानते हैं.

हां सिरमौर , हमारा मान चित्तौड़, पावन पवित्र भूमि, प्रताप का ओर चेतक का चितौड़, मीरा का चितौड़...

में अपने गांव में तो डरपोक बच्चे की तरह जाता था ,पर क्या था चित्तौड़ में, की, इस शहर की तरफ जाते समय मेरे मन से डर निकल जाता था.

प्यार का ये भी एहसास होता है ,जब आप प्यार में होते हो तो निर्भय होते हो.

बस से हमारा रूट जोधपुर से ब्यावर, फिर ब्यावर की घाटी से विजयनगर और फिर भीलवाड़ा से चितौड़।

ब्यावर की घाटी उस समय काफी खतरनाक मानी जाती थी, लूटपाट के भी किस्से आम थे ।

ब्यावर आते ही मेरा मन प्यार से भरने लगता था।

क्युकी वो चट्टान का कच्चे पत्थर, रोड़ के साइड के कैक्टस ओर एलोवेरा जोधपुर शहर से अलग थे और चितौड़ का फील देते थे. और में खुश हो जाता था.

सुबह के 6 बजे हैं, अप्रैल एंड हैं, साल 1991, चितौड़ का बस स्टैंड

सुबह की हल्की ठंडी भी लग रही, और कुमार सानू के गाने टैक्सियों में चल रहे है.

बस एक सनम चाहिए, आशिक़ी के लिए...........

पान की दुकानें खुली हुई है उसमे भी कुमार सानू के गाने

वो समय थोडा ठहरा हुआ था, लोग जल्दी में नहीं थे, सबके चेहरे पर मुस्कराहट थी, लोग मनमौजी थे, कोई कुमार के गानों में खोया था तो कोई

बातों में मगन

सब लोगो को देख कर ऐसा लगता था जैसे हवा में आशिक़ी घुली हैं

पापा ने टैक्सी के भाव तय किए ओर टैक्सी की, में अपने मम्मी पापा, बड़े भाई मुलू जो की मुझसे 3 साल बड़े हैं ओर छोटे भाई जीतू जो कि 3 साल छोटा है सब साथ थे.

इस टैक्सी में पीछे भी सीट्स थी, बैठ सकते थे, टैक्सी की आवाज़ सुबह की शांति में मधुर रस की तरह कानों में घुल रही थी.

हम साल भर चितौड़ की टैक्सी की इस आवाज़ का इंतजार करते थे.

बस स्टैंड से टैक्सी कलेक्ट्रेट सर्किल से होते हुवे, शास्त्री नगर की तरफ मुड़ी।

शास्त्री नगर, जी हां यही है हमारा प्रेम नगर.... अह....

कलेक्ट्रेट से बाई तरफ मुड़ते ही प्रेम नगर की सड़क आ जाती हैं, घूमते ही छोटी सब्जी मंडी हैं.

अभी तो सारे बक्शो पर ताले जड़े हैं, कहा था ना समय ठहरा हुआ था, लोग आराम से आते थे, सभी मुस्कुराते थे और कॉम्पटीशन की बीमारी नहीं थी.

लोग ऐसे थे कि घर चलाने जितना पैसा आये, ओर फिर सब ऐश करते थे, रात भर ताश का खेल चलता रहता था.

सब्जीमंडी के थोडा आगे ही उसके सामने वॉटर बॉक्स का ऑफिस था, वहां हमारे बीच वाले मामाजी(मनोज मामा) काम करते थे, उनका बिल डिस्ट्रीब्यूशन का काम था। पूरा चितौड़ इनको हीरो मामा के नाम से जानता है.

उस जमाने में भी रेड शर्ट, 3,4 तरह के बेल्ट, 3,4 तरह के कंघे और हमेशा टिप टॉप कपड़े प्रेस किए हुवे पहनते थे, आज भी उनका यही स्वभाव हैं.

वो हीरो बनना चाहते थे, नीलू जो कि राजस्थान फिल्म इंडस्ट्री की फेमस अदाकारा थी, उनके साथ एक दो स्टेज शो किए, फिर बात नहीं बनी, पर आज भी शोख ओर तेवर वहीं हैं।

मामाजी काफी हसमुख स्वभाव के है ओर मामिसा भी , सो इनके साथ बनती भी ज्यादा थी, दिन भर इन्हीं के कमरे में रेसलिंग (WWF) देखा करते थे.

रॉक हम सब का फेवरेट था ओर अंडर टेकर भी.

थोडा सा आगे चलते ही, राइट साइड मुड़ते ही, आइसक्रीम वाले बंसिलालजी, उनका घर ही उनकी दुकान था, घर में ही आइसक्रीम बनाते थे और किराना वाले सेठजी जी की दुकान थी,उनके पास वाली दुकान हमारे नाना की थी.

कॉर्नर वाली भी एक दुकान थी, उसपे वाडीलाल लिखा था, वाडीलाल आइसक्रीम के टीवी में एड भी आते थे, सो उस दुकान पर कभी गए ही नहीं, लगता था, काफी महंगी आती होगी.

नाना का नाम भगीरथ सिंह जी था, नाना चक्की चलाते थे, इस चक्की से उन्होंने खूब कमाया, अपने दो बेटियों की व तीन बेटों की शादियां की, प्रेम नगर में मकान बनाया।

नाना बहुत खुश मिजाज इंसान थे, बच्चो के साथ बहुत मस्ती करते थे.

नाना को सारा मोहल्ला ठाकर साहब कहता था, एक तो पूरा मोहल्ला बनियो ओर ब्राह्मणों का था बस एक एक घर ही अन्य जातियों के थे, ओर नाना हस्टपुष्ठ थे और बात के पक्के थे.

दूसरा उस समय चितौड़ में कच्छा बनियान चोर गिरोह का आतंक था, और नाना एक दो बार उनसे लड़ भी लिए थे.

नाना की चक्की के सामने ,रोड के दूसरी तरफ लॉन्ड्री की, स्त्री करने की दुकान थी.

नाना से मस्ती करते समय नाना हमें पैरों तले दबा दिया करते थे ओर हम सब भाई जान लगा कर भी हटा नहीं पाते थे. हम बच्चे फिर बात करते थे कि नाना बहुत ताकतवर हैं.

नाना को जीवन जीना आता था, घर की हर जरूरी चीज में वो कंजूसी नहीं करते थे, कम पैसों में भी उनकी लाइफस्टाइल बहुत अच्छी थी.

घर में 2,3 कूलर, टीवी, लैंडलाइन फोन सब आवश्यक सामग्री थी.

नाना के कमरे में हम जमीन पे बस तकिया लगा के सो जाते थे, फर्श बहुत ठंडा ठंडा लगता था.

सेठजी की दुकान से नाना टोफी जरूर दिलाते थे, सेठजी की स्माइल अभी भी हमारे मन में छपी हैं, वो क्या जो अब सेठजी नहीं रहे ओर 2 साल पहले ही नाना भी चल बसे ओर 11 महिने बाद मां (नानी) भी.

ऐसा लगा जेसे एक युग अपनी जिंदगी जी के चला गया.

नाना की दुकान से सटे ही मंदिर की दीवार हैं, ये कृष्ण जी का मंदिर है.

फिर बाएं लेते हैं ही बड़े बड़े बंगले हैं, यहां के लोगों के पास काफी पैसा हैं, एक बंगले में शिव की मूर्ति से गंगा बहती थी, उसको देखना बड़ा अच्छा लगता था, सोचते थे ये पानी कहां से आता है.

घर काफी बड़े बड़े ओर खुले खुले थे.

कॉर्नर पे ही एक दुकान है ये कम ही खुलती हैं, इसके दरवाजे लकड़ी के है, ओर दरवाजे भी काफी बड़े हैं. ये भी किराना स्टोर हैं.

मुझे याद है, चोबेजी के लड़की गुड्डी दीदी ने एक बार यहां से शैम्पू मंगवाया था.

इससे राइट होते हुवे फिर फर्स लेफ़्ट लेना हैं।

लेफ़्ट लेते ही दूसरा घर हैं राइट साइड में, जिसके पहली मंजिल पर एक कमरा ओर खिड़की है , यहां एक दर्जी अंकल बेठ ते थे, नाना हम सब के यही से कपड़े सिलवाते थे.

उनकी स्माइल भी बड़ी प्यारी थी, ऐसा लगता था सब हमसे मिलके बड़ा खुश होते थे.

फिर राइट लेना था, पर इसी मोड़ पर फ्रंट मकान, यानी पूरी गली से जो मकान दिखता ,. ये संतोष जी डॉक्टर साहब का मकान हैं.

ये हमेशा व्यवहार से भी डॉक्टर ही लगते थे ओर अब भी लगते हैं.

इनके घर के बाहर पट्टी थी कुते से सावधान.

इनके घर भी हम अक्सर जाते थे.

फिर इसी गली में सेकंड लास्ट, लेफ्ट साइड में हमारा घर आने वाला था, हमारी धड़कने बड़ जाती थी.

बीच में राघव का मकान जो हमारे सबसे छोटे वाले मामा( विक्रम मामा) का दोस्त था, अक्सर हमारे घर ताश खेलता था.

विक्रम मामा हमसे 11-12 साल ही बड़े थे ओर उस समय कॉलेज में पड़ते थे, उनकी शादी भी नहीं हुई थी, वो भी हमारे साथ अक्सर खेलते थे, जेसे सतोलिया ओर मार दड़ी.

फिर बिजेलालजी जी का घर था, जो दूध बेचा करते थे, उनसे थोडा आगे सामने की तरफ किराने वाले सेठ जी का फिर एक घर छोड़ के हमारा, हमारे से दीवार लगते ही पड़ोसी थे, चोबे पापा, चॉबेजी का घर था.

हमारे घर के सामने ही ' सिमा' का घर था, जिसकी भी यह कहानी हैं, उसके साथ वाले घर में धीरज ओर गरिमा दीदी रहते थे.

उनके छत पर कैरम बोर्ड रखा रहता था.

सीमा के घर के पास के 2 प्लॉट खाली थे, फिर लास्ट मकान मेरे जिगरी दिनेश ओर अनिल का था, ये मीणा थे कोटा के ,इनके पिताजी यहां काम करते थे सो किराए का मकान लेके रहते थे, ये भी विक्रम मामा के अच्छे दोस्त थे.

कलेक्ट्रेट से प्रेम नगर की तरफ मुड़ने के बाद 1.25 किलोमीटर का रास्ता है ये बस, पर सारी जिंदगी, प्यार ,इश्क़ सब इसमें समाया है.

टैक्सी घर आती हैं। वैसे ये घर अब बहुत छोटा लगता है पर बचपन में बहुत बड़ा लगता था, पूरा स्टील चद्दर का बड़ा सा गेट हैं. मम्मी घंटी बजाती हैं.

मेरे मासोसा चंदेरिया में रहते हैं, उनका ट्रांसपोर्ट का बिजनेस हैं, वो चितौड़ से सिर्फ 5km है, सिंटू ओर नीटू , मसोसा के लड़के भी हमारे आने से पहले यहां आ जाते थे, सिंटू अक्सर यही रहता था, 🐒 कैप पहना रहता था, उसे अस्थमा की प्रॉबलम थी, ओर सुबह सुबह हल्की सर्दी रहती थी. ये मेरे ही उम्र का था और हम बहुत जोड़ीदार रहे, बहुत सारी मस्ती में।

सबसे बड़े मामा कलेक्ट्रेट में ही काम करते हैं. वो बड़े सज्जन पुरुष हैं, उनका रहन सहन , तरीका एक सोबर सरकारी आदमी सा था, बड़े वाले मामीसा से हम सब बच्चों को डर लगता था उनकी बड़ी बड़ी आंखो से हम डरते थे, वो गुस्सैल स्वभाव के लगते थे, उनके कमरों में जाने की हिम्मत ना होती थी. मम्मी जब होते थे तभी जा पाते थे.

डर का ये आलम था कि वो नाश्ता भी कराते थे तो निवाले बड़ी मुश्किल से उतरते थे, मन करता था, जल्दी जल्दी खा कर नीचे चले जाएं.

बड़े वाले मामा के दो बच्चे - निक्की ओर अन्नू , बीच वाले के तो 1991 में बच्चे नहीं थे, बाद में विनय,विनीता व बॉबी हुवे, छोटे वाले मामा की उस वक़्त शादी नहीं हुई थी.

सो हम तीन, सिंटू,नीटू, अन्नू निक्की, यही हमारी दुनिया थी.

मम्मी ने फिर घंटी बजाई....

नानी को पता ही था हम आने वाले हैं, वो खुशी से चिल्लाती हुई आती हैं

अरे ये कोन आया र, कौन आया र, उनकी आवाज़ सुन के हमारी खुशी का ठिकाना ना रहता

नानी - सिंटू देख, कमला( मेरी मां) आगी, मूलू होर आग्या.

मेरी मां सबसे बड़ी बेटी थी, उनके ३ भाई ओर एक छोटी बहन हैं।

मम्मी को सब जीजी कहते हैं.

इस कहानी में बहुत सारे पात्र हैं ओर सब की अपनी अपनी कहानी हैं, पर कहानी बहुत दिशाओं में ना चली जाएं सो इसको ' सिमा' ओर मुझ तक ही रखूंगा ओर कुछ जरूरी पात्रों को.

नानी गेट खोलती हैं, हम सब पैर छूते हैं, राजू मामा ( सबसे बड़े वाले मामा)

भी पहली मंजिल से हमें देख के खुश हो रहे हैं, वो भी नीचे आते हैं.

बरामवदा में हम सब बैठ जाते हैं, नाना , सब मामा और मामिसा भी आ जाते हैं, सब हमें देख के बहुत खुश होते हैं ओर सब के चेहरे पर स्माइल होती है.

तब तक सिंटू भी जग जाता है, वहीं 🐒 कैप पहने, ओर मुंह में दूध की बोतल, सिंटूं कई सालो तक, दूध की बोतल में ही दूध पिता था, बड़ी मुश्किल से उसकी आदत गई.

सिंटू हमारी मां (नानी) का सबसे लाडला दोहिता था ओर अक्सर यहीं रहता था.

सिंटू हमारे पास आ जाता है, हम सब एक दूसरे की आंखों में देख मुस्कुराते है.

इसी बीच मां चाय बना के लती, वहीं स्टील के कप, दिखने में बहुत बड़े ओर उनमें चाय बहुत कम आती थी.

बरामवदे में काले गोल स्विच देख के भी मजे आ रहे थे, ऐसे जोधपुर में नहीं थे.

उधर ही मीटर था, ओर मीटर के पास लाल दंत मंजन रखा था, पाउडर वाला, जिसे हम उंगली से मंजन किया करते थे, ओर घर के बाहर वाली नाली में थूकते थे ओर देखते थे कि कितना दूर तक गया हैं.

इक रोज़ में ही खत्म हो जाए ,ये वो कहानी नहीं.

मुझ में घुली हैं जिंदगी, इसमें इतनी आसानी नहीं

क्रमश जारी हैं....