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बुधवार, 7 अप्रैल 2021

प्प्यार

आज का प्यार

मेरा मानना है कि प्रेम हो जाता है, ऐसा नही है न ही किया जाता है.

प्रेम निभाया जाता है.



नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि

चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि। कबीर 



इसे ऐसे समझे

 पहली नज़र में ही कोई मन को अच्छा लगता है. वो इंसान की पसंद या दो इंसानों की केमिस्ट्री हो सकती हैं.

आपकी केमिस्ट्री 10 लोगो के साथ भी अच्छी हो सकती है.

प्रेम वही कर सकता है जो स्टेन्ड ले सकता हैं. आपके साथ खड़ा हो सकता है.

जो प्रेम करते है और कहते है कि वो मजबूर है, नही तो ये कर लेते, वो कर लेते और इमोशनल ड्रामा में उलझे रहते है.

वो अपना और दूसरे का नुकसान करते हैं.

आप साफ साफ क्यों नही कहते कि आप को दो थप्पड़ खाने में और अपने परिवार, पड़ोसी और समाज मे बदनाम होने का डर है.

जब तक चोरी चोरी चुपके चुपके आप को इमोशनल सैटिस्फैक्शन मिल रहा था, तब तक कोई परेशानी नही थी. अब जब साथ खड़े होने की, सामना करने की बात आई है तो जिम्मेदारी उठाने से डर रहे हैं.

असल मे आप डरपोक है और प्रेम आपके लिए हैं ही नही. 

रोते रहने को ,दुखी होने को , तड़पने को और अफसोस करने को प्रेम नही कहते हैं.

बॉलीवुड की प्यार की थ्योरी से बाहर निकले.

"वीर भोग्य वसुंधरा". वीर व्यक्ति ही इस संसार मे आनंद ले सकता है. कायर के लिए क्या सुख.

मुझे लगता है, प्यार सिर्फ संसार के एक प्रतिसत से भी कम लोगो के लिए है. सब इसके काबिल ही नही.

 स्वर्ग पाने के लिए या कुछ बड़ा पाने के लिए ,कुछ काबिलियत,और कुछ गुण आवश्यक हैं.

 प्रेम तो आपकी नजर में परमात्मा या स्वर्ग समान ही होगा.

वैसे ही प्रेम के लिए भी काबिलियत चाहिए.

मजबूर लोग कुछ नही कर सकते. मजबूर लोगो को प्रेम नही करना चाहिए.

वैसे भी आपके हिसाब से भी नब्बे प्रतिशत लोग, बिना प्रेम के ही साथ मे रहते है तो आप भी उनके साथ हो जाए.

सोचिए महाराणा प्रताप, गोबिंद सिंह जी, शिवाजी महाराज, दुर्गादास राठौड़, राजसिंह जी मेवाड़ मजबूर होते तो क्या होता. ये सब विपति में और उभर के आए और सही रास्ते पर ही बढ़े.

आप अपनी शारीरिक इच्छा व इमोशनल नीड्स पूरी कर रहे है ,तो उसके लिए, ईमानदार रहे. सामने वाले को बताए कि बस इतनी ही जरूरत है. उसके आगे प्रेम वरेम कुछ नही, इससे आगे बस का नही.

अपने आप से ईमानदार रहे.

या यूं कहें कि आप को रोमांस( romance) पसंद है. लव की जिम्मेदारी आप नही उठा सकते.

लड़को की और परेशानी है. "यार लड़की ने आई लव यू बोल दिया. अब तो उससे प्यार करना ही पड़ेगा". 

ये वो लोग है जो प्यार भी मजबूर हो के करते है. 

या फिर आप काम चला रहे है कि अभी इससे कर लेते है, आगे कोई और सुंदर आएगी तो उससे कर लेंगे.

ध्यान से समझिए आप सिर्फ कुछ मानसिक व शारीरिक सुख प्राप्त करने के मूड में हैं, उसमे कोई बुराई भी नही पर इसको प्रेम का नाम दे, सामने वाले को धोखे में रखना भी तो एक अपराध है.

क्या आप साफ साफ कह नही सकते ? या साफ कहने से आपके इरादे पूरे नही होंगे.

प्रेम बेईमान, मौकापरस्त, डरपोक और गैर जिम्मेदार लोगों के लिए नही है, इस और कदम न बढ़ाये.

प्रेम का गुण लड़का, लड़की दोनों में होना चाहिए. किसी एक मे होने से भी कुछ न बनेगा.

इसीलिए शास्त्र कहते है, कुपात्र को दान देने से दाता नष्ट हो जाता है.

गलत व्यक्ति पर दया, प्रेम, ज्ञान, धन लुटाने से, आप ही नष्ट हो जाते है.

अपने अहंकार को, अपने आप को, अपनी इच्छाओं को पिघलाना पड़ता है. पूरा चरित्र इंसानों को बदल जाता है. तब कहीं प्रेम की ज्योत प्रवेश करती है, आप में. प्रेम को पूर्ण इसीलिए कहते है क्योंकि उस अवस्था मे आप सिर्फ देने के भाव मे होते है, आप स्वयं संतुष्ट भाव मे होते है, आपको कुछ चाह ही नही होती.

स्वयंम प्रेम की चाह भी नही.

चाह गयी चिंता मिटी, अब हंसा बे परवाह
जिसको कुछ न चाहिए, वो ही शहंशाह



कबीरा यह घर प्रेम का,खाला का घर नाहीं,

सीस उतारे भुइं धरे,तब पैठे घर माहीं !! कबीर


मान

एक विचार हममे है और बहुत गहरा है कि हम बाकी लोगों से थोड़े ज्यादा समझदार है. दूसरी तरह से कहे तो आपको अभिमान है कि आपके पास दुसरो से ज्यादा ज्ञान हैं. और आपने ये तर्क की कसौटी पर तोल के देख लिया हैं और आपको बात ठीक भी लगती है.

क्योंकि आप जिनसे मिले हो, उनकी परेशानियां आपने हल की है और उन लोगो ने भी आपको कृतज्ञ होते हुवे अच्छा आदमी, गुरु और भगवान तक कि उपाधि दी हैं.

आप जानते हो कि आप कईयों की परेशानियां हल कर सकते हो. क्योंकि आप अपने आप को भी हैंडल कर सकते हो.

आप अपने जैसे ही लोगो से मिलते हो और आप सामने वाले कि तारीफ भी करते हो, वो भी आपकी तारीफ करता हैं. दोनों ही एक दूसरे को बुद्धिमान, हाई स्टेट ऑफ माइंड मानते हो.

अब जिनके मस्तिक के स्तर नीचे हैं ,उनके साथ उठ बैठ नही पाते. जो नीच, रेपिस्ट, हत्यारे हैं, वैसे आप नही है, इसका संतोष आपको है.

आप में एक नही, बहुत काबिलियत है. आप जहां बुद्धि से तेज़ है, वहीं आप शरीर से शक्तिशाली भी. उसके अलावा भी जिस भी फील्ड में हाथ डालते हो, वहां दुसरो से अच्छा करते हो.

आप अपनी पिछली जिंदगी को भी देखते है तो आपको अपने अनुभव ज्यादा गहरे लगते हैं और आपने जिंदगी में बहुत कुछ देख लिया है.

करीब करीब आप अपने को कृष्ण के समान, सोलह कलाओं से पूर्ण ही मानते हो.

आप परमात्मा के शुक्रगुजार भी हो कि उन्होंने आपको सही गलत की समझ दी है और नेक रास्ता दिखाया है.

साधु संतों की भी आपकी संगत है.

पर क्या ये सच्चाई है या आप ऐसा अपने बारे में सोचते है.

इतना सब अनुभव के बाद भी जिंदगी आपको नीरस क्यों लगती है.

आपका ज्ञान जिसने आप को बदल के रख दिया, क्या वो आपके अंदर से आया था

या

फिर अनुभवी इंसानों ,किताबो और गूगल से आपके पास आया और आप ने समझ लिया और जीवन मे उतार लिया.

चलो समझ तो आपकी अच्छी है. ये तो आपकी खुद की ही है?

अगर आप उस बच्चे की तरह पैदा होते जिसे आजकल स्पेशल चाइल्ड कहा जाता है. तब क्या होता?

यानी समझ भी प्रकृति से मिली है.

अगर शरीर मे कोई ऐब रह जाता, एक आंख, एक पैर, एक हाथ छोटा बड़ा तो क्या आप इतने ही शक्तिशाली होते.

इसलिए दुर्गादास, गुरु गोबिंद सिंह जी, शिवाजी महाराज व्यक्तिगत वीरता के गुलाम नही थे.

गुरु गोबिंद अपने बुद्धि बल व शारीरिक बल को कभी भी अपना न मानते थे, वो आंतरिक तोर से प्रभु ,प्रकृति जो भी आप कहे,उसके सामने नतमस्तक थे.

आपके पास जो ज्ञान है वो ही असल ज्ञान है इसका भी आपको मान है क्योंकि वो आपके आदर्श पुरुष, धर्म या परिवार से आपको मिला हैं.

पर क्या आपको फ़टे जूतों में दस तरह की सिलाई करनी आती है. या एक गांव का ग्वार अपने 100 ऊँटो के पैर के निशानों में अपने खोये ऊंट के पैर के निशान पहचान लेता है. 30 साल ऊंट चराते हुवे उसके सेन्सेस( इन्द्रिय समता) विकसित हुवे है.

एक आदमी बड़े तेज़ चाल में चल रहे हारमोनियम को सुनने मात्र से, बिना एक सेकंड की देर लगाए, सारे सुर गाके सुना देता है.

एक छोटा बच्चा भी कई परिस्थितियों को आपसे अच्छे ढंग से संभाल लेता है, आप अब गुस्से और जानकरी के बोझ में वो लचीलापन खो चुके हो.

लेकिन आपको आपका ज्ञान ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है क्योंकि वह जीवन की वास्तविकताओं और आध्यात्मिकता से जुड़ा हुवा है. क्या ऐसा नही है?

आप अपने आप को शिवाजी महाराज की तरह मानते हो, आपको लगता है जैसे उनका ज्ञान, उनके भाव आप मे उतरे हो. और क्या की कोई आंगिक के शिक्षक आपको कहे कि आपकी आंगिक भाषा थोड़ा लड़की या किन्नर की तरह है.

क्या 100 लोगों की नज़रों में आपकी इमेज अलग अलग नही हो सकती. आपको कोई बोले भले न पर मन ही मन मानता हो कि आप एक नीच ,आलसी,मतलबी और मूर्ख इंसान हो. जो कि स्वयंम आप अपने बारे नही मानते.

लेकिन आप इतना तो मानते हैं कि आपके जीवन मे बहुत गरीबी और तकलीफे आयी जिसने आपको और मजबूत बनाया, है ना?
इसके लिए तो ताली होनी चाहिए.

पर कितने लोग है जो कॉलेज, स्कूल तक भी पहुंच नही पाते. उनकी माएं कचरा चुग चुग के उनको जिंदा रख रही हो.

और क्या जो गरीबी कोई मापदंड ही न हो? जैसे बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण...

तो फिर तुम क्या हो.

एक नाली में दारू पीके सोये आदमी में और आप मे रत्ती भर का फर्क नही हैं.

कुछ तो फर्क हैं, नही?

हां हैं, जीवन की संभावनाओं का फर्क हैं.

इसलिए विवेकानंद हमेशा आशावादी व अति उत्साही थे. क्योंकि जीवन मे संभावनाएं है.

जिसको आप ज्ञान दे रहे हो ,वो कल आपका गुरु बन के बैठा होगा और जिसको आप गुरु मानते हो वो 70 साल की उम्र में किसी बच्ची के बलात्कार के जुर्म में सजा भुगत रहा होगा.

पर एक बात तो हैं, आपने रास्ता सही चुना है , नही?

जरा सोचिए ह्त्या तो आप भी करना चाहते थे, किसी के साथ जबरदस्ती भी करना चाहते थे. आप सोचने में लगे थे और किसी ने कर दिया.

और जो हल्का सा फर्क आप मानते हो ,वही बस आपका मान, अहंकार घमंड हैं, उसको विदा हो जाना चाहिए.

फिर आप सबसे बात कर सकते है. सबके दिल के करीब जा सकते है. फिर आप दोस्त हो सकते है.

इसलिए बुद्ध नतमस्तक हो अंगुलिमाल के पास जा सकते है. आपको क्या लगता है ,उन्होंने एक हत्यारे को ज्ञान दिया और दस मिनट में वो आदमी बदल गया. क्या ऐसा हो सकता है ? या क्या आपके साथ ऐसा होता है?

अंगुलिमाल से अंगुलिमाल ही मिला था और कुछ बात हो गयी थी बस... और दो बुद्ध साथ हो गए थे.

राम केवट, बन्दर, भालुओं के साथ केवट बन्दर भालू ही थे. यह तरलता , शीतलता तब ही आती हैं जब आप कुछ होते नही है.

अब क्या करे में और आप तो समझदार भी है और अच्छे इंसान भी.

Note - लेख का अर्थ बिल्कुल भी नही है कि आप कुसंगति में रहे. बस ये हैं कि आप अपने को और गहरा जान सको.




मुझे जानो

हर इंसान अपनी बातें, खुशियां, दुःख शेयर करना चाहता है. बात करके ही इंसानों को संतुष्ठी मिलती हैं. ये बेहद जरूरी हैं , आधे इंसानों के मानसिक रोग और दुख दूर हो जाए अगर ,इंसान इंसान से बात करे.लेकिन मैं यहां कुछ और कहना चाहता हूं. हम कहीं न कहीं इस चीज में उलझे रहते हैं कि लोग आपको ऐसे जाने.आपके बारे में आपकी एक राय है और आप अक्सर "आप कैसे हैं" , ये लोगो को डायरेक्ट या इनडाइरेक्ट तरीके से लोगों को जाहिर करते हैं.

इसमे समस्या ये है कि आप बताना चाह रहे हैं कि आप कितने ज्ञानी, अनुभवी या सीधे इंसान हैं. आप चाहते हैं की लोग आपको वैसे ही जज करे या आपको माने जो आप अपने बारे में सोचते हैं.दो दिन वो मान भी ले, लेकिन तीसरे दिन आपकी हरकत या व्यवहार बदलता है या ऐसे ही उनकी राय आपके बारे में कुछ और हो जाती हैं तो आप क्या करेंगे. आप अपनी इमेज को फिर से उनको समझाएंगे.या जो इमेज आपने पहले बना दी थी, वापस खुद वैसा ही व्यवहार करेंगे.

ये ऐसा ही है जैसे खुद को जंजीरो में जकड़े रखना.इससे क्या फर्क पड़ता है कि दूसरा आपके बारे में क्या सोचता है. जो आपके अपने है उन्होंने आपकी लाख बुराई के बाद भी आपका साथ दीया है और कई गुणों के बाद भी कईयों ने आपका साथ छोड़ दिया.हर आदमी की अपनी ही राय होती हैं, गलत या सही जो भी हो. इसलिए आप लोगों की नज़रों में अपने आप को देखना छोड़े और वो करें जो आपको खुशी देता है.

लोगों की महापुरुषों के बारे में भी अपनी निजी राय होती हैं या थी.
आदर्श महापुरुष गुरु गोबिंद सिंह जी जब सो रहे थे तब उन्ही के दो अंगरक्षकों पठानों ने उनपे आक्रमण किया, निसंदेह उन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी खराब या चालबाज़ लगे होंगे. उनकी राय पक्की हो गयी तभी ऐसा कर पाए होंगे.

मरने के बाद लोग महापुरुषों को भी भुला देते हैं, आप और में तो कुछ भी नही.

सो आज़ाद होके जियो और खुश रहो.

लोगों से खूब बातें करो, छोटे बड़े सबसे मिलो बिना ये सोचे कि आपके बारे में क्या राय बन रही हैं.

रिश्ता तेरा मेरा इंसानियत का ही अच्छा है.

नामो के रिश्तों को रोज अखबारों में तार तार होते देखा है.


असंतुष्ट की संतुष्टि

हम वाकई असंतुष्ट है या हमारे मन में कोई विचार था कि ऐसा न हुआ तो मुझे संतुष्टि न मिलेगी?

और यह विचार हममें उत्पन्न कैसे हुआ। अपने अंतर से या कुछ लोगों की बातें सुनकर या कुछ किताबें पढ़कर।

अगर आपके अंतर की ही मांग है तो फिर उसको प्राप्त करने का एक इंसानी तरीका क्या हो सकता है, उसके अनुसार प्रयास करें।

पर लोगों से या ज्ञानियों से प्रभावित हैं तो दिक्कत है क्योंकि ये असंतुष्टि हर उम्र भर बढ़ती जाएगी।

जैसे दसवीं कक्षा में यूरोप कैसा है, वहां जाने का या जानने का मन न था। पर अब अपने साथियों को देख आप असंतुष्ट हो रहे हो, एक कसक सी है।

कोई परेशान होता है कि जिससे प्यार करता था, उसके साथ जीवन आगे न बढ़ सका। पर जीवन की अपनी चाल है वो किसी विचारधारा में नही बंधता।

क्या हो जाता है अगर पहला प्यार अधूरा रह जाए। 99 परसेंट लोगों का जीवन पहले प्यार के साथ आगे नहीं बढ़ता है। ये सारे असंतुष्टि के विचार आप में बाहर से आये है। ये आपके अंतर की पुकार नहीं हैं।  



एक आध्यात्मिक व्यक्ति चीलम फूंक रहा था, हमने पूछा कि आप क्यों पी रहे हो।तो कहा बड़ी तीव्र इच्छा है अंदर से पूरी न हुई तो अगला जन्म और लेना पड़ जायेगा। सो अपनी इच्छा पूरी कर रहा हूँ ताकि इसी जन्म में मोक्ष के लिए कोई बंधन न रहे।

आप बताए क्या दिक्कत हैं अगर अगला जन्म हो जाए तो, मोक्ष कुछ जन्मों में शिफ्ट हो जाए तो, अगर आप अगले पिछले जन्म को मानते हो तो?

और अगर एक ही जन्म है तो कितना भी भोग ले, कुछ तो बाकी रह ही जाएगा। ज्यादा भोगने के चक्कर में आप अशांत और पागल होते चले जाएंगे।



राजा ययाति की कथा है कि हज़ारों सालो के जीवन मे उसने लाखों स्त्रियों का भोग किया और अंत मे निर्णय दिया भोग ही हमें रोग देते है। हम भोग नहीं भोगते, भोग ही हमें भोग लेते हैं। यह भूख भोजन की तरह है, हर बार लगती ही जाएगी , संयम के बल को विकसित करने से ही छुटकारा संभव है।

शरीर की मूल आवश्यकताएँ भोजन, पानी व हवा है। काम और क्रोध मन में होते हैं शरीर में नहीं। इसलिए साधु, बच्चे और आम मनुष्य का शरीर एक ही जैसा होता हैं।



एक शादीशुदा व्यक्ति मिले, उनको अपने पत्नी पे शक था कि वो वर्जिन न थी। उनको ज्यादा चिंता पत्नी के चरित्र की न थी, बल्कि ये थी की उनको वर्जिन लड़की न मिली।

अब वो इधर उधर नज़र दौड़ा रहे हैं कि कहीं मामला सेट हो जाए। हमने उनसे पूछा कि कितनी जगह डर डर के मुंह मारोगे। उन औरतो और पुरुषों के इंटरव्यूज देख लो कि उनका पहला अनुभव कैसा रहा। एक का भी अनुभव संतुष्टि भरा न होगा। और फिर एक बार से आप संतुष्ट भी कहां होंगे।



भारत और एशिया के कुछ देश जिसमें चीन भी है। यहां की संस्कृति त्याग और बलिदान की रही है। कई कहानियां आपने सुनी होगी कि एक बड़े भाई ने अपने बहनों की शादी करवाने के लिए जीवन भर कमाता रहा, खुद शादी न कि और जीवन भर अपने बहनों के काम आता रहा।  

क्योंकि हमारे यहां उस समय क्या जरूरी है , क्या मुझे करना चाहिए। उस पे ध्यान दिया गया हैं।



1960 में अमेरिका में एक विचारधारा जन्मी। फॉलो योर पैशन। आप जो चाहते हो वो करो।इस विचारधारा ने दुनिया को बहुत बेवकूफ बनाया।

हो सकता है आप घर का भला ही करना चाहते थे। पर अब घर जाए भाड़ में, में हीरो बनना चाहता हूं या पूरी दुनिया घूमना चाहता हूँ। इन सब इच्छाओं के लिए आपको मजबूर सा कर दिया।

अब आपको लगता है ये सब न हुआ तो में असंतुष्ट ही रहूंगा।  



ये सारी बातें भी अगर आप को एक सहजता में नहीं ला पा रही है और आप असंतुष्ट ही है। तो फिर जो आप हासिल करना चाह रहे थे उसके लिए प्रयास रत भी थे, फिर भी साम ,दाम ,दंड ,भेद से भी हासिल न हुआ तो फिर क्या?



भगवद गीता में आता है कि "इच्छाएं उनकी पूरी हो जाती है जिनको कोई आधार मिल जाए।"

आपको आधार न मिले और आप असंतुष्ट ही रहे, आपकी सारी इच्छाएं, चाहते पूरी न हो तो क्या?

असंतुष्ट होते हुए भी क्या आप संतुष्टि के साथ मर सकते हैं?

यही भारतीय गुण व विचारधारा है.

चाह गई चिंता मिटी ,मनवा बे -परवाह ,
जिनको कछु न चाहिए ,वे साहन के साह। रहीम

इसलिए जानकर भी हारना सीखे. हारना सन्तुष्टि हैं. प्रेम में लोग दिल हार जाते हैं यानी कि उनका सेल्फ अपने से ज्यादा किसी और को महत्व दे देता है.

सिर्फ जितने वाला, हासिल करने वाला या तो पागल हो जाता हैं या फिर मरते वक्त शैय्या पे ही उसे समझ आता हैं कि वो बहुत कुछ हार गया.


Love ( लव)

किसी शायर ने क्या खूब कहा हैं -" दिलो की बात करता हैं ज़माना और मोहब्बत आज भी चेहरो से शुरू होती हैं"

पहली बात हम समझे कि "दिल" क्या है। दिल एक उर्दू शब्द हैं जिसे हिंदी में हृदय या मन कहते हैं।

संस्कृत में मन व हृदय पर्यायवाची शब्द हैं, जिसका मूल अर्थ हैं, शरीर के परे ,कुछ गहरा, आपके अंतर तक। ऐसे ही अंतर्मन या अंतरात्मा जैसे शब्द हैं।

सीने की धड़कन वाली मशीन जिसे हार्ट कहते हैं वो हृदय, मन, या दिल नही हैं। आप आज हार्ट बदलवा भी सकते हैं और भविष्य में शायद मैकेनिकल या इलेक्ट्रॉनिक हार्ट भी आ जाये जो आपकी आयु को और बढ़ा दे।

आपको ये जानकर भी शायद हैरानी होगी की महाभारत काल से पहले और उस वक़्त तक "प्रेम" शब्द अस्तित्व में ही न था।

खोज करने पर प्रेम के सबसे नजदीक जो शब्द आता हैं ,वह हैं "श्रद्धा"।

गुरु में, मित्रता में, या किसी नर नारी में श्रद्धा हो जाती थी। ये श्रद्धा बहुत शंकाओं और कशोटी पर खरे उतरने के बाद किसी व्यक्ति विशेष पे होती थी।

सिर्फ किसी के रूपवान होने पर ही उसमें श्रद्धा स्थापित नही हो जाती थी। मतलब की हम अंधे और मूर्ख नही थे। हम श्रद्धा शब्द के दास नही थे।

पर जब से बॉलीवुड ने विशेष तौर पर और फिर कुछ झूठे साधु, सन्याशी बने लोगो ने " प्रेम" शब्द का जमकर इस्तेमाल किया, तब से प्रेम के लिए विशिष्ट विचारधारा सी बन गयी। उस विचारधारा ने आँख पर पट्टी बांध दी। और हम एक शब्द "प्रेम" के दास हो गए।

जब कुछ महान विवेकी पुरुषों की जैसे कबीर, तुलसी, सूरदास, रैदास, मीरा की, प्रेम की, सही परिभाषाएं सामने आती भी हैं ,तो उनको सिर्फ आध्यात्मिकता से जोड़ दिया जाता हैं और समाज के लिए छूट भरी, सहूलियत अनुसार परिभाषा स्वीकार कर ली गयी।

आज किसी को उसका प्यार न मिले तो गुस्से में आ वो अपने प्रेमिका को चोट पहुंचा देता हैं और कुछ ने तो तेज़ाब जैसी निन्दनीय घटनाएं भी की हैं। क्या हो जाता हैं अगर पहला प्यार अधूरा रह जाता है या आपको किसी से प्यार नही मिलता। आप इतने क्यों तड़प उठते हो और आपको क्यों लगता हैं कि प्यार न मिला तो आपका जीवन अधूरा व बेकार हैं।

दूसरी भाषा में कहे तो किसी इंसान की श्रद्धा आप पर नहीं होती, भरोसा नही होता तो आप उसपर अत्याचार कर सकते हैं। जरा सोचिये दानव और क्या करते थे। श्रद्धा किसी की आप पर बलपूर्वक नही आ सकती, आपका व्यवहार, आपका चरित्र, आदतें किसी का विश्वास आप पर ला सकते हैं। पर ऐसे लोगों का रिश्ता सिर्फ शादी या शारीरिक संबंध तक जाए जरूरी तो नही।

क्या आपको ,जो दिखने में, आपकी परिभाषा में या यूं कहें आज की समाज की परिभाषा में सुंदर नही है, उससे प्यार हुआ हैं। जैसे कोई नाटा, मोटा, काला, गंजा या बेकार नाक नक्श का। पर हां ,अगर वो महान व्यक्ति हैं ,विशेष गुण वाला हैं तो आपकी श्रद्धा अवश्य हो सकती हैं मगर आप उससे प्रेम नही कर पाते है।

हम आपको आदर्शवादी भी नही बना रहे कि आप जबरदस्ती किसी से प्रेम करने लग जाये। बस आंख की पट्टी खोलने का प्रयास कर रहे हैं जो एक शब्द ने आप पे बांध रखी हैं।

या यूं कहें कि आपको कोई पसंद आ भी जाता हैं और चार लोग मजाक उड़ायें की तेरा दिल इस पर आया है, तो आपका प्रेम हवा हो जाता हैं।

आप जब किसी के रूप ,रंग का मजाक बनाने लगते हैं, तब तो आप इंसान भी नही रह जाते फिर आपमें प्रेम कैसे घटित हो सकता हैं।

अपनी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति करने को कृपया प्रेम नाम न दे।

आप अकसर उसी को तलाशते हैं जिसके साथ खड़े होने पर कोई आप पे हँसे ना। मतलब समाज की परिभाषा में जो सुंदर हैं आप सिर्फ उसी से प्यार कर पाते हैं।

आजकल हर प्रेम आखिर शरीर तक ही क्यों आ जाता हैं। या प्रेम का नाम ले, शरीर तक पहुंचना आसान हैं।

क्या आप राजा ययाति की तरह इतने ईमानदार नही हो सकते जो संसार की समस्त स्त्रियों के साथ भोग करना चाहते थे। संसार में आपके लिए दरवाजे आज भी खुले हैं पर दृष्टिकोण तो साफ हो।

आप दुनिया से ईमानदार हो न हो, अपने से आपको पूर्ण ईमानदार होना चाहिए।

जब आप अपनी कमजोरियों और इच्छाओं को ईमानदारी से देखने लगते हैं तो उनमे सुधार और संतुलन किया जा सकता हैं।

क्या हम एक झूठ में, जैसे कि कुछ लोग धर्म,जाती के नाम पे अंधे हो जाते हैं ,बहुत कुछ गलत नही कर रहे?

कोई प्रेमिका का गला काट देता हैं, कोई उसके पिता की हत्या, कोई तेजाब फेंक रहा हैं, कोई शादी न होने पर उसका बलात्कार कर देता हैं, कोई ब्याही प्रेमिका को जबरदस्ती भगा ले जाता हैं ....

प्रेम की कोई विचार धारा या विचार नही हो सकते क्योंकि जब आप प्रेम में होते हैं तो मुक्त होते हैं, पूर्ण होते हैं, निर्विचार होते हैं। नही तो प्रेम आपमे घटित नही हो सकता।

विचार से चिंता या डर तो पैदा हो सकते हैं मगर प्रेम नही, सच्ची श्रद्धा का भाव नही।

सच्ची आस्था और प्रेम तभी होते हैं जब आप अपने " मै" मे नही होते।

जब तक मेरा प्यार, मेरी वो, में उसके बिना, मेरे साथ ही क्यों, में उसको; यह मैं रहेगा , प्रेम ,श्रद्धा का आप अनुभव ही नही कर सकते।

और जो आप इस "मैं "के साथ, अनुभव कर रहे हैं वो आपकी जिद, जुनून, ईगो (अहंकार), प्रतिशोध, क्रोध या शरीर की कोई और इच्छा हो सकती हैं पर प्रेम नही हैं।

क्योंकि जब आप प्रेम की अवस्था मे होते हैं तो यह सब विचार और नुकसानदेह भाव आप मैं नही होते।

और हां ,दुनिया के सबसे बड़े जाहिल और कुटिल हृदय इंसान ने ये बात कही थी कि "प्रेम और जंग में सबकुछ जायज हैं"

क्योंकि न तो युद्ध मे इंसानियत की हद पार होनी चाहिये और न ही प्रेम में।

किसी भी वस्तु, बात या अनुभव की एक एस्थेटिक (aesthetic) वैल्यू होती हैं। अपनी मर्यादा, संयम तोड़ हम उसे गन्दा बना देते हैं। फिर मनुष्य की इच्छाशक्ति( will power) होने का कोई अर्थ नही रह जाता।

तो हम कहना क्या चाहते हैं?

किसी भी भाषा या शब्द का कार्य होता हैं कम्यूनिकेट करना( अपनी बात कहना) , जब मनुष्य के पास बोलने की भाषा न थी तब सिर्फ इशारों की भाषा( आंगिक) थी। पर विवेक, समझ और करूणा आप मे सदा से थी।

पर आज हम कुछ शब्दों के गुलाम बन के रह गए और अपनी समझ, करुणा खो बैठे।



जिनसे आधार और संदर्भ लिया गया हैं

अमृतवाणी - स्वामी अड़गड़ानंद जी


काम वासना

काम वासना के भी देव रहे हैं, हमारे महान भारत मे। उन्हें काम देव कहा गया। काम देव, कामवासना के ज्ञानी और गुरु रहे होंगे।

यानी वो चाहे तो किसी में भी काम की अग्नि प्रज्वलित कर सकते थे। जिन दंपतियों को संतान सुख की प्राप्ति नही होती वो भी कामदेव की पूजा करते हैं ताकि उनकी कृपा से उनमें कोई कमी दूर हो और वो संतान सुख के भागी बने।

आप ईमानदारी से विचार करें और बताएं ,अगर कामदेव की शक्तियां आप में होती तो आप क्या करते? किसी को छूने मात्र से आप उसमें काम जगा सकते ,उसे अपना दीवाना बना सकते, मन चाही आरजू पूरी कर सकते।

अगर आप कोई भी हद लांघते या गलत राह पकड़ते तो आप कामदेव न रहते, फिर आप कामयुक्त दानव होते और हम आपको कामदानव कह सकते हैं।

कहने का अर्थ ये हैं कि हर भाव, वस्तु, बात का सदुपयोग या दुरुपयोग हो सकता हैं। आप कौन सी राह चुनते हैं वैसे ही आपका जीवन बनता हैं।

इतिहास पढ़ने पर यह पता लगता हैं कि कामदेव शादी शुदा थे, उनके अलग से किसी स्त्री के साथ संबंध नहीं थे और वो अपनी पत्नी रति से अत्यधिक प्रेम करते थे।

आयुर्वेद भी, स्त्री पुरुष की यौन संबंधी विकारों और कमजोरियों की कई औषधीय बताते हैं।

काम सूत्र भी पति पत्नी को भोग का पूर्ण आनंद लेने की कला सिखाते हैं। यानी संभोग के समय पूरा ध्यान संभोग में, ना कि ऑफिस, पैसे, लोन आदि आदि चिंताओं में आधा ध्यान भटका हुआ। और स्त्री पुरुष दोनों अपने शरीर को समझे, अपनी कामनाओं को समझे।

इन सब के बाद शास्त्र कहते हैं कि शरीर सुख की एक सीमा होती हैं, इससे आप सम्पूर्ण सुख या संपूर्णता को प्राप्त नही कर सकते। जैसे एक हद के बाद खाया नही जा सकता, कसरत कर भी शरीर को बढ़ाया नही जा सकता, उसी तरह सभी इन्द्रिय सुख की भी सीमा हैं। कान एक हद तक संगीत सुन सकते हैं फिर उन्हें भी विश्राम चाहिए। वैसे ही जिव्हा, नाक, आदि की समताये हैं।

आज के समय या विचारधारा को देख के ये लगता हैं कि इंसान सैक्स कर कर के ही परमात्मा की या अन्तिम लक्ष्य की या संतोष की या शांति की प्राप्ति करना चाहता हैं। उसके लिए इससे महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं, इसके लिए संयम भी नही, कोई मर्यादा ही नही। जैसे ये अनुभव न मिला तो जीवन व्यर्थ या जीवन में यह अनुभव ही सबसे ज्यादा जरूरी हैं।

फिर तो हनुमानजी का, विवेकानंद , आदि महापुरुषों का जीवन व्यर्थ ही था। उनके जीवन में शांति, संतोष व सुख न था क्या?

यहाँ किसी को ब्रह्मचारी होने के लिए उकसाया नहीं जा रहा। जीवन तो राम जी का भी था। नानक देव, कबीर का भी था।

आज हम काम दानव बनते जा रहे हैं, न कि देव। बड़े घर परिवार का सुख, बड़े कुटुम्भ का सुख, विभिन्न रिस्तो का सुख, सब सुख, सब अनुभव एक काम अनुभव की दासता के कारण खोते जा रहे हैं।

भुआ, बड़े पापा, काका, नाना, मामा, फूफाजी, ताईजी, मामीजी, बाईजी, धरम बहन, धर्म भाई, शादी में बड़ा जमावड़ा, ताश के पत्तों के रात भर खेल, बहुत सारी बाते, गप्पे और ढेर सारा आनंद, सारे बच्चे इक्कठे होकर ,उनकी एक फौज बन जाती थी। ये सारे अनुभव खराब या खत्म होने लगे क्योंकि कामनाये मर्यादा तोड़ दानव रूप लेती जा रही हैं।

कभी आपने सुना कि कामदेव ने किसी स्त्री को वश में कर उसके साथ गलत काम किया हो या बलात्कार ही किया हो। आप भी काम के ज्ञानी हो सकते हो पर ज्ञान पाकर काम देव बनो, आयुर्वेद बनो, ना कि काम दानव। दूसरे की स्त्री हथियाने की कोशिश करने वालों को रावण का , राक्षस का ही खिताब दिया गया।

ये बात आपके लिए बड़ी भारी हो सकती हैं, आप कह सकते हैं आदर्शवाद की बाते हैं और आप गैर जिम्मेदार ही रहना पसंद करते हैं या आपको उसमें ज्यादा आज़ादी, आनंद मिलता हैं ,तो ठीक हैं। पर ये अमर्यादित काम की आग जब आपकी बहन, बेटी, पत्नी या माँ तक पहुंचे तो फिर आपको शिकायत नही होनी चाहिये।

गलती सिर्फ मेरी नही थी, ये भी इंटरेस्टेड थी या चाहती थी, ऐसे केस आज कोर्ट का हिस्सा हैं। किसी के चाहने या इंटरेस्टेड होने से आपकी जिम्मेदारी कम नही हो जाती ,आपको मर्यादा लांघने की छूट नही मिल जाती। किसी के चाहने से आपका विवेक कैसे कमजोर पड़ जाता हैं या आप मर्यादा लांघना ही चाहते थे ,बस एक वजह मिल गयी और पकड़े जाने पर एक इंसान, जिस की तरफ इशारा किया जा सके कि गलती इसकी भी थी।

किसी भी वस्तु, बात या अनुभव की एक एस्थेटिक (aesthetic) वैल्यू होती हैं। अपनी मर्यादा, संयम तोड़ हम उसे गन्दा बना देते हैं। फिर मनुष्य की इच्छा शक्ति( will power) होने का कोई अर्थ नही रह जाता।


वर्तमान में भारतीय समाज

भारत हमारा देश, हमारी मातृभूमि जिसका एक स्वर्णिम इतिहास रहा हैं। जिसे विश्व गुरु भी कहा गया हैं। जिसकी शिक्षाये समस्त मानवजाति के लिए परोपकारी रही हैं। पर वर्तमान देखने पर ऐसा कुछ प्रतीत तो नही होता।

धार्मिक और जातिगत दूरियां इंसानों के दिलो में समाई हैं। कभी कभार फेसबुक पर लोग अपनी भड़ास निकाल लेते है। कुछ तो अपने समाज,जाति को महान बताने के लिए और दूसरे के समाज को गाली देने के लिए ही एक और एकाउंट बना रख लेते है।

कुछ लोग जिनके इरादे नेक नही होते या वो किसी देश ,धर्म को न मान अपनी राजनेतिक विचारधारा को ही बढ़ाना, फैलाना चाहते हैं, उनके लिए सोशल मीडिया ,बेहतरीन प्लेटफार्म, आधार हैं।

सब ने अपनी अपनी जातियों औऱ धर्म के महापुरुष चुन लिए हैं, अपनी जाति, धर्म के महापुरुष भगवान तुल्य लगते हैं और दूसरी जाति के गलत व कमजोर। आज ये स्वभाव हो गया हैं कि अपनी जाति या महापुरुष की बढ़ाई करनी हैं तो, दूसरे समाज की बुराई से ही संभव हैं। पर आश्चर्य की बात हैं कि आम इंसान इतना मूर्ख कैसे हो गया या समाज के वो ठेकेदार कौन हैं जिन्होंने उनको इतना मूर्ख बना दिया है। तब किसी राजनैतिक या किसी विशिष्ट विचारधारा को सफल बनाने का बड़ा षड्यंत्र लगता है।

कहने का अर्थ की अपने मां बापूजी का सम्मान करने के लिए, दूसरों के माताजी, पिताजी को गाली निकालने की आवश्यकता नही हैं। या अपने पुत्र को आगे बढ़ाने के लिए,संस्कार देने के लिए, दुसरो के पुत्रों की हत्या की आवश्यकता नही होती।

हमने अपनी समझ से चीजो को इतना सरल कर दिया हैं कि किसी जाति के एक व्यक्ति ने गलती की तो सारा समाज ही दोषी हो गया। इसका मतलब की अगर किसी पुरुष ने स्त्री के साथ जबरदस्ती की तो, सारा पुरुष समाज ही बलात्कारी है,किसी पुरुष में कोई गुण मिलना अब असंभव हैं।

इसलिए शांत और समझदार होने की आवश्यक्ता हैं।

आजकल मूर्खो की एक लड़ाई और चलने लगी हैं कोंन बड़े योद्धा थे; राजपूत,मराठा,सिख, जाट या कोई और।।

क्या आप इतना भी नही समझते कि जो भी महापुरुष हुवे हैं उन्होंने समय अनुसार जो सही था वो किया?

और सब अलग अलग समय पर हुवे।

जब मोहम्मद बिन कासिम, गौरी, गजनवी, खिलजी,बाबर आदि थे तो उनसे लड़ने वाले ज्यादातर उस वक़्त के राजघराने , राजपूत योद्धा व आम जनता रही।

जब औरंगजेब का समय आया तब तक सिख, मराठे, जाट योद्धा मजबूती से उबरे।

तो फिर गालियां निकाल आप कोनसी संतुष्टि लेना चाह रहे हैं?

पर क्या यह सम्मान देने योग्य नही हैं कि छोटे बड़े सब अपनी समतानुसार संघर्ष करते रहे।

कभी राजनेतिक वजह से आपस मे भी युद्ध हुवे। कभी कोई जीता तो कभी कोई हारा। राज्यों की शक्तियां भी समयानुसार घटती, बढ़ती रही । पर क्या ये साधारण सी बात नही हैं?

क्या आप जानते हैं कि आसाम,जम्मू कश्मीर,साउथ इंडिया में कौन योद्धा रहे होंगे?

आधा अधूरा अपने हित का पढ़ ,आप दूसरे को गाली निकालने के लिए ज्ञानी नही हो जाते।

जब आप इतिहास में या वर्तमान में सिर्फ गंदगी ढूंढने निकलेंगे तो आपको गंदगी मिल ही जायेगी और अगर आप गुण ढूंढने निकलेंगे तो आपका चरित्र भी खुशबू से महक उठेगा।

आपकी नियत क्या हैं ,बस उसपे निर्भर हैं।

किसी भी महापुरुष को जैसे वाल्मीकि जी, श्री राम, कृष्ण, बुध, महाराणा प्रताप,कबीर,तुलसी,सूर, गुरु गोबिंद सिंह जी, शिवाजी महाराज, तेजाजी महाराज, जाम्बोजी , पाबूजी, रामदेवजी, दुर्गादास, अम्बेडकर साहब, महात्मा गांधी ,इनको आप के सर्टिफिकेट की जरूरत नही हैं। त्यागी, बलिदानी महापुरुषों को आपके महिमामंडन और खंडन से फर्क नही पड़ता।

इन महापुरुषों का ज्ञान समस्त मानवजाति के लिए है। किसी विशेष जाती, धर्म के लिए नही।

दुनिया की कोई भी विचारधारा जिसका इरादा नेक न हो और मानवता जिसका आधार व उद्देश्य न हो ,वह कुछ सालों या सदियों तक ही जीवित रह सकती है, जब तक कि उस वक़्त की परिस्थितिया उनके पक्ष में होती है। फिर धीरे धीरे वो लुप्तप्राय हो जाती।

भारत में ही कई जातिया पनपी और वो लुप्त भी हो गयी। एक वक्त में यक्ष, गंधर्व,देव,दानव नाम की जातिया थी । उसके बाद वानर, रीछ, नाग,गज आदि जातियां थी।

कहने का अभिप्राय यह हैं की समय परिवर्तनशील हैं और उसमे परिवर्तन होते रहते हैं। पर परंपरा ,धर्म,जाती का झूठा मोह हमें पकड़ के रहता हैं और हम उसकी रक्षा के लिए मानव/मनुष्यता को ही भेंट चढ़ा देते हैं। सही ,गलत भूल अपनी जाति, धर्म के लिए सब गलत हथकंडे भी अपनाते है ,जो इंसानियत को शर्मशार करने वाले होते हैं।

वर्तमान में भी देखे तो अलग अलग विचारधारा अपने को ही सही मान, अपने को स्थापित करने के लिए,कोई भी हद पार कर सकती है। जैसे कम्युनिस्ट, डेमोक्रेसी, सोशलिज्म,कैपिटलिस्ट आदि आदि।।।

इन विचारधाराओं को स्थापित करने के लिये भी बेईमानी व खून खराबे में कोई भी कमी नही रखी गयी थी।

क्या कोई एक विचारधारा ही सर्वश्रेष्ठ हो सकती हैं, क्या सब मे कुछ अच्छा और कुछ कमियां नही हो सकती पर मोह वश, हम मानना ही नही चाहते।

हम जिसको अपना महापुरुष मानते है ,उसी की लिखी ,हर एक बात हमें सत्य लगती हैं ,हम उसे ही पढ़ना चाहते है और दूसरे की सुने बिना ही गलती निकालने मे सक्षम हो गए हैं।

किस वक़्त में, किस जरूरत अनुसार और उस समय की प्राप्त जानकारी के अनुसार ही किसी ने लिखा होगा। वर्तमान में कुछ फर्क, भेद हो सकता हैं। पर हम समझने की बजाय, लड़ना पसंद करते है।

हर आदमी अपनी जाति और धर्म को वैज्ञानिक आधार देने में लगा हुआ हैं।

कबीर जी ने कहा था कि एक आने की हंडिया भी हम ठोक बजा के लेते हैं, फिर गुरु बिना विचार किये, शंका किये बिना नही चुनना चाहिये। आप उसे पूरा जीवन अर्पित करते हैं।

Jiddhu Krishnamurti - Doubt is a precious thing।

कहने का अर्थ हैं कि, जब तक आप खुले दिमाग से अपने ही महापुरुषों के कथनों पर प्रश्न नही करोगे। दुसरो के कथनों पर विचार नही करोगे। तब तक आपकी समझ स्वतंत्र नही होगी।

भारत मे हर एक इकाई के कल्याण की,प्रगति की बात कही गयी हैं और वो प्रगति भी सिर्फ भौतिक न थी। यहाँ जिसके पास पैसा न हो वो सिर्फ कुचला या कमजोर नही माना गया। जैसे

शबरी, वाल्मीकि जी, रैदास,कबीर, तुलसी, सूरदास, मलूकदास आदि और कुछ ने तो अमीरी छोड़,गरीबी का चोला धारण कर लिया जैसे महावीर, बुद्ध, मीरा, विश्वामित्र आदि ।।

सो सब देशों में एक ही तरह की विचारधारा या धर्म ठीक नही हो सकता ,क्योंकि ये धर्म और विचारदर्शन ने जिस जगह पे जन्म लिया ,वहां की परिस्थिति ,उस वक़्त अनुसार क्या रही होगी,उसपे भी निर्भर रहा होगा।

सब मे कुछ समान अच्छाइयां है तो कुछ भिन्नता हैं। हम अच्छाइयों को छोड़ भिन्नता पे जोर दे ,अपना युद्ध जारी रखते हैं।

कुछ समानताएं जैसे।।।।

वेद कहते हैं - "एको अहं, द्वितीयो नास्ति" - मै एक हूँ, दूसरा किसी का अस्तित्व नही।

बाइबिल कहती हैं - गॉड इज वन

कुरान कहती हैं - एक अल्लाह ही सत्य हैं

नानक जी - एक ओंकार सच्चा नाम हैं और सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होता हैं

रामचरितमानस - ईश्वर एक है और सबके हृदय में विराजमान हैं।

भारतीय संस्कृति प्राचीनतम है, सो उसमे भी कई कुरीतियों ने वक़्त अनुसार जन्म ले लिया था। विशेष तौर पर आज से 2300 वर्ष पूर्व जब बृहद्रथ मौर्य का कत्ल कर पुष्यमित्र शुंग ने खुद को सम्राट घोषित किया,बौद्ध और हिन्दू मंदिर तुड़वाये। आमजन में संस्कृत भाषा का लोप भी शुंग साम्राज्य में ही हुआ।

पुष्यमित्र शुंग भी सम्राट अशोक की तरह महान बनना चाहता था या यूं कहें भगवान बनना चाहता था।

इसी ने सारी स्मृतिया लिखवाई, जिसमे मनुस्मृति, पारासर स्मृति ,इस प्रकार महापुरुषों का नाम इस्तेमाल कर,128 प्रकार की स्मृतियाँ लिखवाई गयी। पुराण भी पुष्यमित्र शुंग ने ही लिखवाए। पुराण का अर्थ ही होता हैं नया ज्ञान।

इन्ही स्मृतियों के नाम पे झगड़े हैं, आप पढ़ ले तो आप भी लड़ पड़े। मनु महाराज धरती के आदि में हुवे उनका मनुस्मृति से कोई लेना देना नही हो सकता।

पुष्यमित्र की वजह से ही छुआछूत , जातिवाद,विकराल रूप से भारत मे फैला। वेद कौन पढ़ सकता हैं, क्षत्रीय ही शस्त्र रखेगा ,ये सब पुष्यमित्र की ही देन थी।

ऐसा नही होता तो महाभारत काल मे द्रोणाचार्य, कर्ण, एकलव्य, शस्त्र धारण ही न कर पाते।

मूल भारतीय शास्त्र उसे माना गया हैं जो वेद व्यास जी महाराज ने लिखा हैं जैसे गीता,वेद, उपनिषद, महाभारत आदि।

इन कुरीतियों का भारतीयों महापुरुषों ने विरोध भी किया, जैसे रुणेचा के बाबा रामदेव रामसा पीर ने ,राजपुत्र होते हुवे भी, मां जगदम्बा की मूर्ति उठा के मंदिर से बाहर फेंक दी जब कुछ लोगो को अछूत मान , मन्दिर में प्रवेश नही दिया गया। माता मीरा ने महान संत रैदास से शिक्षा प्राप्त की और आमजन में ही रहकर भक्ति की। इसी में नानक साहिब, भगवान बुद्ध, गुरु गोबिंद सिंह जी, विवेकानंद, संत पीपाजी, कबीर, तुलसी, पाबूजी, जाम्बोजी, व महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों  के कुछ नाम शामिल हैं।

ऐसे महान व्यक्तियों की एक लंबी सूची हैं जिन्होंने भेदभाव व कुरीतियों को समाज से मिटाने के लिए प्रयास किये।

पर कुछ लोगो ने अपने हित के लिए समाज मे दरार डाली रखी और समाज की कुरीतियों की मार्केटिंग कर कर के, आमजन को रोष से भर दिया। हर समाज को एक दूसरे से घृणा करना ही सिखाया।

जिसका परिणाम ये निकला कि भारत के लोगो का मनोबल ही गिर गया व कुछ भी ऐसा न रहा,जिसपे सम्पूर्ण भारतीय समाज गर्व कर सके।

आज भारत आज़ाद हुवे 70 साल से ऊपर हो गए। कोई छुआछूत अपने दिमाग मे रख सकता हैं, पर कानूनन वो जुर्म हैं। फिर भी समाज मे घृणा उतनी ही बरकरार कैसे हैं ?

या जो समाज अब मजबूत और समृद्ध हो चुका है, उसे दूसरे से बदला लेना हैं। ऐसा क्यों हैं, क्या डेमोक्रेसी में वोटबैंक ऐसे ही लुभाया जाता हैं? अगर ऐसा ही हैं, तो क्या ये लोकतंत्र की कमी नही हैं?क्या ये भारतीय समाज के लिए सही हैं?

भारत की मूल शिक्षा ,सदियों के अनुभव से जीवन में उतरी, उनमे से विशेष इस प्रकार हैं।

जैसा राजा वैसी ही प्रजा - आज संसार मे विद्यमान कोई भी राजनीतिक विचारधारा ,आदर्श रूप में नही आ सकती, जब तक इसका पालन न किया जाये।

वसुधैव कुटुम्बकम् - पूरा संसार एक परिवार हैं, सभी लोगो के साथ परिवार जैसा ही व्यवहार हो। इसको मान लिया जाए तो, एक देश अपने को बड़ा करने के लिए ,दूसरे देशों में वायरस, बीमारियां न फैलाएं।

मनुष्य की दो ही जाती होती हैं देव जैसा या दानव जैसा । जो स्वभाव अनुसार हैं। - भगवद गीता

परमात्मा जो सबके हृदय में विराजमान हैं उसको प्राप्त करने की क्रिया का संकलन ही शास्त्र हैं । - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज ;

बाकी ज्ञान ,पुस्तके सामाजिक हैं और वक़्त अनुसार उसमें बदलाव आवश्यक हैं।

जैसा व्यवहार आप अपने साथ नही चाहते, वैसा दूसरों के साथ न करे।

आदि आदि कुछ मुख्य बाते हैं।

हम ने सामाजिक परिवेश को ही धर्म मान लिया और कुछ सामाजिक किताबो के गुलाम होकर बेठ गये।

हम इतने मूर्ख हो गए कि सर्दियों के कपड़े ,गर्मियों में भी उतारना नही चाहते।

भारतीय ज्ञान के बारे में ये भी कहा गया कि इसमे मनुष्य को बांटा गया, जैसे

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शुद्र। पर ज्यादातर विरोध उन लोगों का हैं जिन्होंने सिर्फ सुना हैं या संस्कृत भाषा का गलत अनुवाद पढ़ा हैं।

जैसे अर्जुन के कहने पर की -हे केशव जिस कर्म को करने से आत्म साक्षात्कार होता हैं, वो क्या हैं।

कृष्ण कहते हैं - उस नियत कर्म( ध्यान की क्रिया) को, जिसे करने से आत्म साक्षात्कार होता हैं उसको वर्ण (भेद,प्रकार,गुण, रंग) के आधार पर मैने चार भागों में बांटा हैं।

पहला,  शुद्र( कलियुग, बैखरी) - इस अवस्था मे ध्यान कम लगता हैं क्योंकि प्रकर्ति का पलड़ा भारी होता हैं और ध्यान की पकड़ कम।

वैश्य ( द्वापर युग, मध्यमा) - इस अवस्था मे पाप और पुण्य भाव बराबर स्तथि में होते हैं।

क्षत्रिय ( त्रेतायुग, अपरा) - इसमे साधक में प्रकृति को काटने की, त्राण करने की क्षमता आ जाती है।

ब्राह्मण - ( सतयुग, परा) - इसमें साधक प्रकति के फंद से आज़ाद हो ,ब्रह्म के नजदीक होता हैं। इसमे सत्व की मात्रा होती है।

इसके बाद मोक्ष व कैवल्य पद हैं।

महाभारत में युधिस्ठिर ने ब्राह्मण की परिभाषा समझाई हैं,उसमें आप देख सकते हैं।

इसी तरह तुलसीदास जी को नारी और शूद्र के खिलाफ कहा जाता है।

वो नारी और शूद्र किसको मानते हैं, उसके लिए रामचरित मानस पूरी पढ़े।पर इतनी मेहनत आप करना नही चाहते, इससे आसान हैं नुक्ताचीनी करना।

कबीर ने कहा हैं - जो इस पद को अर्थ लगावे, वो पुरुष ,हम नारी।

जो प्रकृति में उलझा हैं वो नारी है और जो परमात्मा को प्राप्त कर चुका हैं वो नर या पुरुष कहलाता है। भगवान का भी एक नाम पुरुष हैं।

फिर ये जातियां ,उपजातियां क्यों थी? विज्ञान को आज जेनेटिकली रीसर्च करना हो तो क्या इंसानों को किन्ही नाम व सूची में बांधना नही पड़ेगा?

क्या ये एक्सेल शीट की तरह समाजो की डाटा शीट नही हैं। फिर भी यह विषय मे विज्ञान पर छोड़ देता हूँ। इस बारे में मेरी समझ अभी कम हैं।

कुछ लोग वाल्मीकि रामायण का उदाहरण भी देते है।

अब ये थोड़ा चर्चा और खोज का विषय हैं, क्योंकि भारतीय इतिहास में प्रथम बार शास्त्र को कागज पर उतारने का काम वेद व्यासजी ने किया था। और वाल्मीकि जी त्रेता युग मे हुवे।

दूसरा वाल्मीकि रामायण के दो भाग हैं। जिसमे पहले भाग में राम को पुरुषश्रेष्ठ माना गया। और ये रामचरितमानस से बहुत मिलता जुलता ही हैं। और पहले भाग की अंत की लिखावट में लगता हैं कि राम कथा पूर्ण हो चुकी हैं।

रामचरितमानस में भी राम जब अयोध्या से लौट आ ,राज संभालते हैं ,उतनी ही कथा हैं। सीता को धोबी के कहने पर निकाल देना जैसा कोई वाकया नही है।

वाल्मीकि रामायण के दूसरे भाग के बारे में कई लेखकों व इतिहासकारो का मत हैं कि यह एक ही लेखक की रचना नही है। आप खुद भी थोड़ा रिसर्च कर सकते हैं या दोनों को पढ़ समझ सकते हैं।

वाल्मीकि रामायण के दूसरे भाग में ही शम्बूक के बारे में बताया जाता हैं की शुद्र होकर वेद पढ़ने से राम ने उन्हें दंडित किया। ये बात गले इसलिए नही उतरती की माता सबरी भी शास्त्र ज्ञाता थी, वाल्मीकि जी स्वयं शास्त्र ज्ञाता थे, कथा अनुसार सीता उन्ही के कुटिया में रह ,भोजन पानी करती। निषादराज ने उन्ही के साथ गुरुकुल में वेद व शस्त्र शिक्षा लीऔर उससे भी बड़ा नाम जाबाला ऋषि थे जो दासी पुत्र थे व दसरथ जी के दरबार मे मंत्री थे, वो भी वेद विद्ववान थे। फिर उनके साथ राजा राम का आचरण दूसरा कैसे था।

यह सब सवाल हम पूछ नही पाते, हम डरते हैं कि किसी की भावना न आहत हो जाये, पर जो समाज मे रोष, घृणा पैदा करने का व्यापार कर रहा हैं, वो दिन रात अपनी सामग्री की मार्केटिंग करता रहता हैं।

कुछ आर्य, द्रविड़ का भी उदाहरण देते हैं। आर्य का विलोम हैं अनार्य।

भगवद गीता अनुसार आर्य वो हैं जो एक ईश्वर का उपासक हैं।

अब बताये क्या कृष्ण भी यूरोप से भारत आये थे। हां ये जरूर था कि कुछ भारतीय राजाओ का यूरोप तक साम्राज्य जरूर था, जिसे कभी आपको पढ़ाया नही गया।

द्रविड़ - जहां दो समुन्द्रों का मेल है उस जगह में रहने वाले लोगो को द्रविड़ कहा जाता हैं।

फिर ये झगड़ा प्रायोजित ठंग से किसने पैदा किया।

कुछ लोग तो महापुरुषों को गाली देकर ही अपने को बड़ा साबित करते हैं, इनमे कई हैं जो अपने को साधु कहते हैं, कुछ लेखक, मीडिया स्टार और बॉलीवुड के इंटेलेक्चुअल। राम को गाली दे ,वो अपने को राम से बड़ा करने की कोशिश करते हैं।

ऐसा नही हैं कि हमारे देश मे सब ठीक हैं या था। शिवाजी महाराज शक्ति सम्पन्न होते हुवे भी, अपने ही राजतिलक के लिए, उनको क्या क्या मुश्किलें उठानी पड़ी।पर यह मुश्किल सभी समाजो और देशों के साथ रही हैं।

अपने देश की बुराई करते वक़्त हम भूल जाते हैं की इंग्लैंड में सिर्फ 90 साल पहले तक औरत को वोट देने का अधिकार नही था। अमरीका और यूरोप में काले गोरे का कितना भेदभाव रहा हैं और कितना खून खराबा हुआ हैं। पर हमें बताया जाता हैं कि दूसरे की थाली में घी ज्यादा हैं। परिवार तंत्र न होने से कितने लोग अमरीका और यूरोप में मानसिक रोगों के शिकार हैं।

जर्मनी के कई वैज्ञानिकों की खोजो को सही होते हुवे भी खारिज कर दिया गया क्योंकि वो डार्विन की थ्योरी को गलत साबित कर रहे थी। ऐसी अथॉरिटीज ने भारत के ज्ञान के साथ क्या किया होगा। पेटेंट कर हर चीज को अपना बतानेवालो पर आप कितना भरोशा कर सकते हो।

यह भी सत्य है कि भारतीय समाज मे कुरीतियां न होती तो यह कभी गुलाम नही होता। पर इनमे सुधार की आवश्यकता हैं ,न कि समाज को आपस मे लड़ने की।

अपने घर में कचरा इक्कठा हो जाये तो आप उसे साफ करते हैं या गुस्से में आ, अपना घर छोड़ दूसरे घर मे चले जाते हैं,ये सोच कर की वहाँ कचरा नही होगा। अगले दिन फिर कचरा होगा और फिर सफाई करनी होगी। यही प्रकृति का नियम हैं। कचरा साफ करने की बजाय पालते रहेंगे तो आपके दिल दिमाग से दुर्गंध ही आयेगी।

ब्रिटिश राज ने ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका ,अफ्रीका के कई देशों की मूल प्रजाति का विनाश कर ,अपनी कॉलोनीज बना ली। आज ऑस्ट्रेलिया, अमरीका के मूल निवासियों का किसी को पता ही नही। यह सारे देश दूसरे इंग्लैंड बन गए। पर भारत पे 200 साल हुकूमत कर के भी यह संभव कैसे न हुआ?

7वी शताब्दी में अरब और भारतीय योद्धाओ में पहला मुकाबला हुआ, बैटल ऑफ राजस्थान , उसके बाद,400 साल तक वो भारत मे घुस क्यों नही पाये? जबकि इस बीच वो यूरोप, रुश के कई इलाके जीत चुके थे। टर्की,ईरान जैसे बड़े साम्राज्यों ने घुटने टेक दिए थे। भारत छठी शताब्दी से 18 वी शताब्दी तक भी कैसे अपनी सभ्यता को बचा पाया। यह निरंतर संघर्ष करनेवाले कौन थे?

वो कौन भारतीय राजा था, जिसका caspean सागर तक राज्य था। जिसको भारत का सिकंदर कहा गया?

राजा पोरस से लड़ने के बाद सिकंदर ,आगे क्यों नही बढ़ पाया।

टर्की में भारतीयों योद्धाओ की हज़ार साल पुरानी पेंटिंग कैसे बनी हुई है।

उज्बेकिस्तान के समरकंद में हज़ारो साल पुराना कृष्ण मंदिर क्यों मौजूद है।भारतीय राजा समरसेन का समरकन्द से क्या रिश्ता था।

राजा गज का गजनी से क्या रिश्ता हैं।

सीरिया में 1200 साल पुराना, इंडियन आर्किटेक्चर स्टाइल मोनुमेंट्स, जिसमें कमल के फूल बने हैं, जो उस इलाके में होते ही नही, कैसे मौजूद हैं?

इंडोनेशिया, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया में हज़ारो वर्ष पुराने भीमकाय मंदिर किसने बनवाये थे?

ईरानी, यहूदी व अन्य कईयों को भारत मे ही शरण क्यों मिल पायी? इजरायल भारतं को अपनी पितृ भूमि क्यों मानता है?

वो जस्सा सिंह अहलूवालिया कौन थे, जिन्होंने अहमद शाह अब्दाली की नाक काट डाली थी व उसको लाहौर से हटा,अफगानिस्तान तक समेट दिया ?

आपको सिर्फ वो युद्ध ही क्यों याद है जो भारतीय योद्धाओ ने हारे थे ?

महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के बाद कितने युद्ध लड़े व जीते, आपको क्यों नहीं पता ?

इतनी अलग भाषा और वेशभूषा होते हुवे भी आजतक भारत का अस्तित्व क्यों हैं ?

शिव कैलाश में हैं, टॉप नार्थ यानी कि आर्य फिर उनको पूजने वाले सबसे ज्यादा साउथ में क्यों, यानी द्रविड़ है ?

कपिल मुनि को ध्याने गंगासागर ( बंगाल)तक राजस्थानी आदमी क्यों चला जाता हैं।?

जम्मू में बैठा आदमी भी गंगा में अस्थियां विसर्जित क्यों करने आता है?

भारतीय राजाओ के जब आपस मे युद्ध होते थे ,तो युद्ध जितने वाला राजा के आम जनता पर अत्याचार के किस्से क्यों नही मिलते या ना के बराबर हैं। हम ही नही,विदेशी इतिहासकारो ने भी ऐसा नही पाया।

संगीत, नृत्य, नाटय, व्यायाम( जिम इक्विपमेंट), योग, ध्यान, ओषधी विज्ञान इन सब के प्राचीन शास्त्र हमारे पास है ,जब कि हमारे हज़ारो पुस्तकालय जला दिए गए।

शौर्य, तेज, धैर्य, दान, ईश्वरीय भाव व त्याग को भारतीय संस्कृति में इतना महत्व क्यों दिया जाता हैं?

ऐसे सेंकडो सवाल हैं जिसका जवाब ढूंढने निकलोगे तो आपको भारत की आत्मा के दर्शन होंगे।

आपको भारतीय होने पर गर्व होगा।

हर देश कभी कमजोर तो कभी मजबूत रहा है। यह उत्थान,पतन चलता ही रहता हैं। जब पतन हो तो ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता हैं। अपने देश के साथ खड़े रहने की आवश्यकता हैं।

जिनसे आधार व संदर्भ लिया गया

यथार्थ गीता - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज

अमृतवाणी - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज।

डर

डर, ये वो शब्द हैं जिसका आपके जीवन से गहरा नाता हैं। पर इसकी क्या उपयोगिता हैं और असल में ये है क्या?

डर अचानक से कुछ हुई क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं। इसमे अचानक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है।

जैसे अचानक से आपका पैर फिसल जाये और आप संभल जाये।

जैसे एक सांड आपकी तरफ दौड़ता हुआ आये और आप एक दीवार फांद जाये।

या अचानक कोई पीछे आ, जोर से चिल्लाए

इसमें डर तीव्र निर्णय लेने में मदद करता हैं और आपकी सीमाये, दायरे भी बढ़ाता हैं। इसमें बुद्धि ही डर की, क्रिया या भावना, और अनेक क्रिया या भावना के साथ पैदा करती हैं। यह आपकी सुरक्षा के लिए बुद्धि या सम्पूर्ण शरीर की प्रतिक्रिया होती हैं। स्वयं आप विचार कर, सोच कर इसे पैदा नहीं करते।

इसके अलावा डर आपके जीवन में नहीं होना चाहिए क्योंकि व उपयोगी न होकर आपकी क्षमताओं का नुकसान ही करता हैं

आज के संदर्भ में कोरोना महामारी का ही उदाहरण ले लीजिए, अगर आप ज्यादा चिंता करते हैं और आप मे भय पैदा होता है तो प्रथम, डर आपके इम्यून सिस्टम, रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही कम कर देता हैं जो इस महामारी से लड़ने के लिए पहली आवश्यकता है ।

बीमारी से बचने के लिए जरूरी नियमों का पालन करना समझदारी हैं पर डर की इसमें कोई उपयोगिता नहीं हैं।

अगर डर ही आपको नियम पालन करने के लिए मजबूर करता हैं तो आपको अत्यधिक विकास की आवश्यकता हैं, मानव जीवन का इतना नीचा स्तर नही होना चाहिये।

पहली गलती ये हैं कि हम डर और चिंता को सीधा ईमानदारी से नही देखते। हम ये नही कहते कि - हां, मुझमे सौ तरह के डर हैं पर अब इससे निजात कैसे पाये।

हम सीधा सामना न कर , सौ तरह से बहाने बनाते हैं जैसे कि - ,मुझे डर तो नही लगता बस एक फिक्र है कि कल मुझे कुछ हो गया तो, ये अटके हुवे अधूरे काम कौन पूरे करेगा और पूरा भार परिवार, बच्चों पर आ जायेगा।

पर जब आप इतिहास में भी देखते हैं तो हमारा कर्तव्य बस इतना हैं कि हम बस अपना कर्म करें और फल की चिंता न करें। जैसे महाराणा प्रताप का सपना चित्तौड़ को पुनः हासिल करने का था , जीवन भर युद्ध के बाद नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन्होंने जीत लिया पर बस चित्तौड़ का किला न जीत पाये। आपको क्या लगता हैं, महाराणा जब देवलोक हुए होंगे तो क्या उन्हें अफसोस रहा होगा। नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्य के लिए जीवन भर संघर्ष किया, वो यही कर सकते थे। बाकी होनहार के हाथ।

पर प्रताप की मृत्यु के कुछ सालों बाद तक ,उनके पुत्र अमर सिंह जी ने संघर्ष रत रह चित्तौड़ का किला पुनः प्राप्त कर लिया।

जब आप यह बात समझ जाते हैं कि डर या चिंता करने की बजाय बस जरूरी कर्म पे ही हमारा अधिकार हैं, फल हमारी इच्छा अनुरूप या उससे अलग भी हो सकता हैं तो लक्ष्य प्राप्ति के पहले के रास्ते भी शांति युक्त ,एक ठहराव युक्त होते हैं और आप रास्ते का भी आनंद ले पाते हैं। मंजिल तक न भी पहुंचे तो भी जीवन अभाव युक्त नहीं होगा।

आप एक बात अभी तक और समझ पाये तो वो ये की बिना चिंता किये ,डर पैदा नहीं होता। चिंता से ही हम डर को पैदा करते हैं ,वो स्वाभाविक शरीर की रक्षात्मक क्रिया नहीं हैं, सो अस्वाभाविक हैं और आपके लिए नुकसानदेह हैं।

हकलाना सिर्फ डर की वजह से होता हैं, जो ये समझ लेता हैं, ऐसे कई बचपन से हकलाने वालो की भी ये परेशानी दूर हो गयी।

आप भूत से तभी डरते हैं जब कभी रात में उसके संबंध में विचार आ जाये।

सोचिए आपके डर ने आपको कितने पसंदीदा काम करने से रोका हैं।

डर का सीधा सामना न करने से, उसे न समझने से आप घुमावदार रास्ता या शॉर्टकट लेते हैं और अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते।

सोचो पुराने योद्धा या अभी के देश के रक्षक डरपोक हो तो क्या हो।

सोचिए आपके डर ने आपकी क्षमताओं को कितना बांध रखा हैं।

कुछ लोग मृत्यु से भी डरते हैं, पर क्या आप नहीं जानते उसे टाला नहीं जा सकता वो निश्चित हैं फिर भागना कहा।

हमारे सारे शास्त्र कहते हैं कि अकाल मृत्यु नाम की कोई बात नहीं होती, मृत्यु भी वक़्त अनुसार निश्चित होती हैं। फिर कोई तीस में ,तो कोई अस्सी में।

क्या आपको नहीं लगता कि जीवन मे कई ऐसे मौके आते हैं तब आपको जीवन की फिक्र नहीं होती या नहीं करनी चाहिए। तब आवश्यक कर्म करना चाहिए भले प्राण न रहे। क्या ऐसे मौके ही आप में प्रेम का सृजन नहीं करते ?

क्या आपने कभी महसूस नहीं किया कि जब आप प्रेम में होते हैं तो निर्भय होते हैं।

जो व्यक्ति अत्यधिक भययुक्त होता हैं वो खुद को भी नहीं संभाल सकता। ऐसे व्यक्ति के मुंह से, देश प्रेम, समाज सेवा, परोपकार, दूसरों की मदद, या खुद के सपने पूरे करना, ये सब बातें बेमानी नहीं हो जाती।

आप मे कैसे कैसे डर होते हैं, मरने का डर, नौकरी जाने का डर, शादी न होने का डर, बालों के उड़ जाने का डर, बुढ़ापे का डर, प्यार खो जाने का डर, कल क्या होगा का डर, लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसका डर, इज्जत, सम्मान खो जाने का डर, औरों से पीछे रह जाने का डर, लड़ाई झगड़े का डर , अकेले रह जाने का डर आदि आदि

जब आप डरपोक होते हैं तो अत्यधिक स्वार्थी हो जाते हैं, आप खुद को बचाने के लिए ,दूसरे मरे तो भी आपको ज्यादा फर्क न पड़ेगा।

डर आपकी समझदारी को भी कमजोर या खत्म कर देता हैं।

प्रेम में आप दूसरे के लिए त्याग कर जाते हैं।

प्रेम विचारों से पैदा नहीं होता और भय विचारों से ही पैदा होता हैं।

तो फिर डर को दूर कैसे किया जाये, क्या तरीका हैं।

यकीन मानिये कोई तरीका नहीं हैं , जितने तरीके आजमाएंगे उलझते जायेंगे।

आपकी जो भी परेशानी हैं जो चिंता का कारण है उसको सप्ताह में या दिन में कुछ तय वक़्त, जितना जरूरी हो, जैसे दिन में एक या दो घंटे दे दीजिए. बाकी बचा वक़्त मस्ती में, शांति में गुजारिए. बचे वक़्त में भूल जाएं कि कोई परेशानी हैं. बर्बाद भी हो जाएंगे तो भी बचे वक़्त में उन विचारों या भावो से दूर रहे.

कोई परेशानी जैसे कोर्ट केस, बीमारी, पुलिस का चक्कर या अन्य कोई, इनको सुलझने में सालो लग सकते हैं. तब तक क्या परेशान ही रहना चाहिए?

रिजल्ट जो भी आए परेशानी का, वो आपके हाथ मे न हो शायद. सो फिक्र न करें. इसी तरह बैलेंस रखे.

बस जब आप जागरुक होते है ,आप अपने ऊपर ध्यान देते हैं कि कब आप व्यर्थ ही डर रहे हैं, चिंता कर रहे हैं, जिसका कोई फायदा नहीं ,उलटा आप कमजोर हो रहे हैं और आपको देख आपके साथ वाले भी।।

ये समझ जितनी बढ़ेगी , तब आप देखेंगे कितने व्यर्थ डर ,झूठे डर आपको घेरे हुए, बांधे हुए थे जो आपको ठीक ढंग से सांस भी नहीं लेने दे रहे थे।


भोग


यहां जो बात हो रही है वो सिर्फ उन लोगों के लिए है जो आध्यात्मिकता के विचारों में उलझे है। जो इसमें नहीं उलझे उनके लिए यह बात ठीक नहीं बैठेगी। वो ना ही पढ़े तो बेहतर है नहीं तो अर्थ का अनर्थ ही निकलेगा।



शंकराचार्य के बारे में कहते हैं कि छह बरस की उम्र में ही सन्यासी हो गए। नि :संदेह उनकी पूर्व जन्म की साधना रही होगी। उनके लिए संसार भोग में कोई रुचि संभव ही न हो। उनको रस ही ध्यान अवस्था में मिलता हो।



लेकिन अभी जो युवा हैं वो नकल कर रहा हैं उनकी, उसकी कोई साधना ही नहीं। वो उदासीन होके बैठा है। आधी दुनिया को समझने की, देखने की ,जानने की रुचि ही नहीं। उसने अपने मन में गलत सही बांट रखा हैं।

अपने आप को वीतरागी समझ रहा है क्योंकि नारी की तरफ नज़र नहीं और नशा वो करता नहीं। उसके अनुसार वो अच्छे मार्ग पर हैं। उसे लगता है वो कामी और भोगी नहीं।

पर महापुरुषों का कथन है जीवन मे कुछ भी त्याग करने की जरूरत नहीं बस ध्यान पकड़ लीजिए. जैसे जैसे ध्यान बढ़ेगा, जो बेकार हैं स्वतः ही पीछे रह ही जायेगा.

जिसको लगता है वो भोगी नहीं, कामी नहीं वो नकल मात्रा ही कर रहा हैं। भोग और कामनाएं रहती है है जब तक कैवल्य की प्राप्ति न हो। जैसे

मोबाइल में समय देना मोबाइल का भोग हैं। स्वादिष्ट खाने का सुख भी भोग हैं। टीवी से मनोरंजन करना भी भोग है।  

अच्छे कपड़े पहनना भी भोग है। यहां तक कि तैरने का आनंद लेना भी भोग है आदि आदि। पर हमें ये भोग नहीं लगते। क्योंकि इसमें कोई दूसरा आप पे उंगली नही उठा सकता कि आप गलत हो। हमें सिर्फ स्त्री से अच्छी बातें करना, सिर्फ दोस्ती रखना भी भोग नहीं लगता। बस हम बिस्तर होना ही भोग लगता हैं। भगवान की कामना भी कामना नहीं लगती।



लेख का अर्थ बिल्कुल भी नहीं की आप लंगोट से ढीले और नशेड़ी हो जाए। बात है सिर्फ धुंध हटाने की, साफ देखने की।

इंसान को संयमित होना ही चाहिए। वो senses ( इन्द्रिय) का स्वामी हैं, गुलाम नहीं। यह बल उसे विकसित करना ही चाहिए। नहीं तो एक गुलाबजामुन भी डायबिटीज वाले को मार गिराता हैं।

पर साफ देखना जरूरी है न कि अपने को धोखे में रखना।

अपनी कोई भी हरकत ,दूसरे के दुख का कारण न बने, इतनी समझ तो होनी ही चाहिए। लेकिन जब जिंदगी हँस के मिले, आपके साथ में नाचने गाने आये तब हृदय के दरवाजे व आंखें बंद न कीजिये।



बस इतना ही। । ।