बुधवार, 7 अप्रैल 2021

दुःख

 19 साल की रचना शाम को छत पे टहल रही थी।


उसके चेहरे पे ना कोई खुशी थी, ना ही कोई और भाव।


मुरझाया सा चेहरा, सूखा सा बदन। 


कोई खोल ओढ़े रूठी सी जिंदगी, सूखी लड़की सी जैसे चली जा रही हो।


सामने की छत पर भैया भी टहल रहे हैं, बचपन से रचना उन्हें जानती हैं।


पर भैया कम ही दिखते हैं, कभी शहर के बाहर, कभी आफिस , सालों में कभी कभार ही दिखते हैं।


भैया को देख के हलकी सी खुशी रचना को महसूस हुई ही थी कि उसकी माँ की आवाज़ आयी।


जोर से चिल्लाते हुवे -" क्या इधर उधर देख रही हैं रांड, दिन भर फ़ोन पे लगी रहती हैं, अंदर जा"


भैया जो छत पे टहल रहे थे,उनकी नज़र रचना और उसकी मां पे गयी।


रचना ने एक पल भैया को देखा और फिर अपनी माँ को देख कर रोते हुवे चीख के साथ बोली -" तू हैं रांड, तेरी वजह से मेरी और सबकी जिंदगियां खराब हो गयी।


परेशान और झल्लाते हुवे रचना छत पे बने कमरे के अंदर चली गयी।


पीछे पीछे उसकी मां भी गालियां निकालते हुवे आयी।


रचना आँखे बंद कर पलंग पे सो गयी, उसे पता था अब माँ की बकबक आधे घंटे तो चलेगी ही।


वो कैसी थी और अब क्या हो गयी। कभी उसकी जिंदगी में भी खुशियां थी, प्यार था।


एक रील की तरह पुरानी जिंदगी उसके सामने चलने लगी।


चार पांच साल की रचना पापा की गोद मे खेल रही हैं।


पापा की दाढ़ी रचना को परेशान कर रही हैं।


पापा का प्यार, उनका आलिंगन ,उनकी बातें, रचना की दुनिया बहुत खूबसूरत थी।


वो अब स्कूल जाने लगी थी, पापा उसे छोड़ आते तो उसको बड़ा अच्छा लगता। मां तो जब भी आती बड़बड़ाती रहती ,जल्दी जल्दी चलाती, उसका हाथ भी खेंचती, गोदी भी नही लेती थी।


पापा की भी एक बुरी आदत थी, वो दारू बहुत पीते थे। पर मुझे वो हमेशा अच्छे ही लगे, कभी उन्होंने मुझे डांटा नही, मारा नही।


पीने के बाद उनके चेहरे पे हलकी मुस्कान और शान्ति सी रहती थी।


पापा जब भी पिके आते, मां झगड़ा करने पे उतारू रहती।


कहती -मूत पीके आ गए।


पापा कुछ ना कहते, मुझे गोद मे उठा खेलने लग जाते।


मां की बड़बड़ाहट चलती रहती।


माँ -तीन तीन बेटियां हैं ,तुम मूत पीके मस्त रहो, उनकी शादियां करवानी हैं, कल बड़ी हो जायेगी। पागल आदमी।।।


पापा बस सुनते रहते, कुछ ना कहते। बहुत ज्यादा होता तब ही कभी कभार बोलते


पापा - मेरे साथ चल, तेरे दिमाग का इलाज हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा, कितनी बार कहा है मैने। 


माँ- तू अपनी दारू का इलाज करवा, रोज मूत पीके आ जाता हैं।


आस पड़ोस के लोग कहते रहते हैं कि हमारे घर मे झगड़े बहुत होते हैं, हमारा घर का माहौल खुशनुमा नही हैं।


पर मुझे ये सब ना दिखता था, तीनो बहनों में पापा सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते थे। मेरी दुनिया बहुत खुशनुमा थी।


धीरे धीरे हम बहने बड़ी हो रही थी और मां की जबान और खराब।


मां दिन में पांच बार नहाती थी, वो सनकी होने लगी, बाहर से जब भी घर मे आती नहाने लग जाती। चिल्ला चिल्ला के मां सूख के कांटा हो रही थी।


पापा रोडवेज में थे, सरकारी नौकरी थी। अच्छे पैसे कमाये, घर के बाहर पांच दुकाने बनवा दी थी। पापा की भी तनख्वाह बढ़ गयी थी।


लाख सवा लाख रुपया घर मे आने लगा।


एक एक कर दोनों बहनों की शादी अच्छे घर मे करवा दी।


पर मां का स्वभाव न बदला था।


कुछ पैसो की उधारी हो गयी थी इसलिए पापा अब बार बार बाहर का टूर लेते थे। उसमे उनकी ज्यादा कमाई होती थी। घर कम ही आते थे।


मां को जैसे लड़ने और बोलने की आदत हो गयी थी।पापा ना होते तो मुझसे ही लड़ पड़ती।


महीने में एक दो बार पापा आते तो उनसे उलझ पड़ती।


पापा मुझे कहते- बस बेटा एक बार तू इस घर से निकल जाए, तुझे अच्छा घर मिले। फिर मुझे कोई फिक्र ना रहेगी। तेरी मां का स्वभाव ऐसा ही बन गया है, तू दिल पे ना लिया कर।


पर में तो शादी ही नही करना चाहती थी। मां पापा को देखा था, उनकी शादी में कुछ भी तो न अच्छा था। इससे अच्छा तो वो अकेले अकेले खुश रहते।


पापा की वजह से मेरी जिंदगी में प्यार था नही तो क्या हैं मेरी जिंदगी।


मैंने सोच रखा था, मै शादी कभी नही करूँगी और हमेशा पापा के साथ ही रहूँगी। इसके लिए मां की बक बक भी सहन कर लूंगी।


पापा के कोई बेटा नही हुआ तो क्या ,मै बेटे का फर्ज निभाऊंगी।


मै 17 साल की हो गयी थी और पापा मेरे अठारह होने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि मेरी शादी करवा सके।


पापा चाहते थे की मै आगे की पढ़ाई भी ससुराल जाके करूँ ताकि इस वातावरण दूर रहूँ। वो नही चाहते थे मेरी जिंदगी में जहर घुल जाये।


पर पापा के साथ मेरी जिंदगी प्यार से भरपूर थी।


मैं अक्सर सोचती थी, बाप को छोड बेटियां कैसे किसी के साथ भाग जाती हैं।


मेरे लिए तो प्यार का अर्थ ही पापा थे।


एक दिन जब, मेरे 18 होने में सिर्फ तीन दिन बाकी थे, पापा कुछ लोगो को घर लाये। वो सब मुझे देखने आए थे।


मुझे पापा पे बड़ा गुस्सा आया, वो मुझे खुद से दूर करना चाह रहे थे।


सब कुछ ठीक चल रहा था, मां कुछ देर तो शांत रही, फिर उनकी लड़ाई शुरू हो गयी।


मां मेहमानों के सामने भी चुप न रही। मेहमान उठ के चल दिये।


पापा का चेहरा लाल और हताश हो गया था।


बड़ी धीमी आवाज़ में वो मां से बोले।


पापा- बावली कितने अच्छे घर से रिश्ता आया था, लड़का भी कितना सुंदर था। हमारी बच्ची को देख रखा था, बच्ची की सुंदरता की वजह से कोई मांग भी न थी। तूने सब खराब कर दिया।


पापा की रात की ड्यूटी थी, रोडवेज़ में कंडक्टर थे।


सुबह वो घर आये, पर लोगो ने बताया ये उनकी लाश हैं। रात को इन्होंने ज्यादा पी ली थी। दरवाजे पे खड़े थे और चलती गाड़ी में बाहर की तरफ गिर गए थे।


मैं सूनी हो चुकी थी मुझे भगवान पे यकीन था, अच्छाई पे यकीन था, जीवन पे यकीन था।


पर एक भीड़ आयी और पापा को जला के चली गयी।


पापा ने नौकरी में मुझे नॉमिनी बना रखा था।


वो सरकारी नौकरी मुझे मिल गयी।


आज पैसो की कमीं नही हैं पर में इसी घर मे रहना चाहती हूं । मेरे पापा के पास। मां मेरी शादी करवाना चाहती हैं पर मै सिर्फ उनके मरने का इंतज़ार करती हूं।


इस घर को छोड़ में कहीं नही जाऊंगी। 


अब लोग मुझे भी सनकी और पागल कहने लगे हैं।

धापू

 सांझ ढलने को हैं, धापू ईंटो के चूल्हे पे सब्जी पका रही है। हीरा और ससुरजी के आने का समय है। हाथ मुँह धोते ही खाना मांगेंगे, दिन भर की मजदूरी थका भी तो देती है। तभी पपिया दौड़ते हुये आता हैं, माई "बापू" आ गया। धापू के चेहरे पर मुस्कान बिखर जाती है। हीरा के साथ पपिया भी हाथ मुँह धोने लग जाता हैं।


बापू में आपके साथ मजदूरी करने कब चलूंगा। बेटा अभी तू पांच का ही हुआ है, अब तुझे स्कूल भेजेंगे। अच्छे से पढ़ाई करनी हैं। जब तू आठ का हो जाये, तब सेठजी हां करेंगे, तो छुट्टियों में दो महीने कुछ ईंटे तू भी उठा लेना। तब तक तेरे हाथ पैर भी मजबूत हो जाएंगे। पपिया बड़ा खुश हो जाता हैं। हां बापू मैं जल्दी आठ का हो जाऊंगा। चल अभी खाना खाले।


धापू खाना परोसते हुये - आज बापूजी के साथ नहीं बैठे सा, सीधा इधर आ गए। सब गांव वाले क्या सोचेंगे।


अब गांव तो ये हैं नहीं, दस महीने पहले तुझे साथ ले आया, इन टेंटो में सोती हो, खुले प्लाटिक के टेंट हैं। अब तो तेरा नौ महीने का पेट भी हैं। गांव में ही रहती तो काकी ,दादी थोड़ा ध्यान भी रख लेती तेरा।


'जहाँ आप हो वही में खुश हूं सा। अकेली गांव में पड़ी रहती तो जी न लगता। इतनी बड़ी पट्टियां, ईंटे ,पत्थर उठाते हो, कितना जोखिम का काम हैं। '


'पन्नू बा पिछले साल कैसे... '


'अरे तू अच्छी बातें सोचा कर, सांवरो आपणो भली करसी। '


अच्छी खबर सुन।


क्या सा?


मैं सोच रहा था अब तेरा नवा लग गया, गांव जाने की सोच रहा था। पर सेठजी छुट्टी देंगे कि नहीं ,डरा हुआ था। पर सेठजी ने छुट्टी भी दी और गांव जाने का किराया भी दिया हैं और कहा है दो ,तीन महीने काम बंद रह सकता हैं फिर बुला लेंगे।


क्यों सा?


पता नहीं कोई बीमारी फैली हैं। सरकार के आदेश हैं। अब तो छह महीने बाद ही आएंगे। आगे सावण हैं, इस बार देखना जमाना अच्छा होगा।


केसी बीमारी हीरा?


अरे धापू ,हम मजूरों को क्यों डरना। तू बता कितने साल पहले बीमार पड़े, याद ही नहीं। न लू लगती हैं, ना गर्म सर्द होता हैं, ना ही ताव आया। बस शरीर टूटता हैं, सात घंटे की नींद और फिर तैयार। डर तो धापू चोर, लुटेरों से लगता हैं, बचाया , कमाया पैसा लूट न जाये। बीमारी तो इन साहब लोगो को होती हैं, एक बार कुर्सी पे बैठे तो आठ घंटे जैसे चिपक से गये। पता नहीं इतना कैसे बैठ पाते हैं? हम तो कल सुबह गांव निकल लेंगे। सुना है बसों में भीड़ हो जायेगी, सुबह जल्दी चलेंगे। सोते वक्त हीरा के चेहरे पर सुकून था, बिना मांगे छुट्टी मिल गयी।


सुबह कब हुई पता भी न चला, हीरा के बापूजी ही उठाने आये। दूर से ही आवाज़ देते रहे।


कब तक पड़ा रहेगा, पिके सोया है क्या? सब निकल लिये, फिर हमें कौन सी बस मिलेगी। पपिया की आँख खुल गयी, बापू को उठाया। धापू भी उठ के चाय बनाने लगी। बापूजी पता ही न चला , काम पे जाना न था तो लापरवाह हो सो गया शायद।


अब जल्दी से सामान बांध लें, जो जरूरी ना हो वो यही रहने दे।


हीरा जल्दी जल्दी सारा सामान समेटने लगा, ज्यादा कुछ न था फिर भी कपड़े और जरूरी सामान से चार ढेरियां बंध गयी।


हीरा पिला टेंट उतार समेटने लगा। अरे पड़े रहने दे इसको।


नहीं बापूजी साढ़े छह सौ रुपये लगे थे।


अच्छा, चल बांध लें।


धापू के ऊपर अब कोई छत न थी। उसकी चाय तैयार थी।


अरे हीरा चाय वाय रहने दे।


बन गयी बापूजी।


अच्छा ,तो ले आ।


बापूजी काका नहीं दिख रहे।


सब के सब आपे तापे हैं। अपना अपना बिस्तर उठा चल दिये। ये भी ना सोचा बीनणी पेट से हैं।


थोड़ा साथ रहते तो अच्छा था, लुगाई के साथ इस टेम एक लुगाई रेवे तो अच्छा होता।


हां "जी सा"


चाय ख़तम हुई थी कि मगजी ( हीरा के काका) और काकी दौड़ते से आये।


गजब हो रहा हैं, गजब हो रहा हैं, बिना सांस लिए मगजी बोला।


क्या हुआ मग्गू?


भाई सा सुबह जल्दी बस स्टैंड गये थे, बहुत भीड़ जमा हो गई। पर सरकार ने बस ,रेल सब रुकवा दी। लोगो ने हो हल्ला किया तो पूरी फौज आ गयी पुलिस वालों की, डंडे मारने लगी। सब भागने लगे, हम भी भाग आये। अब क्या करेंगे।


अच्छा, अब क्या करेंगे। काका सुबह अकेले निकल लिए तब हमसे पूछा था क्या?


अरे हीरा हमें लगा तुम आओगे जब तक बीनणी के लिए एक सीट भी रोक लेंगे।


अब लड़ो मत। बाकी गांव के छोरे भी तो थे, वो कहां हैं।


हेमिये से पूछा था, बोला रहा तो हाईवे से ट्रक पकड़ेंगे। अहमदाबाद से बियावर ट्रक चलते ही रहते हैं।


पर सुना हैं ट्रक भी सरकार रुकवा रही हैं और देख पूछ भेज रही हैं।


तो क्या करे मग्गू?


सरकार कह रही हैं ,जहां हो वही रुको नहीं तो बीमारी फैलेगी। कुछ लोग तो कह रहे हैं छह महीने भी लग सकते हैं।


अरे काका, क्या बावली बात हैं।


छह महीने यहाँ रुके तो जमा किया सब ख़र्च हो जाएगा। सब्जी तेल सब महंगा हैं यहां। काम भी बंद हैं। गांव ना निकले तो चौमासे में बीज के पैसे भी ना बचेंगे, खेती कैसे करेंगे। बर्बाद हो जायेंगे, भूखे मरने की हालत हो जायेगी।


जमीनों पर तो चौधरियों की नज़रे गड़ी ही रहती हैं।


अच्छा दाम दिया तो, मजबूरी में आधा गांव जमीन बेच देगा। अरे कोई ठिकाना, ठौर तो रहे बुढ़ापा बिताने के लिए। यूं शहर शहर जिंदगी भर मजदूरी थोड़ी करते रहेंगे।


हां बेटा, सही कह रहा हैं ,पर क्या करें।


बापूजी मुझे लगता हैं गांव तो जाना ही पड़ेगा। लगभग तीन सौ कोस होगा।


थोड़ा पैदल चलेंगे और हाइवे के आसपास ही चलते रहेंगे , दो पैसे दे कोई ट्रक बिठायेगा तो बैठ जायेंगे। नाकाबंदी से पहले उत्तर जायेंगे। फिर थोड़ा पैदल।


जोड़ तोड़ कर निकल जाएंगे बापूजी।


ठीक है हीरा, पर बहू...


बापूजी रात को धीरे धीरे चलेंगे, हमें कौन सी जल्दी हैं। रात को धूप भी नहीं होगी और पुलिस भी.. काका टेंट बांध लो, मौसम बिगड़ा तो...


हां बेटा हीरा


और कुछ खाने का सामान ज्यादा खरीद लेते हैं लालाजी से, माचीस, तेल सब ले लेते हैं। बाकी तो हाइवे पे भी ढाबे तो होते ही कुछ जुगाड हो जायेगा।


हां मग्गू ,सही हैं।


हीरा कुछ बांस के लट्ठ इक्कठे करने लगा। पपिया बापू को आंखों में सवाल लिए देख रहा था।


पपिया ये बांस, टेंट लगाने में काम आएंगे, रास्ते मे जानवर ,कुत्ते भी होते हैं और चलने में भी साथ देंगे। तू भी अपने हिसाब से ले ले।


पपिया खुशी से अपनी लकड़ी तलाश करने लग पड़ता हैं।


हीरा धापू के पास जा पूछता हैं। चल लोगी क्या?


हां सा, धीरे धीरे चल लूंगी, कल से कभी कभी दर्द आ रहे हैं। रास्ते मे कुछ हो गया तो...


तो धापू ,काकी साथ हैं ना, हम सब भी हैं। और ज्यादा कुछ लगा तो सरकारी अस्पताल तो होंगे ही। जो नज़दीक होगा उस तरफ चल लेंगे।


नहीं सा, सरकारी अस्पताल अच्छे नहीं लगते मुझे। हमारे गांव ही हो तो अच्छा हैं। अस्पताल में एक तो कितनी गंदगी होती हैं। दूसरा वहां लोगो को देख ऐसा लगता हैं जैसे हम छोटे, गरीब और अनपढ़ लोग हैं।


हमारे गांव में ऐसा लगता हैं जैसे दुनिया हमारी हैं और हममे कोई कमी नहीं हैं। साफ हवा, सुंदर गांव और मोरों की आवाज़...


हां धापू, थोड़ा पैसा इक्कठा हो जाये और ट्यूबवेल खुदवा ले तो मजदूरी की जरूरत न रहे। कुएँ तो अब सूखे हुये है। गांव में भी स्कूल आ गयी हैं, बच्चे वहाँ पढ़ लेंगे, आगे कुछ अच्छा कर लेंगे।


एक दो साल बस और...फिर सब ठीक हो जाएगा। रात होते ही धापू अपनी डंडी पकड़ चलने लगी, हीरा ने उसके हिसाब से चुनी थी। धापू को लकड़ी काफी सहारा दे रही थी। सारा सामान हीरा ने उठा लिया ताकी धापू के पास कुछ ना रहे। पपीये ने एक छोटी गठरी उठा रखी थी वो मां के साथ मटक मटक के चल रहा था।


मां मेरे बहन होगी ना।


तुझे क्या चाहिए, बहन या भाई।


मुझे तो बहन चाहिये।


ठीक हैं फिर लाडो ही होगी। सुन पपिया खुशी के साथ और मस्ती से चलने लगा।


धापू कुछ तकलीफ़ तो महसूस कर रही थी पर हिम्मत हारने से काम कैसे चलेगा। शुरु शुरु में उसने भी मजदूरी की थी, बिस बिस किलो का भार ले कितनी बार बिल्डिंग में चढ़ती उतरती थी। दस माले की बनी थी वो बिल्डिंग। कभी पैर ना टूटते थे। अब पैर कैसे भारी हुये जा रहे हैं। सोचते सोचते तीन कोस निकल गए। शहर से बाहर आ गए। हाईवे की लंबी चौड़ी सुनसान सी सड़के, साफ आसमान और पूरा चांद ,हवा में भी ठंडक। आसपास कहीं बिन मौसम बरसात हुई है।


बापूजी अब कोई पुलिस तो दिख नहीं रही, कोई ट्रक आता हैं तो रुकवाते हैं।


आओ काका।


कुछ देर बाद हीरा एक ट्रक वाले को मना लेता हैं। पूरा परिवार ट्रक में बैठ निकल जाता हैं।


काकी ट्रक ना मिलता तो अब न चला जाता। मैं तो मर ही जाती। मुझे लगता हैं टेम नजदीक हैं।


अब डरने की के बात है धापू। तेरे हीरा ने ट्रक कर ही लिया। डेढ़ सौ रुपये हर जने के लिए हैं, पर कोई नहीं जल्दी पहुंच जायेंगे। पर पुलिस कहीं दिखी तो ट्रक वाला पहले ही उतार देगा।


बात सुनते सुनते ही धापू की आँख लग गयी।


बढ़िया सड़क पर ट्रक एक गति में बिना हिले डुले ,कम आवाज़ किये हुये चल रहा था। दो घंटे कब निकल गए पता ही न चला।


तभी तेज़ ब्रेक लगने से सबकी आँख खुल गयी।


उतरो उतरो आगे पुलिस की चेकिंग हैं।


सब सामान इकट्ठा कर पूरा परिवार हाईवे से नीचे उतर गया।


आधी नींद में पपिया और धापू चल रहे थे।


धीरे धीरे चलते हुये सुबह निकल आयी।


बापूजी कोई गांव ही लगता हैं। यहां अब आराम कर लेते हैं। पुलिस भी दिख नहीं रही। सब थक गए हैं।


धापू पेड़ की छांव में बेसुध सी लेट गयी। काकी खाना बनाने लगी। तीन चार पत्थर लगा, चूल्हा बना लिया, कुछ लकड़ियां इक्कठी कर अपने बर्तन में चावल उबालने लगी।


उठ धापू उठ ,खाना खाले।


अरे धापू तुझे तो बुखार हैं।


काकी पैरो में गीला गिला लग रहा हैं, एक दो दिन में भी हो सकता हैं।


फिक्र ना कर बीनणी में हूँ ना।


बापूजी मैं किसी घर से पानी मांग लाता हूँ। काकू बोतल और गेलनिये ले लो, आगे पता नहीं कहां पानी मिले।


कुछ देर में हीरा और मगजी दौड़ते हुये आते हैं।


बापूजी हमें चलना होगा, पानी तो मिल गया पर गांव वालों ने सौ सवाल पूछे हैं ,लगता हैं पुलिस को खबर कर देंगे।


जल्दी से सब चल पड़ते हैं।


जान न होते हुये भी धापू जल्दी जल्दी पैर मारती हैं।


अब धूप चढ़ने लगी थी, कोई ट्रक वाला भी रुकने को राजी न था।


निढाल धापू कुछ कोस और चल ली। दोपहर के दो बज रहे थे कि धापू की चीख निकल गयी।


गर्भाशय का मुंह खुल गया था। काकी ने जल्दी से बिछोना किया और हीरा ने टेंट खड़ा कर दिया। काकी के कहने पर हीरा पानी गर्म कर रहा था।


डरा हुआ पपिया बापू के पास ही खड़ा था।


हीरा बेटा, डॉक्टर की जरूरत हो सकती हैं, पानी निकल गया ,बच्चा फँसा हैं बाहर नहीं आ रहा, सिर भी दिख रहा हैं। बिस मिनट हो गए, धापू भी अब थक रही हैं।


हीरा टेंट में घुसता हैं, धापू का दर्द उसके चेहरे पर साफ दिख रहा था।


धापू मैं आसपास कोई डॉक्टर का या अस्पताल का पता करके आता हूं। तुम हिम्मत रखना। मैं दौड़ते हुये जाऊंगा और आऊंगा।


हां सा। मुझे कुछ हो जाये तो बच्चों का ध्यान रखना।


बेंडि वे गी के।


तू " गुजरी" हैं, हम गुज्जर है, इतनी जल्दी हिम्मत हारेगी क्या?


हमारी "पन्ना धाय" ने तो मेवाड़ का सूरज बचाया था। वो अपने बच्चे का बलिदान न देती तो, हिंदुआ सूरज प्रताप भी न जन्म लेते। मैं अभी आया।


हीरा के पैरों में पंख लग गए थे। कोई ट्रक न रुका तो तीरों के निशान के हिसाब से नज़दीकी शहर की तरफ भागने लगा। कुछ ही देर में ट्रक की लंबी लाइन दिखी, उस जाम में वो दौड़ता रहा।


आगे पुलिस को देखते ही वो समझ गय ,अब सीधा डॉक्टर तक ना जा पायेगा। हीरा ने एक ही सांस में अपनी सारी परेशानी पुलिस को कह डाली।


पुलिस ने एक पल की देर किए बिना एम्बुलेंस को फ़ोन किया और हीरा को मास्क पहना उसके साथ चल दिये।


हीरा के सिर में सौ डर जगह बना रहे थे। कहीं धापू...काश में कुछ दिन वहीं रुक जाता। मुझे क्या पता था आज ही बच्चा हो जाएगा। ट्रक न रुकता तो अभी तक बियावर पहुंच गए होते। पुलिस वाला एम्बुलेंस को फ़ोन पे रास्ता बताए जा रहा था। हीरा डरा हुआ पुलिस जीप से उतरा तो बापूजी और मगजी भी डर से गये।


फिर संभल के बोले 


हीरा बधाई हो " पन्ना धाय" हुई है तेरे।


हीरा खुशी और डर के साथ


बापूजी पपीये की मां केसी हैं।


बढ़िया है हीरा ,काकी पास बैठी हैं। जा मिल ले


हीरा दौड़ता सा जाता हैं, धापू के चेहरे पर अब शांति और सुकून था।


ठीक है ना धापू।


हीरा बीनणी को बड़ा परेशान किया इस पन्ना ने, सिर देख इसका कितना बड़ा हैं, सवा घंटे बाद बाहर आई हैं। एक बार को तो मैं भी डर गई थी। पर बीनणी ने हिम्मत न हारी।


तभी एम्बुलेंस आ जाती हैं। धापू को जल्दी एम्बुलेंस में बैठा बोतल चढ़ाई जाती हैं। हीरा और पपिया भी साथ बैठ जाते हैं। बाकी सब को पुलिस ले के जाती हैं।


आप राजस्थान गुजरात के बॉर्डर पे हो। एम्बुलेंस राजस्थान की ही आयी हैं। हम अभी आपको राजस्थान पुलिस के हवाले कर देंगे। वो आपके परिवार को पंद्रह दिन किसी स्थान पे रखेंगे, खाना पीना सब देंगे, फिर आपको घर जाने देंगे। ठीक हैं।


बापूजी शांत भाव से - और हमें क्या चाहिए। हम आपसे डरे हुये थे पर आपने कितनी मदद की।


एम्बुलेंस में डॉक्टर हीरा को डांटती हैं। कितने गैर जिम्मेदार आदमी हो तुम। ऐसी हालत में कोई औरत को इतना चलाता हैं क्या।


बच्चा कुछ दिन बाद होनेवाला था, प्रेशर की वजह से जल्दी हो गया हैं। ये तो अच्छा हैं बच्चे ने पोजीशन ले ली थी। हेड नीचे को न होता तो। बच्चे की हार्ट बीट भी कम हो सकती थी और हो सकता हैं हुई भी हो। इसका खुद का बी पी हाई लौ हो सकता था। तुम्हारे पास तो कोई सोनोग्राफी रिपोर्ट भी नहीं हैं। आयरन कैल्शियम की गोलियां खिलाई है इसको। शुगर,ब्लड, थाइरोइड कुछ भी टेस्ट करवाया है इसका।


बच्ची चार किलो की हैं, इसमे तो सिजेरियन ही ठीक रहता। कितना बेवकूफ़ आदमी है।


पपिया डॉक्टर की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था पर हीरा और धापू एक दूसरे को देख बस मुस्कुराए जा रहे थे।



नागमणी

 सन 1940 ; आज चांदनी रात उगम कंवर को खाये जा रही थी। गांव की प्रकृति, सुंदर आसमान , मन मोहने वाला चंद्रमा सब उसके कलेजे पे कटारी से चल रहे थे।पति परमेश्वर राजाओं की फौज में थे और उनको देवलोक हुए एक महीना हो चुका था।चार आने की पेंशन भी मिलनी शुरू हो गयी। पर एक बिटिया और तीन लड़के, कैसे इनका लालन पालन होगा। बिटिया के हाथ पीले कैसे होंगे, सोच सोच कर उगमा का मन बैठे जा रहा था।


आज गर्मी और लू के थपेड़ो ने घर के खुले आंगन में सब जनानियो को सोने पर मजबूर कर दिया। नही तो रोज सब झोपड़ी या शाळ में ही सोते थे। जेठसा ठाकर साहब और घर के और पुरुष कोल्डी के बाहर माचे लगा के सो गए थे, इससे जनानियो को और आराम हो गया।


सब गहरी नींद में सोये थे । अब रात भी ठंडी हुवे जा रही थी पर उगमा के मन मे बवंडर उठा हुआ था। मन ही मन हाथ जोड़ राम जी का नाम सुमिरन करने लगी।


थोड़ी देर में आंख खुली तो साळ प्रकाशमान थी। इतना तेज प्रकाश की किवाड़ के कुंडे भी साफ दिख रहे थे। पास में सोये भाभीसा व अन्य औरतों को जगाने लगी तो सब बेसुध से पड़े थे। काफी हिलाने डुलाने पर भी सब अचेत पड़े थे।


पुरुषों की तरफ इस समय जाना सही न लगा। थोड़ा कलेजा मजबूत कर उगमा ने साळ का दरवाजा खोला। एक घोटवा पैसा जो अभी के एक रुपये के सिक्के से चार गुना बड़ा होता था, उसके आकार की, रत्न सी कोई वस्तु चमक रही थी।


उगमा ने जैसे ही उसे हाथ मे लिया। हथेलि की लकीरें और नाखूनों के नीचे की मांशपेशियां भी स्पष्ट दिखाई देने लगी। एक पल को उगमा शून्य सी हो गयी। ऐसी वस्तु उसने कभी न देखी थी। घबरा के उसने वो चमकती वस्तु फेंक दी। फेंकते ही प्रकाश का भी लोप हो गया।


वो वापस आके चुपचाप लेट गयी। कुछ देर में उगमा को घबराहट सी होने लगी, उसने फिर से भाभीसा को चेताया तो वो उठ खड़े हुए। सारी बात सुनने के बाद भाभीसा ठाकुर साहब को भी बुला लायी।


ठाकुर साहब ने बताया ये नागमणी हो सकती थी। प्रभु कृपा से स्वत ही किसी अधिकारी के पास चली आती हैं। सालों में कोई एक घटना ऐसी सुनने को मिलती हैं।


बहुत खोजने पर भी मणी न मिली।


ठाकुर साहब - बीनणी ये तुमने क्या किया। न त्यागती तो पूरे कुटुम्ब के भाग्य खुल जाते।


उगमा मन ही मन बोली ,शायद राम जी की यही इच्छा थी। एक सकारात्मक ऊर्जा से उगमा ओत प्रोत हो गयी। मैं अपने बच्चो का पालन पोषण अब पूरे जतन से करूँगी।



कोरोना

 नाटक के चरित्र


1. सुधा जी - (उम्र 40 साल) - मास्टरनी हैं ,सब से बात कर लेती हैं. मोहल्ले में सब जानते हैं.


2. श्यामजी - (उम्र 62 साल) अखबार पढ़ने का शोक, सुबह का अखबार भी शाम तक चाटते रहते हैं. अपने आप को ज्ञानी ही समझते हैं. बड़ी बड़ी बातें करने वाले


3. मोहन जी -(उम्र 68 साल)- ध्यान ,योग पर भरोशा करने वाले, दुसरो की बात मानने वाले, थोड़े डरपोक टाइप. दुसरो की राय लेते ही रहते हैं.


4.भंवर जी - ( उम्र -52 साल) - गाने सुनने के शौकीन. बिस्कुट, चॉक्लेट कुछ न कुछ खाते ही रहते हैं. मज़ाक करने, बातों का चटकारे लेने वाले आदमी. सिगरेट नही पीते, पर कभी कभार सुरता राम जी के साथ पी लेते हैं.


5. सुरता राम जी -( उम्र -53 साल) किसी से बहस नही ,बीड़ी , सिगरेट पीने वाले, हां में हां मिलाने वाले. टोली के साथ मस्त रहना. मौका मिलने पर जबान खोलना.


6. वर्माजी - ( उम्र - 58 साल) - प्रोफेसर , लिटरेट आदमी. जानकारी दुनिया भर की. राजनीतिक बाते और वर्ल्ड नॉलेज की बाते करने वाले.


7. अरुणजी - ( उम्र 57 साल) - कम ही बोलते हैं, सब के बोलने के बाद, उन्ही सब की राय पे एक बात कह देते हैं.


सूत्रधार - जैसा कि आप सब जानते है कि दुनिया कैसे महामारी की मार झेल रही हैं. कोरोना से बचने के लिए मास्क व सोशल distancing काफी प्रभावी रहा है. पर हम में से कुछ लोग खुद ही डॉक्टर बन जाते है और अपना निर्णय देना शुरू कर देते हैं.मुझे तो डर है कि कल कोरोना की वैक्सीन आ गयी तो ,हम तो यु ट्यूब पे देख ,घर पर ही अपनी वैक्सीन ना बना ले.हम जानकारी की कमी के कारण ,क्या क्या धारणाएं बना लेते हैं, देखिए ज़रा..




सभी लोग एक साथ आते है और संदेश देते हैं




" अपनी समझ को बढ़ाना हैं


 कोरोना को अब हराना हैं


  देश का साथ निभाना हैं


  मास्क सभी को लगाना है"




फिर नाटक शुरू




{ शाम का समय , सब आदमी घर के बाहर चौकी ( दालान, बरामदा, चौपाल) पर बैठे गप्पे मार रहे हैं, कम आवाज़ में फ़ोन में गाने लगा ,भंवर जी आनंद ले रहे हैं , सुरता राम जी के साथ सिगरेट भी शेयर हो रही हैं, श्याम जी अखबार पढ़ रहे हैं.मोहन जी सब को देखते हुवे भी अंगुलियों को ध्यान मुद्रा में किये हुवे, ध्यान में जाने की असफल कोशिश कर रहे हैं, अरुणजी नज़र बचाते हुवे मोहल्ले की जवान लड़कियों को आते जाते देख रहे हैं. वर्मा जी किसी विचार में डूबे है,उदास से, सामने नजर पर देख किसी को नही रहे }




मोहन जी- "श्यामजी , मुझे तो गले मे बड़ा दर्द रहता हैं पिछले तीन एक दिन से. कल तो सुबह 5 बजे तक नींद ही नही आई. खुद ही उठ के पानी गर्म किया, थोड़ा सा नमक डाल, गरारे किए, तब चैन पड़ा."




भंवर जी -"( मस्ती में, चटकारे लेते हुवे) - मोहनजी , कोरोना तो नही हो गया आपको.( सब हँसते हैं) कुछ नही थोड़ी सिगरेट खींचो, ऐसी गर्मी होगी फेफड़ो में, कफ वफ सब गायब".( सब फिर से हँसते हैं) 




श्याम जी - ( अखबार समेटते हुवे ,गहनता से ) - "घर पे ही देशी दवा करो. उकाली पियो , लूंग,काली मिर्च की. हल्दी के गरारे करो. हॉस्पिटल जाने की गलती मत करना. वो तो इंतज़ार में बैठे हैं. कोई बुढ़ा, ठाढ़ा आ भर जाए.फिर मरके ही बाहर आता हैं. किडनियां निकाल लेते हैं. एक वीडियो भी देखा मेने सुबह ही, फ़ोन पे भेजा भाई के लड़के ,राघव ने".




सुरता रामजी - "बॉडी भी नही देते. खुद ही जला देते हैं. कुछ को देते भी है तो पूरा पैक करके. रीति रिवाज कुछ नही,10-20 आदमी जाओ, फूंक के आ जाओ. पास भी कोन जाए, कौन हाथ लगाए".




वर्मा जी - "मुझे तो लगता हैं, सब देशों की गवर्मेंट ने मिल के बड़ा प्लान किया हैं. सब जगह बूढ़े ही तो मर रहे हैं. इटली, स्पेन, फ्रांस , जर्मनी. अमरीका या भारत को ही ले लो. वहां ओल्ड एज वालो के ऊपर सरकार का भारी खर्च आता है और यहां पेंशन देनी पड़ती है. 


बूढ़े साफ। कितना पैसा बचेगा सरकारों का."




अरुणजी - "कुछ तो गड़बड़ हैं। पहले कहते थे जानलेवा बीमारी हैं , एक बार हुई तो मरना तय है और अब कह रहे हैं 70 परसेंट से ऊपर रिकवरी रेट हैं. ऐसा होता हैं क्या"




भंवर जी - ".... ये हमको चु........ बना रहे हैं और हम बन रहे हैं."




( सुधाजी घर से दूध लाने के लिए निकली हैं, हाथ मे छोटा थैला लिए ,सब को एक साथ बैठे देख कर)




सुधा जी - "गुरुजी( श्यामजी) , वर्माजी, आप सब. ऐसे टाइम में सब एक साथ. ये लो, एक ही सिगरेट पी रहे हैं। कोरोना का टाइम हैं। खराब टाइम हैं। आप सब तो समझदार हो, मास्क भी नही लगा रखे। "




श्यामजी - ( हलका लेते हुवे व समझाते हुवे) "अब कोरोना में पहले वाली बात नही रही. वायरस कमजोर पड़ गया हैं। तीन दिन में लोग अपने आप ठीक हो रहे हैं. अब फिक्र करने की इतनी बात नही है।"  




मोहन जी - ( खांसते हुवे) - "नही ,ध्यान रखने में कोई बुराई नही हैं. मास्क तो लगा ही लेना चाहिए."




सुधा जी - ( चिंता करते हुवे) अरे आपको तो सर्दी ज़ुकाम हो रखा हैं. गला भी बैठा हैं. कफ जम गया लगता हैं. सरकारी डिस्पेंसरी पास ही तो हैं, जाके दिखा दो। टेस्ट भी करवा लेना। यहां तो भीड़ भी नही रहती।" 




सुरता रामजी - ( श्यामजी के पक्ष में बोलता हुवा) - "रहने दो सुधा जी. अब आप लेडीज लोग को भी क्या समझाना. किडनियां, फेफड़े, लिवर सब निकाल लेते हैं. घर पे रहे तो ही बचेंगे, हॉस्पिटल वाले तो इंतज़ार में बैठे हैं.कोई आ भर जाए..."




वर्मा जी -"अब हमारे तो पार्टियां होती ही रहती हैं. फिर नॉन वेज तो होना ही हैं. फिर कलीग लोग इमोशनल और हो जाते हैं. कई बार एक ही प्लेट में साथ बैठ जाते हैं. ( हँसके, याद करते हुवे) पीने के शेरिंग वाले मामले। दो बार ऐसा हो गया, बाद में पता चला, जो साथ मे खा रहा था, उसे कोरोना था. अब मुझे तो नही हुआ कोरोना और वो लोग भी अपने आप ही रिकवर हो गए."




भंवर जी - "गेली फिलम है कोरोना. कुछ पता नही, है कि नही. सबकी अलग राम कहानी. किसी को होता भी है या डॉक्टरों को बस लाखों का बिल बनाना हैं."




अरुण जी - "सही बात , इसका ज्यादा लोड नही लेना. अभी मेरा बेटा भी जबरदस्ती लेके गया मुझे. ये टेस्ट करवाने. अब वहां पर तो कोरोना वाले ही आते हैं. नही हो ,उसको भी कोरोना हो जाए. बेटे की जिद पर जैसे तैसे करवाना पड़ा. अब लिखवा के ले लो , मेरा नेगेटिव ही आएगा."




सुधा जी - ( गुस्से में) "कहाँ से सुनी ये सब बातें. कुछ पता भी हैं आप लोगो को , क्या हालात हो रखे है." 




मोहनजी -" हां, आप बताओ सुधाजी, आप तो अध्यापक हो, ज्यादा जानते हो."




( सब निराश होते हुवे, जैसे वो सुनना ही नही चाहते)




सुधा जी -"पहली बात , कोरोना का टेस्ट फ्री है. सरकारी डिस्पेंसरी या प्राथमिक चिकित्सालय भी सैंपल कलेक्ट कर रहे है. दूसरे दिन तक रिपोर्ट आ जाती है.रिपोर्ट आने के बाद सर्दी झुखाम के अलावा, विटामिन सी, मल्टी विटामिन्स व इम्युनिटी बढ़ाने वाली दवाई भी दी जाती है ,वो सब भी फ्री है."




मोहन जी - "अच्छा"




"फिर आपके इलाके के बी एल ओ , डॉक्टर, पुलिस अधिकारी व नगर निगम के सदस्य के साथ एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बनता हैं. जिसमे आपके एरिया के कोरोना से प्रभावित और भी लोग होते हैं."




अरुण जी -" बी एल ओ क्या होता हैं."




सुधा जी - "आपके एरिया का बूथ लेवल ऑफिसर. सरकारी अधिकारी जो सीधा आपसे जुड़ा रहता है."व्हाट्सएप्प पर डॉक्टर हर दिन आपके स्वास्थ्य की जानकारी लेता हैं. आपके ऑक्सीजन का लेवल आपसे जानता रहता हैं.पहले घर पे ही क्वारंटाइन किया जाता है. कोई जबरदस्ती हॉस्पिटल लेकर नही जाता हैं.बी एल ओ यहां तक ध्यान रखता है कि अगर आप बुजुर्ग है और बच्चे बाहर रहते हैं तो घर पे जरूरी सामान पहुचाने की व्यवस्था भी करता है।  


चार पांच दिन में डॉक्टर घर आकर चेक करके जाता हैं. साइन होते है उसकी विजिट के, रिपोर्ट जाती है.आपका कचरा भी नगर निगम वाला लेकर जाता है, आपको बाहर नही फेंकना है. ये तक नोर्म्स हैं गवर्नमेंट के.."




वर्मा जी - "ह्म्म्म"




श्याम जी - (हैरान होते हुवे) "इतना कुछ..."




सुधा जी - "हां , और ख़ुदा न खास्ता आपकी तबियत बिगड़ी और हॉस्पिटल में जगह न हो तो डॉक्टर एम्बुलेंस से इमरजेंसी सर्विस जिसमें ऑक्सीजन की पूर्ति कराना या ड्रिप लगाना आदि मदद मुहैया कराता है, सिर्फ एक व्हाट्सएप्प के मैसेज मात्र से."सरकार इस महामारी को काबू करने के लिए और आपकी सहायता के लिए बहोत कुछ कर रही है. पर आपकी डींगे खत्म हो तो..."




( तभी अरुण जी का काल आता है, अरुण काल सुन के सुन्न सा हो जाता है, सब पूछते है क्या हुआ)




अरुण जी - ( डरा हुआ) - "मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है ."




सब एकदम शांत, सुधा जी को देखते है और नज़रे झुका कर निकलने लगते है.श्यामजी चलने ही लगते है कि घबरा के गिर पड़ते है. सुधा उठाने आती है. बिना उसे देखे ही अपने घर मे घुस जाते है."




सभी एक साथ फिर आते हैं और संदेश देते हैं




" अपनी समझ को बढ़ाना हैं


  कोरोना को अब हराना हैं


  देश का साथ निभाना हैं


  मास्क सभी को लगाना है"!

अजीब वाकिआ

 हुआ यूं कि हमारे एक दोस्त मुंबई से पधारे थे और अक्सर जब वो आते थे तो दारू पार्टी के लिए मुझे याद फ़रमा लेते थे। मुझे याद करने की एक वजह तो ये कि मैं पार्टीया कम अटेंड करता हूं क्योंकि मुझे पीने का शौक़ कम है । दूसरी बताऊंगा तो आप कहेंगे की अपनी ही तारीफ़ किए जाते है.. सो छोड़िए। 


कोरॉना काल में भी उनका धंधा ठीक ही चल रहा था , मोबाइल एसेसरीज की होलसेल की दो बड़ी दुकान, मुंबई सिटी सेंटर मौल में हैं। मेरा बिजनेस टूर्स न ट्रैवल्स का था जो अब चारों ख़ाने चित, औंधे मुंह पड़ा था। मै थोड़ा बहुत डिप्रेशन में तो था लेकिन अच्छी बात ये थी कि बाईस साल की उम्र वाला शौक़ पूरा करने के लिए छत्तीस साल की उम्र में मैने थिएटर क्लासेज जॉइन करली थी।


मैं बहुत ख़ुश था और समय बहुत क्रिएटिव तरीक़े से गुज़र रहा था। एक अच्छा ग्रुप बन गया था और हमने आपस में कुछ व्हाट्सएप ग्रुप बना लिए थे।


कुछ महीनों सब बढ़िया चल रहा था। कुछ लोग धड़ाधड़ मैसेज करते थे, ज़रूरी भी और ग़ैर ज़रूरी भी और कुछ लोग बिल्कुल अमल खाके सोए पड़े रहते थे, कई बार ऐसा लगता था कि वाक़ई में वो जीवित भी हैं या नहीं।


क़रीब पांच महीने पूरे होने वाले थे और हमारा एक बन्दा रूठ के ग्रुप से एक्जिट हो गया। उसके इस ग़ैर ज़िम्मेदारान रवैए पर बड़ा अजीब लगा और ग़ुस्सा भी आया। कुछ दिन हमने उससे बात न की लेकिन बाद में सब ठीक हो गया।


बात असल में उसकी नहीं , मैं अपनी कह रहा था। हुआ यूं कि एक रविवार मैं प्रैक्टिस में नहीं गया , अब बाल बच्चेदार आदमी , सौ काम और बस एक इतवार। दूसरा ये भी की मेरा तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ा हुआ था और मैं अपना समय उसमें देना चाह रहा था।


इस इतवार के बाद मुझे बड़ा अजीब सा लगने लगा। आप इसे सिक्स्थ सेंस कहे या कुछ और क्योंकि मैं ना सिक्स्थ सेंस को मानता हूं और ना ही भगवान वगवान को। विज्ञान अनुसार पांच ही सेंस मुझे समझ आते है।


यही बात मैं ड्रिंक करते हुवे अपने मित्र मंडली के साथ शेयर कर रहा था कि, मैं जब भी अपने इन व्हाट्सएप ग्रुपस को ओपन करता हूं, मुझे लगता है कोई जम कर मुझे गालियां दे रहा है।  


मेरा व्यवहार आदतन ' मुंशी प्रेमचंद जी' के उस गधे की तरह है जो किसी भी बात का सबसे कम विरोध करता है और सबके काम का और साथ का आदमी है, तो ज़ाहिर है कि मैं अल्फा मेल वाली थियरी में यक़िन नहीं रखता। क्या है की विदेशियों कि सारी थियरिज को मैं सही नहीं मानता , क्यूंकि जानवरों के लिए तो ये ठीक जान पड़ती है लेकिन जब भी इन्सान ने ऐसा बनने की कोशिश की है तो वो जानवर बन गया , जैसे कि रावण और दुर्योधन, उन दोनों में अल्फा मेल की सारी खूबियां थी। अरे.. र...र ये मैं कहां चला गया। असल में, मेरी इस आदत से मेरी पत्नी भी परेशान है , मैं कुछ बोलते बोलते , कहीं और ही दिशा मैं बोल पड़ता हूं। 


तो मै कह रहा था कि कोई मुझे जम कर गालियां दे रहा है ,ऐसा मुझे लग रहा था। इस वजह से मेरा क्लास में भी परफॉर्मेंस ख़राब हो रहा था और मैं हताश महसूस कर रहा था। दो दिन तो मैं इस बात को टालता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरा कोई वहम ही होगा या कोई और वजह होगी। लेकिन आज चार दिन हो गए थे। दारू पीने के बाद दोस्तो के साथ गप्पे मारते हुवे अपना जी हल्का करने जैसा सुख, और कोई नहीं और कहीं नहीं। 


दोस्तो को सुन कर भी बड़ा अजीब लगा क्यूंकि वो मेरा स्वभाव जानते थे । मैं जितना सीधा था उतना ही मेरा स्वभाव अनप्रेडिक्टबल था। कोई मुझे मुंह पर गाली निकाले और वो मेरे लिए उपयोगी न हो तो मैं उसके हलक़ में हाथ डाल ज़बान भी खेंच लेता हूं। और वो जानते थे कि, कोई मुझे पीठ पीछे गाली निकाले तो मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मैं ये मानता हूं कि ये दुःखी इंसानों के काम है या परेशान औरतों के , जिनको इससे अल्प सुख प्राप्त होता है। या फिर कोई मुझे छोटा दिखा, ख़ुद को बड़ा साबित करना चाहे ,लेकिन वो उस ग़रीब आदमी की परेशानी है, उससे मुझे क्या लेना देना?


दोस्तों ने कहा, इतनी छोटी बात से इतनी बड़ी परेशानी। ग्रुप से आउट हो जाओ। लेकिन दिक्कत ये थी कि एक तो मुझे एक्जिट होना ग़ैर ज़िम्मेदारान रवैया लग रहा था और दूसरा चार ग्रुप बने थे। एक ऑफिशियल गुरुजी के द्वारा और तीन दोस्तो के साथ । नज़दीकियों के हिसाब से किसी में दो दोस्त, किसी में चार और किसी में छह। दोस्तो ने पूछा कि कौनसे ग्रुप से आपको ऐसी भावनाए आ रही है ? अब ये तो मुझे भी नहीं पता। सब दोस्तो ने फ़ोन अनलॉक करने के लिए कहा। 


हम चारों दोस्तो ने फ़ोन को घेर लिया और तिलिस्म की खोज में लग गए। बड़े हिम्मत और संजीदगी से मैने गुरुजी वाला ग्रुप ही पहले खोला। सबने मेरी तरफ देखा , मैने महसूस करने की कोशिश की और मुझे बड़ा सुकून सा मिला, यहां से गालियां नहीं आ रही थी। बाक़ी रहे तीन ग्रुप, सब में से गोलियों कि बोछार की तरह गालियां आ रही थी। कुछ तो मेरे दोस्तो ने भी महसूस की। अब ये दारू का असर था या सच में कोई आध्यात्मिक अनुभव , कहा नहीं जा सकता। डिफेंस लेते हुवे मैं जल्दी से तीनों ग्रुप से आउट हो गया। ऐसा महसूस हुवा जैसे गहन युद्ध के बाद एक गहरी ख़ामोशी। एक शांति सा अनुभव हुआ और मैं घर आके सो गया। 


आपको ये वाक़िआ अजीब लग सकता हैं। 


क्या टेक्नोलॉजी भी नज़र लगा सकती है ?  


सिक्स्थ सेंस टेक्नोलॉजीज़ पर भी काम करता है? 


क्या कभी आपको भी ऐसा अनुभव हुआ है? हुआ हो तो नीचे लिखी मेल आईडी पर शेयर करना क्योंकि व्हाट्सएप नंबर देने की फ़िलहाल मेरी हिम्मत नहीं है। 


Yashsarathore@gmail.com





स्त्री पुरुष

 ( सन 2110)


(झील के किनारे के पास,पहाड़ी पर बैठे दो प्रेमी)


( 28 वर्ष का युवक साधु वेश में, कामिनी सी सुंदर अपनी प्रेमिका से वार्तालाप कर रहा है)


दिव्यांशु - तुम अब भी प्रतीक्षा कर रही हो ?


सरिता - मृत्यु पर्यंत तुम्हारा प्रतीक्षा करूंगी। तुम्हारी तपस्या पूर्ण होने तक।


दिव्यांशु- तुम जानती हो। मेरे दादाश्री व पिताश्री ने इस इस पृथ्वी को पुनर्जीवन दिया। जब मनुष्य मन पूरी तरह मलिन हो गया था। धन व सत्ता के लोभ में, इस धरा को अणु एवम् परमाणु युद्धों से बंजर कर दिया था। विलुप्त होती मानव जाति व इस धरा को को वनस्पतियों,, औषधियों, पेड़ - पोधों से,उन्होंने पुनर्जीवित किया था।


मनुष्य इतना मूर्ख कैसे हो गया था कि अपने ही काल का बीज उसने स्वयं बोया,उसे सींचा भी और स्वयं बढ़ा किया और फिर आत्महत्या भी की।


सरिता - क्या मनुष्य का मन अभी मलिन नहीं? 


 क्या कुछ घटनाओं के बारे में तुमने नहीं सुना?


दिव्यांशु- यह और भी कष्टदायक है। क्या कोई ऐसा मार्ग नहीं, उपाय नहीं,जिसे अपनाकर मनुष्य मन कभी मलीन ही ना हो।बस इसी का हल खोजने में मैंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है। और अब शायद मैं सत्य के बहुत निकट हूं।


सरिता - दिव्यांशु.…


क्या प्रेम का अधिकार सिर्फ मुझे और तुम्हें हैं? आज जहां सब जगह भय व्याप्त है,वहां प्रेम की स्वच्छंदता और स्वतंत्रता कहां!


 मुझे भोजन के लिए हत्या का कारण फिर भी ठीक जान पड़ता है, परंतु कमजोर स्त्रियों,कुमारियो के साथ बलात व्यवहार, उनकी लज्जा भंग! यह सब सुनकर स्वास लेना भी मुझे दुर्भर लगता है।


सरिता - तुम भी दिव्यांशु..


( तभी दिव्यांशु के सिर पर वार होता है।दो लोगों उसे रस्सी से बांध देते हैं)


(सरिता के साथ बलात्कार की घटना।संपूर्ण दृश्य नृत्य के रूप में दिखाया जाए)


(दिव्यांशु की मूर्छा टूटती है।रक्षा के लिए बंधन तोड़ने का प्रयत्न करता है तभी एक छुरा उसके हृदय के आर पार कर दिया जाता है)


दिव्यांशु - हे प्रभु! अगर मेरी श्रद्धा मानवता के लिए सच्ची रही है। तो प्रभु, भविष्य में वह सभी पुरुष जो किसी स्त्री की इच्छा के बिना, उसे बलात हथियाने की चेष्टा करें ;वह उसे छूते ही नष्ट हो जाए। मैं श्राप देता हूं! 


Fadeout


(झील के किनारे के पास,पहाड़ी पर बैठे दो प्रेमी. एक दूसरे से बातें कर रहे हैं।एक दूसरे को प्रेम से निहार रहे हैं)


(तभी मधुर संगीत बजने लगता है और दोनों नृत्य करने लगते है।श्रृंगार रस से भरपूर,प्रेमालाप)


(दोनों नाच रहे हैं कुछ दुष्ट लोग आसपास से आते रहते हैं। युवती को छूने की चेस्टा करते हैं और भस्म हुए जाते हैं)


(दोनों का प्रेमालाप जारी है)


(संगीत और नृत्य से इस दृश्य को सुंदर बनाया जाए)


(दोनों नाचते गाते राइट विंग से निकल जाते हैं)


Fadeout


(नेपथ्य से आवाज "कुछ सालों बाद")


(औरतों की बैठक। मुखिया एक स्त्री है।उसके सामने दो पुरुष और 4 स्त्रीयां खड़ी है)


मुखिया स्त्री - यह सब क्या हो रहा है?


 पुरुष एक - कल एक और पुरुष का हरण हो गया।साथ में उसके पुत्र का भी।पुरुष को उसके पुत्र की हत्या का डर दिखाकर, उसे सहवास के लिए विवश किया गया।


मुखिया स्त्री - कोई बताएगा! पुरुषों की रक्षा का दायित्व किसका है?


 4 औरतें (एक साथ)- हमारा


मुखिया स्त्री - उस नगर का मुख्य रक्षक कौन था?


 स्त्री एक - देवी बिनल


 मुखिया - जो निर्बल पुरुषों की रक्षा नहीं कर सकता। उसे देवी कहलाने का कोई अधिकार नहीं। उससे देवी की उपाधि छीन ली जाए और न्यायालय में उपस्थित होने के आदेश दिए जाए।


Fade out


(न्यायपालिका का दृश्य)


मुखिया स्त्री - न्यायपालिका की कार्रवाई शुरू की जाए।


 स्त्री एक -- उत्तम नगर में पुरुषों की रक्षा का दायित्व तुम्हारा था। क्या तुमने अपने कर्तव्य का पालन पूर्ण श्रद्धा से किया ?


मुख्य रक्षक (देवी बीनल ) - जी पूर्ण श्रद्धा से।


 मुखिया स्त्री -- फिर ये घटना कैसे हुई?


 मुख्य रक्षक देवी बिनल - कारण आप भी जानते हैं !


मुखिया औरत - कैसा कारण ?


मुख्य रक्षक बिनल - आप जानते हैं पुरुषों की संख्या अत्यधिक कम है। औरतों की भी अपनी शारीरिक आवश्यकताएं हैं। 


मुखिया स्त्री - देवी बिनल,इस नगर के बाहर पुरुषों का वेश्यालय भी तो है।क्या वह... 


देवी बिनल - वहां पहले से ही पुरुषों की संख्या कम है। वहीं उनके लिए इस आनंद की अनुभूति का कोई मूल्य नहीं।वह इससे नीरस है। कितने ही पुरुष बाल्यावस्था में ;अपने घर के, आसपास की स्त्रीयों द्वारा कई घटनाओं के शिकार हो जाते हैं। अतएव वो नीरस हैं। मुद्राएं दोगुनी करने पर भी कोई इस कार्य में रुकने को तैयार ही नहीं।


मुखिया स्त्री - तो फिर क्या किया जाए।


 देवी बिनल- कोई ठोस उपाय ही खोजना पड़ेगा।अब तो भगवान शिव ही कुछ कर सकते हैं।


मुखिया स्त्री - तो अब शिव ही करेंगे।


Fadeout


(मुखिया स्त्री, स्त्री 1 और 2 के साथ,भगवान शिव की अर्चना कर रही है। कोरस में गीत चल रहा है)


(शिव की संस्कृत में आरती हो, रोमांचक वातावरण का निर्माण किया जाए)


मुखिया स्त्री - हे महादेव अगर मन वचन और कर्म से मैं शुद्ध रही हूं तो कृपा कर आप दर्शन दे


(प्रसन्न हो शिव दर्शन देते हैं)


शिव -उठो पुत्री


मुखिया स्त्री - प्रभु आप अंतर्यामी हैं। स्त्रियां मृत्यु सा जीवन जी रही है। किसी निरर्थक वस्तु का ना होना भी उसे और मूल्यवान बना देता है। भौतिक अनुभूति की चाह में मानवता की हत्या हो रही है। अब आप ही उपाय सुझाए। 


और यह सब कैसे शुरू हुआ और क्यों?


शिव -बेटी,एक साधु ह्रदय प्रेमी पुरुष का श्राप लगा है, स्त्रियों की रक्षा हेतु।


मुखिया स्त्री - लेकिन यह कैसी रक्षा! यह मृत्यु है।


शिव- अत्यधिक सुरक्षित जीवन की चाह,जीवन ही को मार देती है।


मुखिया स्त्री - क्या पुराने काल में स्त्रियों स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर पाती थी? हम तो स्वयं निर्बल पुरुषों को सुरक्षा प्रदान करती है।


शिव - हां, पुत्री हर एक घटना,एक नई घटना की तरफ काल को मोड़ देती है।एक ऐसा युग भी था।जब प्रचुर मात्रा में अस्त्र-शस्त्र भी विद्यमान थे। एक उंगली दबाने मात्र से स्त्री अपनी रक्षा कर सकती थी, प्रतिशोध ले सकते थी। तब भी वह निर्बल ही बनी रही। पुरुष का सहारा तलाश करती रही। अपने प्रतिशोध का भार भी उसने पुरुष पर डाल दिया। कभी भाई, कभी वृद्ध पिता; तो कभी प्रेमी पर !


 स्त्री 1 - स्त्रियां इतनी कायर थी।


शिव - हां और फिर पुरुषों ने उनकी रक्षा का भार, अपने कंधों पर ले लिया और और रक्षा किससे ! स्वयं पुरुषों से।


पुरुषो ने स्त्री की लज्जा भंग को अपने मान सम्मान का प्रश्न बनाया, न की स्त्री का।


स्वयं आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा वो पुरुषों के आदेशानुसार चलने लगी।


 स्त्री 2 - वह कैसे ?


शिव- पहले पुरुषों ने उनकी रक्षा के लिए; उनके बाहर जाने पर प्रतिबंध लगाया।उसके बाद उनके वस्त्रों पर,कि क्या क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं।


मुखिया स्त्री - वस्त्रों पर भी 


शिव - हां, स्त्रियां ढकी रहती थी वस्त्रों से। कड़ी धूप में भी, बस दो नेत्रों से देखा करती थी, घर जाने का मार्ग, वो भी धुंधला सा ...


 मुखिया स्त्री - फिर 


शिव - फिर प्रतिबंध लगे उनके मन पर 


मुखिया स्त्री - वो कैसे ?


शिव - उसे बताया गया कि पुरुष को जन्म देने वाली स्त्री, स्वयं निर्बल है। प्रकृति ने जिसे चुना मातृत्व के लिए,वह स्वयं दुर्बल है। 


और नारियों ने यह स्वीकार भी कर लिया।कि हां वह दुर्बल है, निर्बल है।


 स्त्री 1 - अचरज है !


शिव - उस काल में शृंगार कर पुरुषों को लुभाना, आकर्षित करना ही बस,जीवन रह गया था स्त्रियों का।


स्त्री 2- परंतु प्रभु,श्रृंगार तो शोभा हैं नारी की।


शिव - यह भ्रम तुम्ह लोगो को कैसे हुआ।अपने आसपास देखो, प्रकृति को देखो ! श्रृंगार केवल पुरुषों के लिए है। स्त्री स्वंयम ही सौंदर्य है।


 मुखिया स्त्री - वह कैसे !


शिव- मोर को देखो।प्रकृति ने सिंगार मोर को दिया है।मुकुट, तिलक, पंख, विविध रंग। मोरनी को देखो। वह सहज स्वरूप हैं।


 सिंह को देखो। शिरोधरा केसों के हार से सुशोभित। और शेरनी सहज स्वरूप में। कुक्कुट को देखो और कुक्कुटी...


 स्त्री 1- और शिकार भी सिंहनी करती है।


शिव - स्त्री शक्ति का प्रतीक है,फिर स्त्री निर्बल कैसे हो सकती है।


 मुखिया स्त्री - इसका अर्थ पुरुष शृंगार कर स्त्री को आकर्षित करता था।


शिव - स्त्री स्वयं जो सौंदर्य और शक्ति हैं।वो पुरुषों को लुभाने के प्रयास क्यों कर करे।


तीनो स्त्रीयां (एक साथ) - प्रभु,अब आप ही मार्गदर्शन करें।हमारी समस्याएं आपके सामने प्रत्यक्ष हैं।


शिव - ( मुखिया स्त्री को) हल तो तुम्हें पता ही है।


 मुखिया स्त्री - स्त्री के लिए पुरुष ही हल है और पुरुष के लिए स्त्री। दोनों एक दूसरे के पूरक है। किसी एक का अंत होने से समस्त मनुष्य प्रजाति का ही अंत हो जाएगा।


 लेकिन पुरुष है कहां ? पूरी पृथ्वी में कितने पुरुष हैं शेष हैं !


शिव - पुरूष हैं।वो पुरुष बचे रह गए हैं, जिनमें पुरुषत्व हैं। संख्या में कम है। लेकिन यही सही समय भी है, जब आने वाली पीढ़ियां सन्मार्ग पर लाई जाए और यह दायित्व है हर माता और बहन का कि वह अपने पुत्र,भाई को सिखाएं की औरत के साथ क्या व्यवहार उचित है।


मुखिया स्त्री - किन गुणों से युक्त पुरुष बचे रह गए प्रभु ?


शिव- जिन्होंने स्त्री को केवल भोग का साधन न माना। स्वयं की तरह ही जीव माना।


स्त्री 1 - और 


 शिव - जिन्होंने उनसे प्रेम तो किया परंतु स्त्री की अनिच्छा पर उनके साथ बलात कुछ न किया।


स्त्री 2- और 


शिव - वह पुरुष बच्चे रह गए,जिन्होंने प्रेम में त्याग के महत्व को समझा। जिन्होंने प्रेम में पराजय भी स्वीकार की। विवेक त्याग जिसने विजय के लिए अनुचित प्रयास नहीं किए।


मुखिया स्त्री - प्रभु,एक पुरानी कहावत हमने सुनी हैं की


"युद्ध व प्रेम में सब कुछ मान्य हैं। "


शिव - इस पृथ्वी में सबसे विवेकहीन पुरुष की ये उक्ति थी। जिसने शरीर के प्राप्ति को ही प्रेम समझ लिया था।


न युद्ध में और न ही प्रेम में सब कुछ मान्य हैं। 


मनावता की हदे लांघ कर किए गए कर्म कैसे उचित हो सकते हैं।


मुखिया स्त्री - जो अपना मन हार गए ! प्रेम न मिलने पर भी जो प्रेम करते रहे। ऐसी पुरुषों में कोनसा गुण है।


शिव - यह प्रेम का गुण है।


 भंवरे का, पतंगों का, चातक का गुण हैं।


स्त्री 1 - भंवरे का गुण !


शिव - बड़ी से बड़ी कठोर लकड़ी को भी काट देने वाला भंवरा, फूल की कोमल पत्तियों में जब कैद हो जाता है तब उसे काटता नहीं वरन श्वासावरोध होने पर भी,अपने प्राण तक त्याग देता है; परंतु उन्हें काटता नहीं। यह उसका प्रेम है।


स्त्री 2- पतंगे का गुण


 शिव - पतंगे अग्नि के प्रेम में जलकर राख हो जाते हैं।


मुखिया स्त्री - प्रेम ही है हल। चातक का प्रेम!


 शिव - चातक वर्षा की चाह में,शुद्ध पाने की चाह में प्राण त्याग देता है। लेकिन मलिन नदी- नालों से अपनी प्यास नहीं बुझाता।


जब शुद्र जीव जंतु में ये गुण हैं,तो मनुष्य तो परमात्मा की उत्कृष्ट कृति है।


 इकाई -इकाई से समाज का मंदिर बनता है।जब तक एक- एक इकाई संस्कारों के साथ घड़ी नहीं जाएगी। तब तक समाज मंदिर स्वरूप नहीं लेगा  


मुखिया स्त्री - परंतु प्रभु,मनुष्यों में दुर्गुणों है ही क्यूं?


अगर परमात्मा दुर्गुण देते ही नहीं 


शिव - मनुष्य परमात्मा की कटपुतली मात्रा नहीं हैं। परमात्मा के प्रेम की कृति हैं मनुष्य। मनुष्य को वरदान है, परमात्मा का सबसे अनमोल वरदान!


तीनो स्त्रियां - अनमोल वरदान !


शिव - स्वतंत्रता का !


 मुखिया स्त्री - स्वतंत्रता का ?


शिव - मनुष्य स्वतंत्र है चाहे तो दूषित,मलिन, निकृष्ट जीवन व्यतीत करें या उत्कृष्ट जीवन की तलाश करे। ऐसे उत्कृष्ट पुरुष स्त्रियों के संतुलन से ही सृष्टि में जीवन संभव है सरिता।


तीनो स्त्री - सरिता !


शिव - ( मुखिया स्त्री को) -हां पुत्री। तुम ही थी सरिता, शुद्ध प्रेम का प्रतीक। फिर तुम्हारा प्रेम अधूरा कैसे रह सकता है। और है कहीं तुम्हारी प्रतीक्षा करता दिव्यांशु। जैसे कभी तुमने उसकी प्रतीक्षा की थी। जाओ और खोजी दिव्यांशु को और उस जैसे पुरुषों को, जिनमें दिव्यांशु जैसे गुण विद्यमान हो।


 जाओ पुत्री जाओ।


तीनो स्त्रियां - शत शत प्रणाम प्रभु।


(आशीर्वाद देते हैं। शिव अंतर्ध्यान हो जाते हैं)


Fade out


(स्त्रियां खोज में निकलती हैं। पुरुषों परदे के पीछे से निकल निकल कर आते हैं।खुशी से एक दूसरे को देख कर दौड़ के पास आते हैं। गले मिलते हैं।आनंद का,श्रृंगार का वातावरण बनता हैं)


 (गाना शुरू होता है सब नृत्य में मग्न होते हैं )


सरिता व दिव्यांशु प्रेम से आलिंगन करते हैं।

मनु

 राज - कैसी हो मनु?


मनु - मैं एकदम ठीक हूं। तुम कब आए..


राज - बस आज ही शाम को... तुम्हारी होली कैसी रही..


मनु - खाली....


राज - क्यों?


मनु - बस यूं ही... तुम बताओ दो साल हो गए..... कई बार मन हुआ कि तुमसे बात करूं....लेकिन फिर लगा ......आप अपने कामों में उलझे हुए होंगे..... तो....


राज - हम्म्म, कोई बात नहीं .. मुझे भी तुमसे बहुत बाते कहनी थी लेकिन कह न सका ..


मनु - अब तो कह दो राज..


राज - उस दिन आप पास आ के बैठे। मैं आपसे बाते किए जा रहा था, लेकिन मैं तो सच में प्रेम कर रहा था। उस क्षण में जी रहा था। 


मनु- : यही तो सुख है...


राज: वो चांद, वो तारे, खुला आसमान, हल्की सर्दी का अहसास और तुम। कैसे न खो जाएं हम।


उस दिन आपमें सादगी थी। चेहरे पे सच्ची हँसी थी। वो ही दिन था जब से मेरी इच्छा हुई आपको और जानने की ,बात करने की। क्योंकि मैंने उस दिन बहुत प्यारे पल जीये थे।


मनु- : अहा हा हा.. यादें ताजा हो गई..


राज - : मुझे पता था की, सब झूठ ही सही, लेकिन वहां जिंदगी थी।


मनु- : झूठ नहीं था, सच था, उस पल का सच...


राज - : काश समय वही ठहर जाता


मनु- : चांद कितना सुंदर था ना उस दिन..


राज - : हां और बहुत पास था। एक आंखों के सामने और एक मेरे कंधे पे सिर को लगाए...


मनु- : इसने मुझे निःशब्द कर दिया


राज: शब्द ही नहीं की बयां करूं, बस कोई मेरा बहुत अपना, मेरे साथ था। जिससे उस पल में मुझे अगाध प्रेम मिल रहा था । मैंने एक बार डर के ही तुम्हारे कांधे पे हाथ रखा, लेकिन फिर तुम्हारे बालों की खुशबू और ये नज़दीकी। ऐसे ही किसी पल में, मौत आगोश में ले ले। अनन्त सुखकारी मृत्यु, प्रेममय मृत्यु!


कुछ देर के लिए, तुम में खो जाने का या मेरे न होने का अहसास था। जो बहुत सुखदायी था।


मनु- : इन शब्दों में इतना प्रेम घुला हुआ है तो उन एहसासों में कितना प्रेम होगा।


राज: हम्म.. इसीलिए शब्द अपूर्ण हैं, वो धुरी तो बना सकते हैं, लेकिन जो जिया हैं उसे बता नहीं सकते।


मनु- : हां, ये सच बात हैं।


राज: तुम उस दिन मेरे पास क्यों आई थी, मुझे नहीं पता था। लेकिन वो कुछ घंटे, वो पल। जब भी मैं, मेरे जीवन के खूबसूरत लम्हों को याद करता हूं, तो उसमे वो चांद भी याद आता हैं और याद आती हो तुम। मैं मुस्कुरा उठता हूं । एक पल के लिए वो एहसास मुझे फिर से घेर लेता हैं और हृदय कहता हैं - 'मनु '.......


मनु- : मेरे पास कारण थे आपके पास आने के। एक साफ़ और निश्चल मन है जो खींच लेता है अपनी और जिसके पास जाने पर, सुकून घेर कर हिफ़ाज़त कर रहा होता हैं।


राज: शब्द ही नहीं मिल रहे, आगे क्या कहूं । अहसास के आगे शब्द पूरे नहीं उतरते..


मनु- : शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते, एहसास उन्हें पूरे करते है


राज: मैं तुम्हें उस दिन इतना नहीं जानता था। लेकिन मन था की तुम पास यूं ही बैठी रहो। मन हुआ ,तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में ले सकूं। लेकिन उसे बुरा लग गया तो... इतना मीठा एहसास क्यों ख़राब करूं। लेकिन जब अपनी इच्छा में, कोई मैल मुझे नहीं दिखा तो मैंने तुम्हारा हाथ देखा। वो उंगलियां बहुत अपनी लग रही थी, जैसे की मुझे पहले ही पता हो की वो अपनी हैं। फिर मैं ठहर गया, मेरे मन में या तुम्हारे मन में, या मैं ही नहीं रहा। शरीर से ऊपर उठकर जीना कितना खूबसूरत एहसास होता हैं, ये फिर तुमने एहसास करवा दिया था।


मनु- : हां ,बहुत खूबसूरत होता है...




राज: फिर एक वक्त आया जब तुम नहीं थी। किसी ने कहा चली गई। लेकिन तुम तो थी मन में..। रजाई से सिर ढके हुवे, आंखें और मन लॉन में तुम्हें तलाश रहे थे। उस रात आंखों में नींद नहीं थी। तुम्हारा बसेरा था। वो जगी रही , अपनी बेवकूफी पे, खुद पे हंसते हुए। लेकिन अब चांद विदा ले चुका था। मन निराश था कि गया वक्त लौट के नहीं आता।


कुछ घंटों बाद ,सूरज ने अंगड़ाई ले, जैसे ही अपनी यात्रा शुरू की, एक पल को नज़र लॉन में फिर गई। सूरजमुखी सूर्य को प्रणाम कर रही थी। फिर वही हुआ, हृदय के खेत लहलहा उठे। हवाओं में संगीत बहने लगा।




बुद्धि ने समझाया कल नशा था, सब नशे में थे। अब जग हसाई होगी। लेकिन में तो नशे में ही था, मेरा नशा उतरा ही कब था।


मैंने सूरजमुखी से पूछा -" क्या कर रहे हो सूर्य नमस्कर" 


और उसने कहा - " हां, मैं सुबह सुबह योगा करती हूं"




मनु- : सब जीवन्त कर दिया आपने, मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा हैं।


राज - क्या कहूं इसके सिवा - शुक्रिया..


तुम भी बताओ, तुम्हें उस दिन क्या लगा। तुम कैसी मन: स्थिति में थी।


मनु- मैं शायद आपकी तरह शब्दों को ना सजा पाऊँ। कहने को सिर्फ एहसास ही है। उस भीड़ में भी तन की जगह मन को तलाशने वाला मिल गया था। मुझे जहाँ कोई खतरा महसूस नही हो रहा था। पास आ कर बैठना बहुत महफूज लग रहा था। एक सुकून था। और मुझे जो शब्दों से और आपसे आती हवाओं से जो प्रेम मिल रहा था वैसा प्रेम कौन नही चाहता। उस रजाई में निश्चल प्रेम की गरमाहट ज़्यादा थी जो रात को बांधे हुए थी। 




और जानते है सबसे खूबसूरत क्या था- जब अगले दिन सब आपको छेड़ रहे थे और जो मुस्कान आपके चेहरे पे थी वो आपका शुद्ध प्रेम जता रही थी।


लेकिन फिर तुम भी चले गए...


राज - हम सब टेंट में ही थे, लगभग सारे लोग। लेटने के लिए मैं कुछ तकिए ले आया था..


मनु - हां, मुझे याद हैं..


राज - तुम सामने ही बैठी थी, कुर्सी पर... मन बावरा होता हैं। वो चाह करने लग गया की तुम पास में आकर लेट जाओ।

मन ने.. खुद से ही मान लिया की ,कोई उस नज़र से हमको न देखेगा।


मैने तुम्हारे लिए जगह कर रखी थी। मैने अपना हाथ फैला रखा था। लगा तुम मेरे बाजू को अपना तकिया बना लोगी।


लालच था ,थोड़ा और जीने के, तुम में खोने का.. लेकिन सब ख़्वाब थे । जागती आंखों के.... जीवन और प्रेम को बांधा नही जा सकता ,अपने तरीक़े से.. उनके लिए इंतज़ार करना पड़ता हैं.. वो घटित होते हैं .. जब उन्हें उनका आधार मिलता हैं..


तुम क्यों आती, कोई भी क्यों आता। लोग थे वहां ,वो भी होश में.. हमने शायद एक ऐसे समाज का निर्माण कर लिया, जहां जीने के लिए भी कुछ आवरण ज़रूरी होते हैं।


मैं चाहता था तुम्हे गले लगाना, तुम्हारे साथ बैठ और बाते करना..लेकिन आम जीवन में ऐसा नहीं होता.. ऐसा होता हैं साहित्य में, नाटक में, फ़िल्म में या नशे में...


फिर तुम्हारा और मेरा संबंध ही क्या था। हम तो पहली बार ही मिले थे...

बस एक पहचान ही तो थी कि हम दोनो कलाकर हैं...


फिर तुम्हारे नज़दीक के लोग कोई और थे, तुम्हारा प्रेम कोई और था.... मैं तो...


कुछ भी तो नहीं पास मेरे,

मेरे पास जो तुम्हे ले आए..

यहां तो बस मैं हूं, मैं हूं, बस मैं हूं .....


जितनी ज़िंदगी मिली थी , उसे अपनी झोली में पूरा समेटकर , मैं चला गया..


मनु - .... मैं .......


मनु: एक बात बताइए आप


राज :- हां


मनु:यह आप मुझसे नजरें क्यों नहीं मिलाते थे, जब भी मिलत थे..


राज: क्योंकि तुम्हारे आंखें बहुत सुंदर हैं, उनमें जीवन झलकता हैं.. और मुझे उनमें खो जाने का डर... मेरी नज़रों से अगर प्रेम बयां हो जाए और वो सब को दिख जाए, इसलिए चोरी करता था, नज़रे चुराता था..


मैं तुम्हे देखने से भी डरता था। मुझे जुड़ने का डर था, क्योंकि में पूरा ही जुड़ता हूं। मैं तुम्हे थोड़ा सा देखता था, फिर सिर झुका लेता था या इधर उधर देखने लग जाता था...


मनु - ऐसा क्यों...


राज: सच कहूं तो तुम मुझे बहुत सुंदर लगती हो। तुम जब भी आती हो या सामने होती हो तो तुम्हारा aura मुझे घेर लेता हैं। मैं क्या कहता हूं, क्या करता हूं... काफी बार होश नही रहता। फिर ख़ुद को समेटता हूं और संभल के बोलता हूं।


मनु : इतना प्रेम कैसे संभालु..


राज: बाहर तुम्हे पता नही लगता था, अंदर तूफान मुझे झगझोड़ देता था। इधर से उधर और उधर से इधर.. ये तो मैं हूं जो की ज़बान और पैरों को लड़खड़ाने नहीं देता था...


मनु: चल तो बहुत कुछ रहा होता था ,जो दिखता था ..जब आप नजरें चुराते थे..


राज - इस प्रेम में, मैं अपनी इच्छा से रमा था। तुम इसे बोझ की तरह मत लेना। मैं आपसे कोई उम्मीद नहीं रख रहा। ये नितांत मेरा हैं..


मनु: अरे ऐसा क्यों कह रहे हैं, ये नितान्त आपका नही हैं...


राज : फिर वही रात हैं...


मनु :- यह गाना सुना है आपने?


राज : हां सुना है ..


मनु : कितना सुंदर गाना है ना


राज : बहुत..

तुम्हें बेहतरीन जीवन साथी मिले, तुम बहुत काबिल हो। आंखे झुक जाने की एक वजह थी की ख़ुद को तुम्हारे लिए नाकाबिल समझता था..


मनु: पहली बात तो आप नाकाबिल नहीं है ..मुझे बहुत प्यार करने वाले मिले जरूर है ...लेकिन पता नहीं कैसा अकेलापन मुझे खाता है...


राज : एक दिन कोई मिलेगा, जब शायद ही अकेलापन ना रहे..

जीवन साथी ज़रूरी नहीं की पति ही हो..। अगर तुम्हें शादी न भी करनी हो तो कोई साथी मिले... जिसके साथ तुम अपने को पूरा फील करो..


वो क्षण भगवान सबको दिखाए.. मैने जिए थे वो पल.. बहुत समय तक... फिर... जीवन की अपनी चाल हैं... मुझे तो वो किस्तों में मिला हैं.. हमेशा ही...


मनु : मुझे नहीं चाहिए कोई ;

यह खोखले रिश्ते और प्यार ;

नहीं चाहिए कोई जीवनसाथी ;

कोई साथी नहीं होता जीवन का..


राज : लेकिन जीवन तो साथ होता हैं... जीवन से ही प्यार करो..


मुझे : मुझे जीवन से तो प्यार है..


राज : तुम्हे जब भी देखता हूं, तुम बहुत सुंदर लगती हो..

पता नही कुछ है जो मुझे खुश कर देता हैं या पूरा कर देता हैं.. पता नही...

वजह जानती हो..


मनु : क्या..


राज : तुम्हारा aura.. तुम छा जाती हो.. बादलों की तरह... घेर लेती हो सबको...बिना कुछ बोले, बिना कुछ किए... तुम्हारी होना व्यापक होता हैं... फिर सिर्फ बादल दिखते हैं और कुछ भी नही.... ये मुख्य वजह हैं.. क्योंकि फिर हर तरफ तुम दिखती हो और तुम्हारी ही बात हर कोई करता हैं...


मनु : हां , तो ऐसा क्यों होता है ?

कैसे होता है ?

मैं जानना चाहती हूं, ताकि मैं उस से बच सकूं..


राज : वह नहीं हो सकता... जो तुम्हारा गुण था, उसे ही तुम ने अवगुण कह दिया.. .. फूल समझ के खुशबू नही फैलाते.. ऐसा होता हैं.. उनका अस्तित्व ही ऐसा हैं... तुम डरोगी तो मुरझा जाओगी.. खिली रहो.. जैसी हो.. वैसे रहो


तुम नहीं भी बोलती हो , फिर भी नज़र तुम पर जाती हैं.. क्या करोगी तुम...


मनु : आह... राज...तुम..


तुम्हारी कविताएं पढ़ी.. अच्छा लिखते हो..


राज: हर बार अपना लिखा देखता हूं, और तुम्हे शुक्रिया कहने का मन होता हैं..


मनु : मुझे क्यूँ !


राज : वजह तुम ही हो । तुमसे बाते करता था ना .. कितना फायदा होता हैं... फिर कोई बात , तुमसे क्यों न करे...


राज: मैं कभी कोई प्ले करूंगा ,तुम्हारे साथ... जिसमे शृंगार रस हो... कोई रूमानी से डायलॉग्स हो.... देखना चाहता हूं.. मुझसे हो पाएगा या फिर ... नज़रे चुराऊंगा


मनु : हाहा क्यू नही.... तुम भी.. ऐसी बाते कैसे बनाते हो..


राज: जो बाते मुझसे निकलती हैं, वो सोच के नही निकलती.. एक इंपैक्ट होता हैं तुम्हारा.. फिर एहसास होता हैं... फिर उन एहसासों को शब्द देने की कोशिश करता हूं..


मनु : क्या होता होगा ऐसा...


राज : पता नही ..सच कहूं तो तुम छा जाती हो मन पर.. तुम्हारी सूरत उतर आती हैं मन में.. फिर तुम्हे याद करना.. तुम्हे सोचना अच्छा लगता हैं.. कुछ भाव होते हैं.. जो सुख देते हैं.. प्रेम जगाते हैं.. उन भावो में रहना अच्छा लगता हैं.. मैं उन भावो को पालता हूं.. प्यार करता हूं उनसे.. अपने जीवन में संजो के रखता हूं.. तो शब्दो के रूप में वो बाहर आते हैं..


मनु :- राज..

मैने तुम्हे एक प्ले की फोटो शेयर की थी...याद हैं..


राज : हे भगवान ...वो फोटो.. तुम बहुत सुंदर हो मनु...


तुम्हारी बिंदी, तुम्हारे बाल, तुम्हारी मुस्कुराट और पूरी तुम..

कोई कविता न कहे तो ,फिर कैसे कहे तुम्हे.....


मनु : यह भी एक कविता ही हैं...


राज : सच कहूं तो अब....तुमसे प्यार करने के लिए... तुम्हारी ही ज़रूरत नही...


मनु :-ऐसा क्यों कह रहे हो..


राज :- क्योंकि ऐसा होता हैं मनु..

तुमने "नवरंग" मूवी देखी हैं.


मनु: उस कहानी में एक आदमी अपनी पत्नी से इतना प्यार करता हैं की उसे याद कर कर के गाने लिखता हैं.. झूमता हैं... गाता हैं.. पत्नी को लगता हैं ,कोई और औरत से चक्कर होगा... वो चली जाती हैं.. फिर वो तड़पता हैं..


मनु : ये तो ... दुखदायी हैं..


राज : लेकिन आखिर मैं मिल जाते हैं.. हमारा हिंदी सिनेमा..


मनु : फिर तो अच्छा हैं


राज : शाम ढलने वाली हैं, रात चढ़ने वाली.. तुम्हे देरी तो नही हो रही..


मनु : नही, मैं यही रुकना चाहती हूं, तुम्हारे पास..


राज : मैं भी रुक जाना चाहता हूं फिर से उसी लॉन में, उन्ही कुर्सियों पर, जहां वक्त ठहर गया था..


मनु : हां और चाहे तो आप मेरा हाथ भी देख सकते है


राज: क्या तुम्हे पता चला जब मेने अपना हाथ तुम्हारे कंधे पर रखा !


मनु : उस दिन की यादे थोड़ी धूंधली है..


राज : हम्म् ..बहुत पी रखी थी तुमने.. जीरो नंबर दिया था मैंने तुम्हें.


मनु : बहुत अच्छे से याद है मुझे कुछ बाते..


राज : मैं डरा हुआ था, तुम्हारा सिर कांधे पर था.. तुम्हारे बालों की खुशबू ने जैसे कोई जादू सा कर दिया था.. एक मदहोशी सी थी.. खुमारी सी... मेरे प्राण चीख कर कह रहे थे की तुम्हारे कंधे पर हाथ रखूं..


जैसे तुम बैठी हो निश्चल, वैसे मैं भी ....


मनु: फिर आपने रखा था हाथ..


राज : हां, फिर हिम्मत करके मेने कंधे पर हाथ रखा.. तुम इतनी पास थी की, हाथ ने तुम्हारे बाए हाथ को छुआ... बस फिर मैं वैसे ही बैठा रहा.. उससे ज़्यादा की कोई इच्छा ही न थी, ना कोई खयाल आया.. मैं वैसे ही रहा.. काफी देर तक.. जब तक तुम्हारा हाथ न देखना ,शुरू किया..


मनु :- मैं क्या कहूं कितना प्रेम भरा हुआ है आपकी यादों में..


राज : और जिसकी वजह से ये हुआ, उसको याद ही नहीं... सदमा मूवी...


मनु : हा हा हा.. सॉरी.. कुछ कुछ याद हैं... कुछ कुछ नही..


राज : अब समझ आया तुम्हे वो मूवी क्यों पसंद हैं..


मनु- मुझे बस उस कंधे पर बहुत सुकून मिल रहा था ;जैसे बरसो बाद मिला हो


राज - देखो वैसे तो मैं भगवान, अगला पिछला जन्म नही मानता... लेकिन एक कनेक्शन होता है, जिसे मैं शब्द नही दे सकता..


मनु :- हां....


राज:- जैसे प्ले के दिन आप आए.. आप हाथ मिलाने आए... मेने कहा.. मैं हाथ नही मिलाता.. और मैं गले मिला.. इतना सीधा मैं नहीं कह सकता किसी को


मनु :-तुम्हारा मन साफ था.. सुनके में बुरा नहीं लगा


राज :- जबकि उससे पहले हमारी तो कोई बात ही नहीं हुई थी..


मनु :जी


राज : मैं तो तुम्हे देखता भी नज़र बचा के था..

सच कहूं तो तुमसे डरता भी था.. की कोई बात ठेस न पहुंचा दे.. तुम्हे गुस्सा न आ जाए..


मनु- यह जरूरी भी है..

वैसे एक बात कहूं ,

आज तक हिम्मत तो नहीं हुई याद दिलाने की..

उसी रात की बात है..


राज : हां मनु, कहो..


मनु :- ठीक से याद तो नहीं .... मैं तुम्हारे कंधे पर सर रखकर अधलेटी सी थी..

आपका हाथ मेरे कंधे पर था या हाथ पर था ; जो फिसल के कमर पर आ गया था..

एक बार को मैं डरी थी कि कहीं आपने ऐसा जानबूझकर तो नहीं किया...


मैं दो मिनट शांत रही और मुझे कोई गंदगी महसूस नहीं हो रही थी तो फिर मैं वापस निश्चिंत होकर सो गई..


राज : हां ऐसा हुआ था..


मनु : आपको पता था


राज : हां, तुम इतनी नजदीक थी की मेरा हाथ आपके हाथ पे था.. आप मेरी तरफ थे.. तो.. वैसे ही हाथ लग रहा था.. लेकिन मैने हाथ को स्टेबल रखा ,ताकि कोई गलत इंटेंशन न लगे..


मनु: अच्छा..


राज : वो पल इतने भरे हुवे थे कि.. संतुष्टि से भर चुके थे मुझे.. फिर प्यास.. क्या रहेगी..

मुझे क्या फील हुआ .. बताता हूं..

तुम्हारे हाथ पे मेरा हाथ गया... वो स्पर्श क्या था क्या कहूं... जैसे की मैं पूरा हो गया.. जैसे मन रेगिस्तान सा तप रहा था और बादल बरस गए... उसके बाद क्या मांगता में..


मनु: अहाहा इससे सुन्दर क्या होगा


राज : सरल शब्दों में कहूं,, तुम्हारा छुआ बहुत अपना था.. मुझे लगा ही नहीं तुम कोई और हो..

जैसे कोई मेरा बहुत अपना हैं.. मेरा हैं..


मनु: मुझे भी नही लगा की कोई और छू रहा है..


राज : लेकिन तुम्हारे छुए से जो सुकून और तृप्ति मिली.. बस साथ भर बैठने से.. क्या कहूं..


मनु :- राज, मैं तुम्हारे गोदी में सिर रख के सोना चाहती हूं...सालो की नींद हैं ,पूरी हो जाएगी..


राज:- थोड़ी आजादी दोगी कुछ कहने की..


मनु : कहो..


राज:- मैं क्या चाहता हूं..

लेकिन इसको गलत न लेना... मेरी कोई वैसी एक्सपेक्टेशन नहीं है आपसे.. ना ही कुछ ऐसा चाहता हूं..


मैं सोचता हूं, कही दूर पहाड़ों पर, तुम्हारे पास आके लेट जाऊं.. तुम गले लगा लो.. और मैं सो जाऊं... बस.....


मनु : क्या कहूं...


राज :- मुझे अभी तक एक ही बात समझ आई हैं की तुम मुझे पूरा होने का एहसास देती हैं. उसे तृप्ति कहूं या सुकून...


राज:- तुम्हें वह गाना याद है जिंदगी गले लगा ले..


मनु ... हां, तुम्हे वो मेरी पिक याद हैं, जिसको डीपी लगाया था, व्हाट्सएप पर..


राज : हां , बहुत प्यारी फोटो हैं वो... नेचुरल... रॉ...सूर्यमुखी ने गुलाब सजा रखा था..

मनु -आ हा हा हा क्या उपमा दी है..


राज: तुम्हारी टी शर्ट का रंग गुलाब सा था और तुम गुलाब सी ..

..गुलाब तुमने लगा रखा था या ओढ़ रखा था...

मेरा मन तुम्हे देख के उड़ के तुम्हारे पास आने को कर रहा हैं..

मन को भंवरा क्यों कहते है , तब समझ आया..


मनु - वह गुलाब कितना सुंदर था ना!


राज: हां बहुत और तुम भी...


मैं तुम्हे ध्यान से देखता हूं... और कविता जन्म लेने लगती हैं मनु..


मनु, हम एक्सपेक्ट नही करते हुवे भी हम एक्सपेक्ट करते चले जाते हैं.. इंसान ही तो हैं..


मनु :- हां मैं यह समझती हूं..


(कहते सुनते राज और मनु ,पहले की ही तरह पास बैठे और उन्हें कब नींद ने आगोश में ले लिया, या एक दूसरे में समा गए ,पता ही न चला।)